भूख से तंग आके जलाल अली के बांस के मछरी पकड़े वाला जाल बनावे के सीखे पड़ल.

जवानी में दिहाड़ी मजूरी करके पेट पाले के कोसिस कइलन, बाकिर बरखा में इहो कमाई पर संकट रहे. “बरसात में कुछ दिन धान रोपाई के काम छोड़ के कवनो काम ना मिलो,” उ कहेलन.

बाकिर बरसात चलते दर्रांग जिला के उनकर इलाका के मौसिता-बालाबारी नहर आ दलदल में मछरियन के बाढ़ आ जात रहे. ओइजा मछरी पकड़े वाला बांस से बनल जाल के बहुत मांग रहे. “बांस से मछरी पकड़े के जाल बनावल हम सीखनी ताकि अपनी परिवार के पेट पाल सकीं. जब आपके भूख लागेला त आप पेट में खाना डाले के सबसे आसान तरीका खोजेनी,” पुरान बात याद करके हंसत उ कहेलन.

आज जलाल सेप्पा, बसना आ बायेर – देसी बांस से बने वाला जाल के बारीक कारीगर हवें जवन ए पानी के स्रोत से अलग-अलग तरह के मछरियन के पकड़ सकेला. ई कुल कारीगरी उ असम के मौसिता-बालाबारी आर्द्रभूमि के संघे बसल पुब-पदोखात गांव के ए घर में करेलन.

“खाली दू दशक पहिले ले हमरी गांव के संघे संघे आसपास के गांवन में भी लगभग हर घर में मछरी पकड़े वाला जाल बांस के बनल रहत रहे,” जलाल कहेलन. “पहिले या त बांस के जाल रहे या त फिर हाथ से बनल शिव जाल,” उ जाल के बारे में बतावेलन जेके आमतौर पर टोंगी जाल या सेटका जाल भी कहल जाला – इ एगो चरखुट आकार के जाल होखेला जेमे बांस के कईन, चाहे तार से जुड़ल चार गो कोना रहेला.

मछरी पकड़े वाला बांस के जाल के ओकरी आकार के हिसाब से नाम पड़ल बा: “सेप्पा आयताकार आकार में ड्रम निहर बा. बायेर भी आयताकार होला बाकिर इ लम्बा आ चौड़ा होला. डारकी एगो आयताकार बॉक्स निहर होला,” जलाल बतावेलन. दुएर, दियार आ बसना जाल बहत पानी में लगावल जाला, अइसन ज्यादातर धान आ जूट के खेतन, छोट नहर, दलदल में रुकल पानी में, आर्द्रभूमि या नदियन के संगम में मिलेला.

PHOTO • Mahibul Hoque
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बाएं: असम के मौसिता-बालाबारी आर्द्रभूमि से लागल पुब-पदोखात गांव के अपनी घर के आंगन में मछरी पकड़े के जाल के निरीक्षण करत जलाल. आयताकार रूप में खड़ा जाल के सेप्पा कहल जाला. दायें: उनकी हाथ में जवन जाल बा ओके बायेर कहल जाला. दायें: जलाल जाल में मछरियन के घुसे खातिर एगो जटिल गांठ वाला जगह देखावत बाड़ें. परम्परागत बांस से बनल मछरी वाला जाल के घुसे वाला जगह के पारा या फेरा कहल जाला

असम में ब्रह्मपुत्र घाटी – पूर्व में सदिया से लेकर पश्चिम में धुबरी तक ले के क्षेत्र नदी, चैनल, नदी से आर्द्रभूमि के जोड़े वाली खाड़ी, बाढ़ के मैदान के झील आ अनगिनत प्राकृतिक तालाबन से भरल बा. ए जल निकायन से स्थानीय समुदायन के मछरी पकड़े के आजीविका बनल रहल आईल बा. मत्स्य सांख्यिकी 2022 पुस्तिका के अनुसार असम में मछरी पकड़े के उद्योग में 35 लाख से अधिक लोग शामिल बाड़ें.

वैज्ञानिकन के कहनाम बा कि मछरी पकड़े के नयका तरीका जैसे मोसुरी जाल (छोट जाल) या मशीनीकृत ड्रैग नेट महंगा आ जलीय जीवन खातिर खतरनाक बा काहें कि ई छोट से छोट मछरी के भी पकड़ लेला आ पानी में प्लास्टिक अपशिष्ट छोड़ेला. बाकिर स्थानीय रूप से उपलब्ध बांस, बेंत आ जूट से बनल मछरी पकड़े के देसी जाल टिकाऊ होला अ स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के अनुरूप होखेला – उ खाली विशेष आकर के ही मछरी पकड़ेला एसे कुछ बेकार ना जाला.

नाम ना बतवला के शर्त पर आईसीएआर- सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट के एगो जानकार बतवलें कि व्यावसायिक या आधुनिक उपकरण के जरिये जरूरत से अधिक मछरी पकड़ल जाला. एह से मछरी आ बेंग (मेंढ़क) के अंडा नष्ट होला आ इकोसिस्टम के नुकसान पहुंचेला.

उ बतवलें कि बाढ़ के दौरान गाद चलते प्राकृतिक दलदल आ आर्द्रभूमि भी घट रहल बा – ओमे पानी कम रहि गईल बा. एसे अंतर्देशीय मछरियन के पकड़ भी कम हो गईल बा. मछुआरा मुकसेद अली ए तथ्य से बड़ा परेशान बाड़ें, “पहिले आप ब्रह्मपुत्र में पानी बहल देख सकत रहनी ह जवन हमरी घर से चार किलोमीटर दूर बा. खेतन में पानी लागल रहे आ हम ओमे माटी डाल के पातर पातर धारा बना के मछरी पकड़े के जाल बिछाई जा.” साठ बरिस के मुकसेद के कहनाम बा कि उ बायेर पर निर्भर रहें काहें कि आधुनिक जाल कीने के उनकी लगे पईसा ना रहे.

“छव चाहे सात साल पहिले ले हमनी के बहुत पकड़ मिले. बाकिर अब चार गो बायेर से हमके मुश्किल से आधा किलो मछरी मिल पावता,” मुकसेद अली कहेलन जे दर्रांग जिला के नम्बर 4 अरिमारी गांव में अपनी मेहरारु संघे रहेलन.

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बाएं: अरिमारी गांव के नम्बर 4 में अपनी घर में डारकी देखावत मुकसेद अली. उनकर मेहरारू लग्गे के स्कूल में सफाई कर्मचारी के काम करेली आ उ मछरी बेच के उनकर हाथ बंटावेलन. दायें: मुकसेद अली बांस के जाल जांचत बाड़ें जेके उ पिछला रात सेट कईले रहलें. पिछला तीन साल में पकड़ एतना कम हो गईल बा कि उनकरी चार गो जाल मिला के कबो कबो खाली आधा किलो मछरी मिल पावेला

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असम में प्रचुर मात्रा में बरखा होखेला – ब्रह्मपुत्र घाटी में 166 सेंटीमीटर आ बराक घाटी में 183 सेंटीमीटर. दक्षिण-पश्चिम मानसून अप्रैल के अंत में शुरू होखेला आ अक्टूबर ले रहेला. जलाल काम के अइसन भईला से पहले के याद करेलन आ एकर तुलना करेलन. “हम जोष्टि-माश (मई के मध्य में) में मछरी पकड़े के जाल बनावे शुरू करीं आ लोग आषार माश (जून के मध्य में) ले बायेर कीने शुरू कर देवे. बाकिर पिछला तीन बरिस से लोग कम बरखा के वजह से सामान्य समय में खरीदारी नईखे कर पावत.

विश्व बैंक के 2023 में आइल एगो रिपोर्ट में बतावत बा कि असम में बढ़ल तापमान, सलाना बरखा में कमी अत्यधिक बाढ़ के घटना के अनुभव होखी. जलवायु परिवर्तन से जल निकायन में अवसादन भी बढ़ी जेकरी वजह से उनकर जल स्तर कम होखी आ ओमे मछरियन के संख्या भी कम हो जाई.

राज्य विधान सभा में पेश ए सरकारी विज्ञप्ति में कहल गईल बा कि 1990 से 2019 ले सलाना औसत अधिकतम आ न्यूनतम तापमान में क्रमशः 0.049 आ 0.013 डिग्री सेल्सियस के वृद्धि भईल. दैनिक औसत तापमान सीमा में 0.037 डिग्री सेल्सियस के वृद्धि भईल आ ए अवधि के दौरान हर साल सामान्य बरखा से करीब 10 मिलीमीटर ले कम बरखा भईल.

“पहिले हमनी के पता रहे कि बरखा कब होई. बाकिर अब पैटर्न पूरा तरह से बदल गईल बा. कबो कबो कम समय में बहुत अधिक बरखा होखेला आ कबो कबो एकदम बरखा ना होला,” जलाल कहेलन. उ बतावेलन कि उनकरी निहर कारीगर तीन साल पहिले ले मानसून के मौसम में 20,000 से 30,000 रुपिया ले कमा सकत रहे.

जलाल के बांस से मछरी पकड़े के जाल बनावत देखीं ए वीडियो में

जानकार कारीगर कहेलन कि पिछला साल उ करीब 15 बायेर बेचले रहलें बाकिर जून मध्य से जुलाई मध्य ले खाली पांच गो बायेर बनवले बाड़ें. ई समय लोगन के मछरी मारे खातिर देसी बांस के बनल जाल कीने के नियमित समय हवे.

उ अइसन अकेला कारीगर नईखन जिनकी आमदनी में गिरावट आईल बा. जोबला दैमारी उदलगुरी जिला के 79 बरिस के सेप्पा निर्माता हवें. उ कहेलन, “पेड़ पर कटहल कम भईल बा, गर्मी बहुत अधिक बा अबहिन ले बरखा नईखे भइल. इ साल बहुत अनिश्चित होखे वाला बा त हमके जबले बनावे के आर्डर ना मिली, हम हाथ ना लगाइब. एगो सेप्पा के फाइनल टच देत के दैमारी पारी से बात कर रहल बाड़ें. उ बतावेलन कि विक्रेता लोग उनकी घरे आवे बहुत कम कर देले बाड़ें त हमनी के मई 2024 के एगो गरम दिन में जब उनसे मिलनी जा तब ले उ खाली पांच गो जाल बनवले रहलें.

असम के सबसे बड़ बाजारन में से एक बालूगांव साप्ताहिक बाजार में सुरहाब अली दशकन से बांस के बनल चीजन के व्यापार से जुड़ल बाड़ें. “ई जुलाई के पहिला हफ्ता हवे आ हम ए साल एक्को बायेर नईखी बेचले,” उ कहेलन.

जलाल अपनी कला के धीरे धीरे गायब होत देख रहल बाड़ें. “केहू हमरी लगे बनावे के तरीका सीखे ना आवेला. मछरी के बिना केहू ई कलाकारी सीख के का करी? उ अपनी घर के पिछवाड़े में आपन डारकी बनावे के काम पूरा करे आवत के पूछेलन. ई पिछवाड़ा दरअसल मौसिता-बालाबारी अनलिस्टेड बील (बड़ दलदल) के संघे के एगो माटी के सड़क हवे.

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बाएं: जोबला दैमारी अपनी घर के आंगन में जहां उ सेप्पा पर काम करेलन. उदलगुरी जिला के 79 बरिस के बुजुर्ग कहेलन, ‘गर्मी बहुत ज्यादा बा अभी ले बरखा नईखे भईल. इ साल बहुत अनिश्चित होखे वाला बा त हमके जबले बनावे के आर्डर ना मिली, हम हाथ ना लगाइब’

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बाएं: सुरहाब अली बालूगांव के साप्ताहिक बाजार में बांस के उत्पाद बेचेलन. उनकर कहनाम बा कि उनके ग्राहक नईखे मिलत. दायें: सुरहाब अली के दोकान पर मछरी पकड़े वाला एगो बांस के जाल लगावल गईल बा. जाल के अंदर से मछरी निकाले के तरीका उद्घाटित कईल गईल बा

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“आपन बोरियत के भुलाये के पड़ी आ अगर आप ई जाल बनावल चाहतानी त आपके आपन ध्यान के एकदम केन्द्रित राखे के पड़ी,” जलाल कहेलन. उनकर कहनाम बा कि उनकी काम में पूरी तरह से समर्पण के जरूरत बा. “अधिक से अधिक आप बातचीत सुन सकेनी बाकिर अगर आपके भी बातचीत में हिस्सा लेवे के बा त बायेर पर गांठ बांधल छोड़ के बईठे के पड़ी.” लगातार काम कर के उ एगो जाल दू दिन में पूरा कर लेवेलन. “अगर हम बीच-बीच में रुक के पूरा करीं त एमे चार से पांच दिन लाग जाई,” उ कहेलन.

ए जाल के बनावे के प्रक्रिया बांस चुने से शुरू होला. मछरी पकड़े के जाल बनावे खातिर लोग स्थानीय बांस काम में लावेला जेमे लम्बा गांठ होखेला. बायेर आ सेप्पा दूनो तीन फीट या साढ़े तीन फिट लम्बा होखेला. तोल्ला बाश या जाति बाह (बम्बुषा तुलडा) के ओकरी लचीलापन खाती पसंद कईल जाला.

“एगो पूरा तइयार बांस, जवन आमतौर पर तीन या चार साल के होला, जरूरी होला नाहीं त जाल ढेर दिन ले ना चल पाई. गांठन के लम्बाई आदर्श रूप से 18 से 27 इंच के बीच में होखे के चाहीं. बांस खरीदत समय हमार आंख के ओकर माप सही से लेवे के चाहीं,” उ कहेलन. “हम ओके एक गिट्ठा (नोड) के अंत से दूसरे गिट्ठा ले टुकड़ा में काटेनी,” जलाल कहेलन आ अपनी हाथ के उपयोग कर के पतला चौकोर बांस के छड़न के नापेलन.

एक बेर बांस के टुकड़ा में काट दिहला के बाद जलाल जाल के साइड के दीवारन खातिर बारीक चौकोर पट्टी बनावेलन. “पहिले हम काठी (पतला बांस के खोल) बनावे खातिर जूट के धागा के उपयोग करत रहनी बाकिर अब हम प्लास्टिक के धागा के उपयोग करेनी काहें कि हमनी के क्षेत्र में अब जूट के खेती नईखे होत.”

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बाएं: बांस घरे ले अईला के बाद जलाल सावधानी से खास लम्बाई संघे गांठन के चुनाव करेलन जवन आदर्श रूप से 18 से 28 इंच ले रहे के चाहीं. एसे उ चिकना सतह वाला पातर, चौखुट खोल बनावे में सुविधा होला जेसे बांधे के प्रक्रिया आसान हो जाला आ जाल के एगो सुंदर आ सममित आकर मिलेला. दायें: ‘हम अपनी अंगुरी से एक-एक कर के काठी गिनेनी. लम्बा वाला साइड खातिर 280 बांस के तीली होखे के चाहीं. डारकी के चौड़ाई खातिर, जवन लगभग आधा हाथ बा (6 से 9 इंच ले), हम 15 से 20 मोट आयताकार पट्टी के उपयोग करेनी ताकि ई माटी के दबाव के सामना कर सके, जलाल कहेलन

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बाएं: बगल के दीवारन से टोली बन्हला के बाद हम बगल के दीवारन से चाल बान्हे शुरू कईले बानी,’ जलाल कहेलन. ‘फिर हमके परस (वाल्व जेसे मछरी जाल में प्रवेश करेले) बनावे के पड़ी. डारकी में आमतौर पर तीन परस आ सेप्पा में दू गो होला. दायें: डारकी खातिर आदर्श आकार लम्बाई में 36 इंच, 9 इंच चौड़ाई आ ऊंचाई में 18 इंच होखेला. मध्य भाग में सेप्पा के ऊंचाई लगभग 12 से 18 इंच होला

जलाल के 480 गो आयताकार बांस के पट्टी बनावे के बा जवन 18 इंच के या फिर 27 इंच के ऊंचाई के रही. “इ बहुत थकावे वाला कम हवे,” उ कहेलन. “काठी आकार आ प्रकार में एक जईसन होखे के चाहीं आ एकदम चिकना होखे के चाहीं नाहीं त बीनल साइड एक बराबर ना होखी,” ई करे में उनके आधा दिन लाग जाला.

सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उ वाल्व बनावल हवे जेमे मछरी घुसे ले आ फंस जाले. “हम एक बांस से चार गो बायेर बना सकेनी जेकर दाम करीब 80 रुपिया हवे आ एमे 30 रुपिया के प्लास्टिक लागी,” जलाल कहेलन. उनकी दांत में एगो अलमुनियम के तार बा जेके उ बन रहल डारकी में ऊपरी किनारा में गांठ लगावे में इस्तेमाल करेलन.

बांस के पट्टी पर गांठ लगावे आ चोटी बनावे में चार दिन के अथक मेहनत लागेला. “आप धागा आ बांस के पट्टी से ध्यान ना हटा सकेनी. अगर एगो रॉड में गोटा लगावल भुला जाईब त हो सकेला एगो गांठ में दू गो बांस के तीली घुस जाओ, एकरी बाद आपके ओ जगह ले के बुनावट दुबारा खोले के पड़ी आ फिर से गोटेदारी के प्रक्रिया दोहरावे के पड़ी,” उ बतावेलन. “एमे ताकत के बात नईखे बाकिर खास जगहन पर गोटा आ गांठ लगावल नाजुक प्रक्रिया हवे. एतना ध्यान देवे के पड़ेला कि कपार से गोड़ ले पसीना हरहरा जाला.”

कम बरखा आ कम मछरियन के वजह से जलाल अपनी शिल्प के भविष्य के ले के चिंतित बाड़ें. “के अइसन लुर सीखल चाही जेमे एतना धैर्य आ दृढ़ता के जरूरत होला?” उ पूछेलन.

इ स्टोरी मृणालिनी मुखर्जी फाउंडेशन (एमएमएफ) द्वारा समर्थित हवे.

अनुवाद: विमल चन्द्र पाण्डेय

Mahibul Hoque

Mahibul Hoque is a multimedia journalist and researcher based in Assam. He is a PARI-MMF fellow for 2023.

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Editor : Priti David

Priti David is the Executive Editor of PARI. She writes on forests, Adivasis and livelihoods. Priti also leads the Education section of PARI and works with schools and colleges to bring rural issues into the classroom and curriculum.

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Translator : Vimal Chandra Pandey

Vimal Chandra is a journalist, film maker, writer and translator based in Mumbai. An activist associated with the Right to Information Movement, Vimal is a regular contributor of a Bhojpuri column ‘Mati ki Paati’ in the Hindi daily, Navbharat Times, Mumbai.

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