"अगर हमने काम करना बंद कर दिया, तो पूरा देश दुःखी हो जाएगा."

बाबू लाल की कही हुई यह बात उनके अगले कथन से समझ आती है, "क्रिकेट खेलने को नहीं मिलेगा किसी को भी."

लाल और सफ़ेद रंग की क्रिकेट बाल, जिसे बल्लेबाज़ और गेंदबाज़ पसंद करते हैं व उससे डरते भी हैं और जिस पर लाखों दर्शक नज़रें गड़ाए रहते हैं, चमड़े से बनी होती है, जो उत्तर प्रदेश के मेरठ की एक बस्ती शोभापुर में स्थित चमड़े के कारखानों से आती है. यह शहर का अकेला ऐसा इलाक़ा है जहां चमड़े का काम करने वाले मज़दूर एलम-टैनिंग (फिटकरी द्वारा चर्मशोधन) पद्धति का उपयोग करके, क्रिकेट बॉल उद्योग में इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल तैयार करते हैं है. ‘टैनिंग’ प्रक्रिया द्वारा कच्ची खाल से चमड़ा तैयार किया जाता है.

बाबू लाल कहते हैं, "सिर्फ़ फिटकरी से टैनिंग करने पर ही चमड़े के ग्रेन्स [तंतु] खुलते हैं और रंग आराम से पास हो जाता है." उनकी बात साठ के दशक में केंद्रीय चमड़ा अनुसंधान संस्थान के एक अध्ययन से पुष्ट होती है, जिसके अनुसार फिटकरी से टैनिंग का प्रभाव यह होता है कि गेंदबाज़ के हाथ का पसीना या फिर थूक से गेंद को चमकाने से गेंद ख़राब नहीं होती है और गेंदबाज़ को मैच ख़राब करने से रोकती है.

बाबूलाल (62 वर्ष) शोभापुर में चमड़े के अपने कारखाने के एक कोने में प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हैं; चूने की सफ़ेदी से फ़र्श चमक रहा है. वह कहते हैं, "इस गांव में हमारे पूर्वज कम से कम दो सौ साल से यह काम कर रहे हैं."

Left: Bharat Bhushan standing in the godown of his workplace, Shobhapur Tanners Cooperative Society Limited .
PHOTO • Shruti Sharma
Right: In Babu Lal’s tannery where safed ka putthas have been left to dry in the sun. These are used to make the outer cover of leather cricket balls
PHOTO • Shruti Sharma

बाएं: भारत भूषण अपने कार्यस्थल शोभापुर टैनर्स कोऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड के गोदाम में खड़े हैं. दाएं: बाबू लाल का चमड़े का कारखाना, जहां सफ़ेद के पुट्ठों को धूप में सूखने के लिए छोड़ दिया गया है. क्रिकेट में इस्तेमाल होने वाली चमड़े की गेंदों का बाहरी हिस्सा बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है

हमारी बातचीत के दौरान, एक अन्य टैनर (चर्मशोधक) भारत भूषण वहां आए. भारत भूषण (43 वर्ष) इस उद्योग में तब से काम कर रहे हैं, जब वह महज़ 13 साल के थे. दोनों ने "जय भीम" कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया.

भारत भूषण एक कुर्सी लेकर आए और हमारे साथ बैठ गए. बाबू लाल ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ मुझसे पूछा, "गंध नहीं आ रही?" उनका इशारा आसपास की हौदियों में पड़ी भीगी खालों से आ रही तेज़ गंध को लेकर था. चमड़े का काम करने वालों से जुड़े सामाजिक कलंक और उनके ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव व आक्रामकता पर बात करते हुए भारत भूषण ने कहा, "असल में कुछ लोगों के नाक ज़्यादा लंबे होते हैं. बहुत दूर से भी उनको चमड़े के काम की बदबू आ जाती है.”

भारत भूषण की बात सुनकर बाबू लाल कहते हैं, "पिछले 5-7 सालों से, हम अपने काम की वजह से कई दिक़्क़तों का सामना कर रहे हैं."

चमड़ा उद्योग भारत के सबसे पुराने विनिर्माण उद्योगों में से एक है. केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले काउंसिल फ़ॉर लेदर एक्सपोर्ट्स के अनुसार , 2021-2022 में इस उद्योग में 40 लाख से ज़्यादा लोग कार्यरत थे और दुनिया के क़रीब 13 प्रतिशत चमड़े का उत्पादन कर रहे थे.

शोभापुर के लगभग सभी चमड़ा कारखानों के मालिक और उनमें काम करने श्रमिक जाटव समुदाय (उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध) से ताल्लुक़ रखते हैं. भारत भूषण के अनुमान के मुताबिक़, इस इलाक़े में 3,000 जाटव परिवार रहते हैं और "लगभग 100 परिवार फ़िलहाल इस काम में लगे हुए हैं." शोभापुर वार्ड नं. 12 के भीतर आता है, जिसकी जनसंख्या 16,931 है, और वार्ड में रहने वाली लगभग आधी आबादी अनुसूचित जाति से ताल्लुक़ रखती है (जनगणना 2011).

शोभापुर झुग्गी बस्ती मेरठ शहर के पश्चिमी किनारे पर है, जहां चमड़े के कुल 8 कारखाने हैं, जिनमें से एक के मालिक बाबू लाल हैं. भारत भूषण बताते हैं, "जो हम बनाते हैं उसे सफ़ेद का पुट्ठा [खाल का पिछला हिस्सा] कहते हैं. क्रिकेट की गेंद इसी से बनाई जाती है." खाल को संसाधित करने के लिए पोटैशियम अल्यूमीनियम सल्फेट यानी फिटकरी का इस्तेमाल किया जाता है.

Left : Babu Lal at his tannery.
PHOTO • Shruti Sharma
Right: An old photograph of tannery workers at Shobhapur Tanners Cooperative Society Limited, Meerut
PHOTO • Courtesy: Bharat Bhushan

बाएं: बाबू लाल अपने कारखाने में. दाएं: मेरठ के शोभापुर टैनर्स कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड में चमड़े का काम करने वाले श्रमिकों की एक पुरानी तस्वीर

विभाजन के बाद खेल के सामान का उद्योग पाकिस्तान के सियालकोट से मेरठ स्थानांतरित हो गया. बाबू लाल हाईवे के दूसरी ओर इशारा करते हैं, जहां 1950 के दशक में ज़िले के उद्योग विभाग द्वारा स्पोर्ट्स इंडस्ट्री की मदद के लिए एक चर्मशोधन केंद्र खोला गया था.

भारत भूषण कहते हैं कि “कुछ चमड़ा श्रमिकों ने मिलकर 21 सदस्यों वाले एक टैनर्स कोऑपरेटिव सोसायटी लिमिटेड का गठन किया. हम केंद्र का उपयोग करते हैं और इसके संचालन का ख़र्च मिलकर उठाते हैं, क्योंकि हम निजी इकाइयों को चलाने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं.”

*****

भारत भूषण अपने कारखाने के लिए कच्चा माल ख़रीदने के लिए सुबह भोर के वक़्त ही उठ जाते हैं. वह एक सवारी वाली ऑटो में बैठकर पांच किलोमीटर दूर मेरठ स्टेशन जाते हैं और हापुड़ के लिए सुबह 5:30 बजे की खुर्जा जंक्शन एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ते हैं. वह कहते हैं,  “चमड़ा पैंठ [कच्चा चमड़ा बाजार] हापुड़ में रविवार को लगती है. यहां पूरे देश से हर क़िस्म का खाल आता है. कच्चा माल वहीं से लेकर आते हैं.”

हापुड़ ज़िले में लगने वाला यह साप्ताहिक बाज़ार शोभापुर से लगभग 40 किमी दूर है, और मार्च 2023 में मुर्दहिया गाय की एक कच्ची खाल की क़ीमत 500 से लेकर 1200 रुपए थी, जो उसकी गुणवत्ता पर निर्भर करती है.

बाबू लाल बताते हैं कि जानवरों के आहार, स्वास्थ्य और अन्य दूसरी चीज़ों के कारण खाल की क़ीमत प्रभावित होती है. "राजस्थान से आने वाली मुर्दहिया पशु की खाल पर आमतौर पर कीकर [बबूल] के कांटों के निशान होते हैं और हरियाणा से आने वाली मुर्दहिया पशु की खाल पर चिचड़ी के निशान होते हैं. ये दोयम दर्जे का माल होता है."

साल 2022-23 में, लंपी त्वचा रोग के कारण 1.84 लाख से अधिक जानवरों की मौत हुई थी; जिसके कारण बाज़ार में खाल बहुतायत में उपलब्ध थी. लेकिन भारत भूषण के अनुसार, "हम उन्हें नहीं ख़रीद सकते थे, क्योंकि उन पर बड़े-बड़े निशान होते थे और क्रिकेट गेंद निर्माता उनका इस्तेमाल नहीं करते थे."

Hide of cattle infected with lumpy skin disease (left). In 2022-23, over 1.84 lakh cattle deaths were reported on account of this disease.
PHOTO • Shruti Sharma
But Bharat (right) says, 'We could not purchase them as [they had] big marks and cricket ball makers refused to use them'
PHOTO • Shruti Sharma

बाएं: लंपी त्वचा रोग से संक्रमित जानवरों की खाल. दाएं: साल 2022-23 में इस रोग के कारण 1.84 लाख से ज़्यादा जानवरों की मौत हुई. लेकिन भारत भूषण कहते हैं, 'हम उन्हें नहीं ख़रीद सकते थे, क्योंकि उन पर बड़े-बड़े निशान होते थे और क्रिकेट गेंद निर्माता उनका इस्तेमाल नहीं करते थे'

चमड़ा उद्योग के श्रमिकों का कहना है कि मार्च 2017 में राज्य सरकार द्वारा अवैध बूचड़खानों को बंद करने के आदेश से उन पर उसका काफ़ी ज्यादा असर पड़ा था. इस आदेश के बाद, केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत बूचड़खानों के लिए जानवरों की पशु बाज़ार में ख़रीद और बिक्री पर रोक लगा दिया गया था. भारत भूषण बताते हैं कि उसके परिणामस्वरूप, "आज बाज़ार पहले की तुलना में आधा हो गया है. कभी-कभार यह रविवार को भी बंद रहता है."

गौरक्षकों के कारण लोग जानवरों और उनकी खालों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने से डरते हैं. बाबू लाल कहते हैं, "यहां तक कि आजकल बिल पर खाल लाने वाले [पंजीकृत अंतर्राज्यीय ट्रांसपोर्टर] भी कच्चा माल ले जाने से डरते हैं. माहौल ही ऐसा बन गया है." पिछले 50 सालों में, मेरठ और जालंधर की सबसे बड़ी क्रिकेट कंपनियों के मुख्य आपूर्तिकर्ता होने के बावजूद उनकी ज़िंदगियां और रोज़गार ख़तरे में है. वह कहते हैं, "मुसीबत के समय कोई हमारा साथ नहीं देता. हमें अकेले ही संभालना पड़ता है."

साल 2019 में, गौरक्षकों द्वारा किए जा रहे हमलों को लेकर ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट 'वायलेंट काऊ प्रोटेक्शन इन इंडिया' के अनुसार, मई 2015 और दिसंबर 2018 के बीच 12 राज्यों में कम से कम 44 लोगों (जिसमें से 36 लोग मुस्लिम समुदाय के थे) की हत्या कर दी गई. उसी दौरान, 20 राज्यों में 100 अलग-अलग घटनाओं में 280 लोग घायल हुए."

बाबू लाल कहते हैं, "हमारा तो काम बिलकुल पक्का [क़ानूनी और रसीद आधारित] है. फिर भी दिक़्क़त है इनको.”

Left : Buffalo hides drying in the sun at the government tanning facility in Dungar village near Meerut.
PHOTO • Shruti Sharma
Right: Bharat near the water pits. He says, 'the government constructed amenities for all stages of tanning here'
PHOTO • Shruti Sharma

बाएं: मेरठ के पास डूंगर गांव में एक सरकारी चर्मशोधन केंद्र में भैंस की खालें धूप में सुखाई जा रही हैं. दाएं: पानी की हौदी के पास भारत भूषण खड़े हैं. उनका कहना है, ‘सरकार ने यहां चमड़ा तैयार करने के लिए ज़रूरी सभी सुविधाएं दी हैं’

जनवरी 2020 में, शोभापुर में चमड़े बनाने वालों के सामने एक और मुसीबत आन पड़ी. उनके ख़िलाफ़ प्रदूषण को लेकर एक पीआईएल दाख़िल कर दिया गया था. भारत भूषण बताते हैं, "उन्होंने एक और शर्त भी रखी है कि हाईवे से चमड़े का काम दिखाई नहीं देना चाहिए." उन्होंने यह भी बताया कि स्थानीय पुलिस ने सभी चमड़ा केंद्रों को बंद करने का नोटिस थमाया है, जबकि पीआईएल में लिखा था कि सरकारी सहायता से इन केंद्रों को दूसरी जगह पर स्थानांतरित किया जाएगा.

बाबू लाल कहते हैं, "सरकार हमें व्यवस्था बनाकर दे, अगर दिक़्क़त है तो. जैसे डूंगर में बनाई है 2003-04 में."

भारत भूषण का कहना, "हमारी चिंता की बात ये है कि नगर निगम ने नालियां बनाने का काम पूरा नहीं किया है." यह इलाक़ा 30 सालों से नगर निगम के अधीन है. "मानसून के दौरान उन रिहायशी जगहों पर पानी जमा हो जाता है, जिन्हें समतल नहीं किया गया है."

*****

क्रिकेट की गेंद बनाने में इस्तेमाल होने वाली सैकड़ों सफ़ेद खालों की आपूर्ति शोभापुर के 8 चमड़ा केंद्रों से की जाती है. चमड़ा श्रमिक धूल, मिट्टी, गंदगी हटाने के लिए सबसे पहले इन खालों को साफ़ करते हैं और हर एक खाल से चमड़ा बनाने पर उन्हें इसके 300 रुपए मिलते हैं.

बाबू लाल बताते हैं, "खाल को पानी से अच्छे से साफ़ करने के बाद हम गुणवत्ता, ख़ासकर मोटाई के हिसाब से उन्हें छांट लेते हैं." मोटी खालों को फिटकरी से टैन करने में 15 दिन लगते हैं. पतली खालों को बबूल के कस्से से टैन किया जाता है और इसमें 24 दिन लगते हैं. "ढेर सारी खालों को एक साथ टैन किया जाता है, इसलिए हर रोज़ चमड़े के गट्ठर तैयार होते हैं."

Left: A leather-worker washes and removes dirt, dust and soil from the raw hide. Once clean and rehydrated, hides are soaked in a water pit with lime and sodium sulphide. 'The hides have to be vertically rotated, swirled, taken out and put back into the pit so that the mixture gets equally applied to all parts,' Bharat explains.
PHOTO • Shruti Sharma
Right: Tarachand, a craftsperson, pulls out a soaked hide for fleshing
PHOTO • Shruti Sharma

बाएं: एक चमड़ा श्रमिक धूल, मिट्टी, गंदगी हटाने के लिए कच्ची खाल की धुलाई कर रहा है. एक बार साफ़ हो जाने के बाद इन खालों को चूने और सोडियम सल्फ़ाइड के घोल से भरे पानी की हौदी में डुबोया जाता है. भारत भूषण बताते हैं कि 'इन खालों को ऊपर की ओर से घुमाया जाता है और बाहर निकाल कर दोबारा हौदी में डाला जाता है, ताकि घोल सारे हिस्सों में मिल जाए.' दाएं: ताराचंद एक कारीगर हैं, जो भीगी खालों को फ्लेशिंग (बचे-खुचे मांस हटाना) के लिए निकालते हैं

Left: A rafa (iron knife) is used to remove the flesh. This process is called chillai
PHOTO • Shruti Sharma
Right: A craftsperson does the sutaai (scraping) on a puttha with a khaprail ka tikka (brick tile). After this the hides will be soaked in water pits with phitkari (alum) and salt
PHOTO • Shruti Sharma

बाएं: एक लोहे के चाकू (राफा) से मांस को हटाया जाता है. इस प्रक्रिया को छिलाई कहते हैं. दाएं: एक कारीगर पुट्ठे पर खपरैल के टिक्के से सुताई कर रहा है. इसके बाद इन खालों को फिटकरी, नमक और पानी के घोल में डुबोया जाएगा

खालों को चूने, सोडियम सल्फ़ाइड और पानी के घोल में तीन दिन के लिए डुबोया जाता है और फिर हर एक खाल को समतल ज़मीन पर बिछा दिया जाता है. इसके बाद, लोहे के एक भोथरे औज़ार से उसमें से बाल निकाले जाते हैं, जिसे सुताई कहते हैं. भारत भूषण बताते हैं, "खाल फूलने के बाद रोएं आराम से निकल जाते हैं." खाल को मोटा करने के लिए उन्हें फिर से भिगोया जाता है.

बाबूलाल के मुख्य कारीगर 44 वर्षीय ताराचंद हैं, जो राफा या चाकू के इस्तेमाल से खाल के भीतरी हिस्से से बचे-खुचे मांस को अलग करते हैं. फिर इन खालों को तीन दिन के लिए सादे पानी में भिगोया जाता है, ताकि उनमें से चूने को पूरी तरह हटाया जा सके. और उसके बाद उन्हें रात भर के लिए पानी और हाइड्रोजन पैराऑक्साइड के घोल में डुबोया जाता है. बाबू लाल कहते हैं कि खाल को साफ़ (कीटाणुरहित) करने और इसकी सफ़ेदी करने के लिए ऐसा किया जाता है. "एक-एक करके सारी गंध-गंदगी निकाली जाती है."

भारत भूषण कहते हैं, "गेंद बनाने वालों के पास जो उत्पाद पहुंचता है वह बहुत साफ़ होता है."

साफ़ की गई एक खाल (सफ़ेद का पुट्ठा) 1,700 रुपए में क्रिकेट बॉल निर्माताओं को बेची जाती है. खाल के निचले हिस्से की ओर इशारा करते हुए भारत भूषण कहते हैं, "सबसे अच्छी गुणवत्ता वाली 18-24 गेंदें खाल के इस हिस्से से बनाई जाती हैं, क्योंकि यह सबसे मज़बूत हिस्सा होता है. इन गेंदों को विलायती गेंद कहा जाता है और इनमें से हर एक गेंद [खुदरा बाज़ार में] 2,500 रुपए में बिकती हैं."

Left : Raw hide piled up at the Shobhapur Tanners Cooperative Society Limited
PHOTO • Shruti Sharma
Right: 'These have been soaked in water pits with boric acid, phitkari [alum] and salt. Then a karigar [craftsperson] has gone into the soaking pit and stomped the putthas with his feet,' says Babu Lal
PHOTO • Shruti Sharma

बाएं: शोभापुर टैनर्स कोऑपरेटिव सोसायटी में कच्ची खालों का गट्ठर पड़ा हुआ है. दाएं: बाबू लाल कहते हैं, 'इन्हें बोरिक एसिड, फिटकरी, नमक और पानी के घोल में भिगोया गया है. फिर एक कारीगर हौदी के पास जाकर अपने पैरों से पुठ्ठों की मलाई (कुचलना) करता है'

Left: Bharat in the Cooperative Society's tanning room.
PHOTO • Shruti Sharma
Right: 'Raw hide is made into a bag and bark liquor is poured into it to seep through the hair grains for vegetable-tanning. Bharat adds , 'only poorer quality cricket balls, less water-resistant and with a hard outer cover are made from this process'
PHOTO • Shruti Sharma

फ़ोटो: बाएं: भारत भूषण कोऑपरेटिव सोसायटी के टैनिंग रूम में खड़े हैं. दाएं: इन कच्ची खालों का एक बैग बनाया जाता है और इसमें बबूल के कस्से का घोल डाला जाता है, ताकि ये रोएं से होकर गुज़रें. भारत भूषण बताते हैं, 'इनसे ख़राब गुणवत्ता की गेंदें बनती हैं, जो पानी को सोख लेती हैं, और इनका शेप [आकार] जल्दी बिगड़ जाता है'

बाबू लाल कहते हैं, "खाल के दूसरे हिस्से काफ़ी पतले और उतने मज़बूत नहीं होते, इसलिए इनसे बनी हुई गेंदें सस्ती होती हैं और उन्हें बेहद कम ओवरों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और उनका आकार जल्दी बिगड़ जाता है.” भारत भूषण तेज़ी से हिसाब लगाते हुए कहते हैं, "एक पुठ्ठे से अलग-अलग गुणवत्ता की कुल 100 गेंदें बनाई जाती हैं. अगर एक गेंद 150 रुपए में भी बेची जाती हो, तो गेंद निर्माता हर पुठ्ठे से कम से कम 15,000 रुपए कमाता है."

भारत भूषण, बाबू लाल की ओर देखकर कहते हैं, "लेकिन हमें क्या मिलता है? उन्हें हर एक चमड़े के 150 रुपए मिलते हैं. हम अपने कारीगर की हफ़्ते की मजूरी और कच्चे माल पर क़रीब 700 रुपए ख़र्च करते हैं. जिस चमड़े से क्रिकेट की गेंदें बनाई जाती हैं वो हम अपने हाथों और पैरों से बनाते हैं. आपको पता है कि गेंदों पर बड़ी कंपनियों के नाम के अलावा और क्या लिखा होता है?  'एलम टैन्ड हाइड'. मुझे नहीं लगता कि खिलाड़ियों को इसका मतलब भी पता होगा.

*****

"आपको लगता है कि प्रदूषण, गंध और हाईवे से दिखाई देना इस उद्योग की वास्तविक समस्याएं हैं?"

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने के खेतों के पीछे सूरज डूबता हुआ दिख रहा है. चमड़ा श्रमिक कार्यस्थल पर जल्दी से नहाते हैं, और घर जाने से पहले अपने कपड़े बदलते हैं.

The smell of raw hide and chemicals hangs over the tannery
PHOTO • Shruti Sharma
Workers take a quick bath and change out of their work clothes (left) before heading home
PHOTO • Shruti Sharma

चमड़ा केंद्रों की हवा में कच्ची खालों और रसायनों की तेज़ गंध तैरती रहती है. घर जाने से पहले सभी कर्मचारी जल्दी से नहाकर अपने कपड़े (बाएं) बदलते हैं

भारत भूषण कहते हैं, "मैं अपने चमड़े पर बेटे के नाम पर 'एबी' चिह्न खुदवाता हूं. मैं उसे चमड़े के काम में नहीं लगाऊंगा. अगली पीढ़ी पढ़-लिख रही है. वे लोग आगे बढ़ेंगे और चमड़े का काम बंद हो जाएगा."

हाईवे की ओर जाते-जाते भारत भूषण कहने लगते हैं, "जैसे कोई क्रिकेट का दीवाना होता है, उस तरह हमें चमड़े के काम का शौक़ नहीं हैं. इस काम से हमारा रोज़गार जुड़ा हुआ है; हमारे पास कोई और चारा भी नहीं है, इसलिए हम ये काम करते हैं."

इस स्टोरी की रिपोर्टर, प्रवीण कुमार और भारत भूषण को अपना बहुमूल्य समय देने और इस कहानी को रिपोर्ट करने में हर स्तर पर मदद करने के लिए धन्यवाद ज्ञापित करती हैं. यह रिपोर्ट मृणालिनी मुखर्जी फाउंडेशन (एमएमएफ) की फेलोशिप की मदद से लिखी गई है. यह स्टोरी मृणालिनी मुखर्जी फ़ाउंडेशन (एमएमएफ़) से मिली फ़ेलोशिप के तहत लिखी गई है.

अनुवाद: प्रतिमा

Shruti Sharma

Shruti Sharma is a MMF-PARI fellow (2022-23). She is working towards a PhD on the social history of sports goods manufacturing in India, at the Centre for Studies in Social Sciences, Calcutta.

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Editor : Riya Behl

Riya Behl is a multimedia journalist writing on gender and education. A former Senior Assistant Editor at People’s Archive of Rural India (PARI), Riya also worked closely with students and educators to bring PARI into the classroom.

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Photo Editor : Binaifer Bharucha

Binaifer Bharucha is a freelance photographer based in Mumbai, and Photo Editor at the People's Archive of Rural India.

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