येड़िल अन्ना से जुड़ी यादें मुझे कस कर थाम लेती हैं और किसी जादुई शक्ति की तरह एक मौज के साथ बहा ले जाती हैं. ये मुझे गुनगुनाती छायाओं से भरे रंगीन जंगलों के पार ले जाती हैं, झूमते ऊंचे पेड़ों के बीच, जिप्सी (खानाबदोश समुदाय) राजाओं की कहानियों में, और किसी पहाड़ की चोटी पर ला खड़ा करती हैं. उस जगह से पूरी दुनिया एक ख़्वाब सी नज़र आती है. फिर अचानक, अन्ना मुझे रात की ठंडी हवा में सितारों के बीच फेंक देते हैं. वह मुझे ज़मीन की ओर तब तक ढकेलते हैं, जब तक कि मैं मिट्टी न बन जाऊं.

वह मिट्टी के बने थे. उनका जीवन ऐसा ही था. वह कभी एक मसखरे का रूप धर लेते थे, तो अगले पल एक शिक्षक, एक बच्चा, और एक अभिनेता बन जाते थे; मिट्टी की तरह किसी भी आकार में ढल जाते थे. येड़िल अन्ना ने मुझे उसी मिट्टी से बनाया है.

मैं राजाओं की उन कहानियों को सुनते हुए बड़ा हुआ हूं जो वह बच्चों को सुनाते थे. लेकिन, अब मुझे उनकी कहानी सुनानी होगी; उस शख़्सियत की कहानी, जो एक परछाई की तरह उनके और उनकी तस्वीरों के नेपथ्य में है. वह कहानी जो पिछले पांच साल से ज़्यादा वक़्त से मेरे भीतर ज़िंदा है.

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आर. येड़िलारसन मसखरों के सरदार हैं, इधर-उधर कूदता एक चूहा, घुड़की देता एक रंगीन पक्षी, एक शरीफ़ भेड़िया, एक इठलाकर चलता शेर हैं. उनका होना उस दिन की कहानी पर निर्भर करता है. कहानियां, जिन्हें वह तमिलनाडु के जंगलों और शहरों की यात्रा के दौरान, 30 से अधिक वर्षों से अपनी पीठ पर एक बड़े हरे बैग में ढो रहे हैं.

साल 2018 की बात है. हम नागपट्टिनम के एक सरकारी स्कूल के परिसर में हैं. गाजा चक्रवात के कारण उखड़े पेड़ों से काटे गए लट्ठों के ढेर स्कूल परिसर में चारों ओर फैले हुए हैं, जिसके चलते वह किसी उजड़े हुए लकड़ी के कारखाने सा लग रहा है. लेकिन, तमिलनाडु में चक्रवात से सबसे बुरी तरह प्रभावित हुए इस ज़िले का यह उजाड़ और पस्त नज़र आता परिसर, बच्चों की हंसी और उत्साह से एक बार फिर से धीरे-धीरे जीवंत हो रहा है.

“वंदाणे देन्न पारंग कट्टियक्कारण आमा कट्टियकारण. वारणे देन्न पारंग [देखो, मसखरा आया है, मसखरा आ रहा है, देखो].”

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एज़िल अन्ना, नाटक के लिए तैयार करने से पहले बच्चों के साथ बैठते हैं और उनसे उनकी रुचियों के बारे में पूछते हैं

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साल 2018 में आए चक्रवात गाजा के गुज़र जाने के बाद, नागपट्टिनम में उनके द्वारा आयोजित कला शिविर ने बच्चों के साथ-साथ उनकी हंसी से कक्षाओं को गुलज़ार कर दिया

सफ़ेद और पीले रंगों से रंगा चेहरा, तीन लाल गोले - एक नाक पर और दो गालों पर बने, सर पर आसमानी रंग की प्लास्टिक की कामचलाऊ जोकर वाली टोपी, होठों पर एक मज़ाकिया गीत के बोल थे और शरीर के अंगों में एक बेपरवाह लय - वह हंसी-ठहाके की एक चलती-फिरती दुकान लग रहे थे. हमेशा की तरह शोर-शराबा हो रहा था. येड़िल अन्ना के कला शिविर इसी तरह से शुरू होते हैं, चाहे वह जवादु की पहाड़ियों में स्थित एक छोटे से सरकारी स्कूल में आयोजित हो या चेन्नई के किसी निजी स्कूल में, सत्यमंगलम के जंगलों (ईरोड ज़िला) में आदिवासी बच्चों के लिए हो या शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे बच्चों के लिए. अन्ना ने एक गीत, एक छोटा-सा प्रसंग सुनाया है, जिससे बच्चे अपनी हिचक भूलकर दौड़ने लगते हैं, खेलते हैं, हंसते हैं, और साथ गाने लगते हैं.

अन्ना एक निपुण कलाकार हैं और उन्हें कभी स्कूलों में उपलब्ध सुविधाओं को लेकर चिंता नहीं होती. वह कोई मांग नहीं करते. न कोई अलग होटल या ठहरने की व्यवस्था चाहते हैं, और न ही कोई विशेष उपकरण मांगते हैं. वह बिजली, पानी या किसी आधुनिक कलात्मक सामग्री के बिना भी काम चला लेते हैं. उनका सारा ध्यान सिर्फ़ बच्चों से मिलने, बातचीत करने, और उनके साथ काम करने पर होता है. बाक़ी कुछ भी उनके लिए मायने नहीं रखता. आप बच्चों को उनके जीवन से अलग नहीं कर सकते. जब बात बच्चों की हो, तो वह आकर्षक और सक्रिय इंसान बन जाते हैं.

एक बार सत्यमंगलम के एक गांव में उन्होंने ऐसे बच्चों के साथ काम किया जिन्होंने पहले कभी रंग नहीं देखे थे. उन्होंने रंगों का पहली बार इस्तेमाल करके अपनी कल्पना से कुछ बनाने में उन बच्चों की मदद की. यह उन बच्चों के लिए एक नया अनुभव था. क़रीब 22 वर्ष पहले जब उन्होंने अपना कला विद्यालय कलिमन विरलगल [मिट्टी की उंगलियां] शुरू किया, तब से वह लगातार बच्चों को ऐसे अनुभवों से रूबरू करवाते रहे हैं. मैंने उन्हें कभी बीमार पड़ते नहीं देखा. बच्चों के साथ काम करना ही उनका इलाज है और उनके बीच प्रस्तुति के लिए वह हमेशा तैयार रहे.

अन्ना ने क़रीब 30 साल से पहले, साल 1992 में चेन्नई फाइन आर्ट्स कॉलेज से फाइन आर्ट्स विषय में स्नातक की डिग्री हासिल की थी. वह याद करते हुए कहते हैं, "कॉलेज के मेरे सीनियर, चित्रकार तिरु तमिलसेल्वन, कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर (वेशभूषाका) श्री प्रभाकरन, और चित्रकार श्री राजमोहन ने कॉलेज के दिनों में मेरी बहुत मदद की थी और मुझे मेरी डिग्री पूरी करने में भी सहायता की. टेराकोटा मूर्तिकला का कोर्स करने के बाद, कलात्मक कार्यों को और अच्छे से सीखने और उनमें प्रयोग के लिए मैं चेन्नई के ललित कला अकादमी के साथ जुड़ गया.” उन्होंने कुछ समय तक अपने मूर्तिकला स्टूडियो में भी काम किया.

वह कहते हैं, "लेकिन जब मेरा काम (कलाकृतियां) बिकने लगा, तो मुझे महसूस हुआ कि वह आम लोगों तक नहीं पहुंच रहा था. इसलिए, तब मैंने जनता के बीच कलात्मक गतिविधियां करनी शुरू कीं, और तय किया कि ग्रामीण इलाक़े, यानी तमिलनाडु के पांच प्रदेश [पहाड़, समुद्र तट, रेगिस्तान, जंगल, खेत] ही मेरी कर्मभूमि हैं, जहां मैं होना चाहता हूं. मैंने अपने बच्चों के साथ काम करना शुरू किया और मिट्टी व हस्तशिल्प कला के ज़रिए खिलौने बनाने लगा.” उन्होंने बच्चों को पेपर मास्क (काग़ज़ के मुखौटे), क्ले मास्क (मिट्टी के मुखौटे), क्ले मॉडल (मिट्टी की मूर्तियां और वास्तु), रेखाचित्र, पेंटिंग (चित्रकारी), ग्लास पेंटिंग (कांच पर चित्रकारी), ओरिगेमी (काग़ज़ को विभिन्न आकृतियों में कलात्मक ढंग से मोड़ने की कला) सिखाना शुरू किया.

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बाएं: सत्यमंगलम में, बच्चे पहली बार रंगों से परिचित हुए हैं. दाएं: कृष्णगिरी ज़िले में स्थित कावेरीपट्टिनम में, बच्चे गत्ते और अख़बार का उपयोग करके हिरणों के मुकुट बना रहे हैं

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बाएं: कावेरीपट्टिनम में एक कार्यशाला के अंतिम दिन परफ़ॉर्म किए जाने वाले नाटक के लिए, ख़ुद के द्वारा डिज़ाइन किए गए और बनाए गए मुकुट के साथ बच्चे. दाएं: पेरंबलुर में बच्चे ख़ुद के बनाए मिट्टी के मुखौटे दिखा रहे हैं; प्रत्येक मुखौटे में एक अलग भाव नज़र आ रहा है

जब भी हम यात्रा करते थे, और यात्रा के लिए परिवहन के जिस भी माध्यम का इस्तेमाल करते थे - चाहे वह बस हो, वैन हो या कुछ और, हमारे साथ बच्चों से जुड़ा सामान ही सबसे ज़्यादा होता था. येड़िल अन्ना का बड़ा सा हरा बैग ड्रॉइंग बोर्ड, पेंट ब्रश, रंग, फेविकोल ट्यूब, ब्राउन बोर्ड, ग्लास पेंट, पेपर, और बहुत सी अन्य चीज़ों से भरा रहता था. वह हमें चेन्नई के लगभग हर इलाक़े में ले जाते थे - एलिस रोड से लेकर पैरीस कॉर्नर तक, ट्रिप्लिकेन से लेकर एग्मोर तक - जहां भी कला-साहित्य की दुकानें थीं, वह हमें हर जगह ले जाते थे. और तब तक हमारे पैरों में दर्द होने लगता था. और हमारा बिल 6-7 हज़ार तक पहुंच जाता था.

अन्ना के पास कभी भी पर्याप्त पैसे नहीं थे. वह अपने दोस्तों, छोटी-छोटी नौकरियों, निजी स्कूलों में काम करके पैसे जुटाते थे, ताकि आदिवासी या अक्षमता के शिकार बच्चों के लिए मुफ़्त में कला शिविर लगा सकें. येड़िल अन्ना के साथ यात्रा करते हुए इन पांच वर्षों में, मैंने उन्हें कभी जीवन से निराश होते नहीं देखा. उन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं बचाया और न ही उनके पास बचाने के लिए कुछ बचा था. वह जो कुछ भी कमाते थे उन्हें मेरे जैसे सह-कलाकारों के बीच बांट देते थे.

कभी-कभी, अन्ना चीज़ों को ख़रीदने के बजाय नए मैटेरियल खोजते थे, ताकि बच्चों को वह सबकुछ सिखा सकें जिसे सिखाने में शिक्षा प्रणाली विफल रही है. वह उन्हें आस-पास की चीज़ों का इस्तेमाल करके, कलाकृतियां बनाने के लिए भी कहते थे. मिट्टी एक ऐसी चीज़ है जो आसानी से मिल जाती है, और वह अक्सर इसका इस्तेमाल करते थे. लेकिन, वह मिट्टी से गाद और पत्थरों को हटाने से लेकर, मिट्टी के ढेलों को तोड़ने और उन्हें घोलने, छानने, सुखाने जैसे काम ख़ुद ही करते थे. मिट्टी मुझे उनकी और उनके जीवन की याद दिलाती है. बच्चों के जीवन से गुथे और किसी भी आकार में ढल जाने वाले. उन्हें बच्चों को मुखौटे बनाना सिखाते हुए देखना एक रोमांचकारी अनुभव है. हर मुखौटे पर एक अलग भाव होता था, लेकिन हर बच्चे के चेहरे पर गहरे आनंद का एक जैसा भाव.

जब बच्चे मिट्टी को उठाते और उसे मुखौटे का आकार दे देते, तो अन्ना ख़ुश हो जाते थे. येड़िल अन्ना उन्हें अपने जीवन से जुड़ी कोई कल्पना करने को कहते थे. वह बच्चों से उनकी रुचियों के बारे में पूछते रहते, और उनसे उसका अनुसरण करने के लिए कहते. कुछ बच्चे पानी की टंकियां बनाते थे, क्योंकि उनके घर में पानी का अभाव था या बिल्कुल पानी नहीं था. कुछ अन्य बच्चे हाथी बनाते थे. लेकिन, जंगल के इलाक़ों में रहने वाले बच्चे सूंड ऊपर उठाए हुए हाथी बनाते थे, जोकि इस दृढ़त्वचीय जीव के साथ उनके सुंदर संबंधों को दर्शाता है.

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मिट्टी हमेशा मुझे येड़िल अन्ना और बच्चों के साथ गुज़रे उनके जीवन की याद दिलाती है. वह ख़ुद मिट्टी की तरह हैं,  किसी भी आकार में ढल जाने वाले. उन्हें बच्चों को मुखौटे बनाना सिखाते हुए देखना एक रोमांचकारी अनुभव है, जैसे कि यहां नागपट्टिनम के एक स्कूल में वह बच्चों को सिखा रहे हैं

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वह बच्चों को ख़ुद के द्वारा बनाई कलाकृतियों में अपनी आस-पास की दुनिया की छवियों और उससे जुड़ी कल्पनाओं को शामिल  के लिए प्रेरित करते हैं; सत्यमंगलम की एक आदिवासी बस्ती के इस बच्चे की तरह, जिसने मिट्टी से सूंड ऊपर उठाया हुआ हाथी बनाया है, क्योंकि उसने हाथी को इस तरह देखा है

वह कला शिविरों में उपयोग की जाने वाली सामग्री पर सावधानीपूर्वक विचार करते थे. कला में उत्कृष्टता हासिल करने की उनकी चाह, बच्चों को सही सामग्री देने को लेकर उनकी सतत चिंता ने उन्हें हमारा हीरो बना दिया. शिविर की हर रात, येड़िल अन्ना और अन्य लोग मिलकर अगले दिन के लिए सामग्री तैयार करते रहते थे. वह शिविर से पहले आंखों पर पट्टी बांधकर अभ्यास करते, ताकि दृष्टिबाधित बच्चों के साथ संवाद करने का तरीक़ा सीख सकें. बधिर बच्चों को प्रशिक्षण देने से पहले, वह अपने कान बंद करके अभ्यास करते थे. जिस तरह से वह अपने छात्रों के अनुभवों को समझने की कोशिश करते थे उसने मुझे अपनी तस्वीरों के किरदारों के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित किया. इससे पहले कि मैं किसी की तस्वीर खींचू, उनसे जुड़ना मेरे लिए ज़रूरी था.

येड़िल अन्ना को गुब्बारों का जादू समझ में आ गया था. गुब्बारों के साथ खेले जाने वाले खेलों ने उन्हें हमेशा छोटी उम्र के लड़के-लड़कियों के साथ जुड़ने में मदद की. अपने बैग में वह ढेर सारे गुब्बारे रखते थे - गोल फुलने वाले बड़े गुब्बारे, सांप जैसे लंबे गुब्बारे, घुमावदार, सीटी बजाने वाले, पानी से भरे. गुब्बारों ने बच्चों में उत्साह पैदा करने में काफ़ी मदद की. और वह गीत तो गाते ही थे.

अन्ना कहते हैं, "अपने काम के दौरान, मैंने यह भी महसूस किया है कि बच्चों को गानों और खेलों की लगातार ज़रूरत पड़ती है. मैं ऐसे गाने और खेल तैयार करता हूं जिनमें सामाजिक संदेश भी होते हैं. मैं उन्हें साथ गाने को कहता हूं.” अन्ना शिविर में माहौल जमा देते थे. आदिवासी गांवों के बच्चे, शिविर के बाद उन्हें बहुत मुश्किल से जाने देते थे. वे उन्हें गाने के लिए कहते थे. और अन्ना बिना रुके गाते रहते. आस-पास बच्चे थे, इसलिए वह गाते रहते थे.

जिस तरह से वह अपने छात्रों के अनुभवों को समझने के लिए उनसे संवाद की कोशिश करते थे उसने मुझे अपनी तस्वीरों के किरदारों के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित किया. शुरुआत में, जब फ़ोटोग्राफ़ी के बारे में मुझे कुछ ख़ास समझ नहीं थी, मैंने येड़िल अन्ना को अपनी तस्वीरें दिखाईं. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपनी तस्वीरें उन लोगों को दिखाऊं जो तस्वीरों में क़ैद थे. उन्होंने कहा, "वे [लोग] आपको अपने हुनर को मांजने में मदद करेंगे."

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बच्चे अक्सर नहीं चाहते कि येड़िल अन्ना शिविर के बाद वहां से जाएं. 'बच्चों को गानों और खेलों की लगातार ज़रूरत पड़ती है. मैं उन्हें साथ गाने को कहता हूं'

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सेलम में, सुनने और बोलने में अक्षम बच्चों के एक स्कूल में गुब्बारे का खेल जारी है

शिविरों में बच्चों ने हमेशा अपनी रचनात्मकता दिखाई. उनकी बनाई पेंटिंग, ओरिगेमी, और मिट्टी की गुड़िया की प्रदर्शनी लगती थी. बच्चे अपने माता-पिता और भाई-बहनों को लाते थे और गर्व के साथ अपनी प्रतिभा दिखाते थे. येड़िल अन्ना ने उनके लिए शिविर को एक उत्सव में बदल दिया. उन्होंने लोगों को ख़्वाब देखना सिखाया. मेरी पहली फ़ोटोग्राफ़ी प्रदर्शनी एक ऐसा ही सपना था जिसे उन्होंने पाला-पोसा. उनके शिविरों से ही मुझे अपनी फ़ोटोग्राफी प्रदर्शनी आयोजित करने की प्रेरणा मिली. लेकिन मेरे पास इसके लिए पैसे नहीं थे.

अन्ना हमेशा मुझे सलाह देते थे कि जब भी मेरे पास कुछ पैसे आएं, मैं अपनी तस्वीरों को प्रिंट करा लिया करूं. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं भविष्य में काफ़ी आगे जाऊंगा. वह लोगों को मेरे बारे में बताते थे. वह उन्हें मेरे काम के बारे में बताते थे. मुझे लगता है कि इसके बाद ही मेरे लिए चीज़ें बेहतर होने लगीं. येड़िल अन्ना के समूह की थिएटर कलाकार और कार्यकर्ता करुणा प्रसाद ने मुझे प्रदर्शनी करने के लिए शुरुआती 10,000 रुपए दिए. मैं पहली बार अपनी तस्वीरें प्रिंट करा पाया. अन्ना ने मुझे अपनी तस्वीरों के लिए, लकड़ी के फ्रेम बनाना सिखाया. उन्होंने मेरी प्रदर्शनी के लिए एक योजना बनाई थी, जिसके बिना मेरी पहली प्रदर्शनी नहीं हो पाती.

बाद में, मेरी तस्वीरें रंजीत अन्ना [पा रंजीत] और उनके नीलम कल्चरल सेंटर तक पहुंचीं. इसके साथ ही, ये दुनिया भर की कई अन्य जगहों तक भी जा पहुंचीं, लेकिन जिस स्थान पर इसका विचार सबसे पहले अंकुरित हुआ था वह येड़िल अन्ना का शिविर ही था. जब मैंने पहली बार उनके साथ यात्रा करना शुरू किया था, तो मुझे बहुत सी चीज़ों के बारे में पता नहीं था. इन यात्राओं के दौरान ही मैंने बहुत कुछ सीखा. लेकिन, अन्ना ने बहुत कुछ जानने वालों और तुलनात्मक रूप से बहुत कम जानने वालों के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया. वह हमें लोगों को साथ लाने के लिए प्रोत्साहित करते थे, भले ही वे किसी से कम प्रतिभाशाली क्यों न हों. वह कहते थे, "हम उन्हें नई चीज़ों से परिचित कराएंगे, उनके साथ यात्रा करेंगे." वह कभी किसी व्यक्ति की कमियां नहीं देखते थे. और इस तरह उन्होंने कई कलाकार तैयार किए.

उन्होंने बहुत से बच्चों को भी कलाकार और अभिनेता बना दिया. अन्ना कहते हैं, "हम बधिर बच्चों को कला के रूपों को महसूस करना सिखाते हैं - हम उन्हें पेंट करना, मिट्टी से जीवंत चीज़ें बनाना सिखाते हैं. नेत्रहीन बच्चों को हम संगीत और नाटक करना सिखाते हैं. हम उन्हें मिट्टी से तीन आयामी वाली मूर्तियां बनाना भी सिखाते हैं. इससे, नेत्रहीन बच्चों को कला को समझने में मदद मिलती है. हम पाते हैं कि जब बच्चे इस तरह के कला रूपों को सीखते हैं, और उन्हें समाज को समझने की प्रक्रिया के एक भाग के तौर पर सीखते हैं, तो वे भी आज़ाद व आत्मनिर्भर महसूस करते हैं.”

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तंजावुर में नेत्रहीन बच्चों के एक स्कूल के बच्चे, येड़िल अन्ना के शिविर में आनंद ले रहे हैं. वह शिविर से पहले आंखों पर पट्टी बांधकर अभ्यास करते हैं, ताकि दृष्टिबाधित बच्चों के साथ संवाद करने का तरीक़ा सीख सकें. बधिर बच्चों को प्रशिक्षण देने से पहले भी वह अपने कान बंद करके अभ्यास करते हैं

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कावेरीपट्टिनम में ओयिल अट्टम नामक लोक नृत्य का अभ्यास करते बच्चे. येड़िल अन्ना ने बच्चों को कई लोक कलाओं से परिचित कराया है

बच्चों के साथ काम करते हुए उन्होंने महसूस किया कि "गांवों के बच्चे - विशेषकर लड़कियां - स्कूल में भी बहुत शर्माते थे. वे शिक्षक के सामने कोई सवाल या अपनी दुविधाएं नहीं पूछ पाते. अन्ना बताते हैं, “मैंने उन्हें थिएटर के माध्यम से वाक्पटुता सिखाने का फ़ैसला किया. और ऐसा करने के लिए, मैंने थिएटर एक्टिविस्ट करुणा प्रसाद से थिएटर की क्लास ली. कलाकार पुरुषोत्तमन के मार्गदर्शन के साथ, हमने बच्चों को थिएटर में प्रशिक्षण देना शुरू किया. ”

वह अपने बच्चों को प्रशिक्षित करने के लिए, दूसरे देशों के कलाकारों से सीखे विभिन्न कला रूपों को बच्चों के अनुसार ढालने की कोशिश करते हैं. वह बच्चों को अपने आस-पास की दुनिया के प्रति संवेदनशील बनाने की कोशिश करते हैं. येड़िल अन्ना बताते हैं, "हम अपने शिविरों में पर्यावरण संबंधी फ़िल्में दिखाते हैं. हम उन्हें जीवों के विभिन्न रूपों को समझने की कला सिखाते हैं - चाहे वह कितना भी छोटा जीव हो, पक्षी हो या कीट. वे अपने आस-पड़ोस में लगे पौधों की पहचान करना सीखते हैं, उनके महत्व को समझते हैं, साथ ही साथ पृथ्वी का सम्मान और संरक्षण करना सीखते हैं. मैं ऐसे नाटक तैयार करता हूं जो पारिस्थितिकी के महत्व पर ज़ोर देते हैं. इस तरह, बच्चे हमारे पौधों और जीवों के इतिहास के बारे में जान पाते हैं. उदाहरण के लिए, संगम साहित्य में 99 फूलों का उल्लेख है. हम बच्चों को उनका स्केच बनाने, और जब वे हमारे प्राचीन संगीत वाद्ययंत्र बजाते हैं, तो उनके बारे में गाने के लिए कहते हैं.” वह नाटकों के लिए नए गाने बनाते थे. वह कीड़ों और जानवरों के बारे में क़िस्से गढ़ते हैं.

येड़िल अन्ना ने ज़्यादातर आदिवासी और तटीय इलाक़ों पर स्थित गांवों के बच्चों के साथ काम किया, लेकिन जब उन्होंने शहरी क्षेत्रों के बच्चों के साथ काम किया, तो उन्हें मालूम चला कि शहरी बच्चों में लोक कलाओं और आजीविकाओं से जुड़े ज्ञान का अभाव है. फिर उन्होंने शहरी शिविरों में लोक कलाओं की तकनीकों की जानकारी को शामिल करना शुरू कर किया; जैसे पराई में ढोल का उपयोग किया जाता है, सिलम्बु में प्रदर्शन के दौरान पायल जैसे आभूषण का उपयोग किया जाता है, और पुली में बाघ के मुखौटे का इस्तेमाल किया जाता है. येड़िल अन्ना कहते हैं, "मैं इन कला रूपों को बच्चों तक पहुंचाने और उन्हें संरक्षित करने में विश्वास रखता हूं. मेरा मानना ​​​​है कि इन कला रूपों में हमारे बच्चों को ख़ुश और उन्मुक्त रखने की क्षमता है.”

पांच से छह दिनों तक चलने वाले इन शिविरों के लिए टीम में हमेशा एक से ज़्यादा कलाकार होते थे. एक समय था, जब हमारे समूह में गायक तमिलारसन, पेंटर राकेश कुमार, मूर्तिकार येड़िल अन्ना, और लोक कलाकार वेलमुरुगन और आनंद शामिल थे. अन्ना धीरे से नेपथ्य में चलने वाली मेरी गतिविधियों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, "और हां, हमारी टीम में फ़ोटोग्राफ़र भी हैं, जो हमारे बच्चों को तस्वीरों के ज़रिए अपने जीवन को दर्ज करना सिखाते हैं."

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तिरुचेंगोडु में शिविर के आख़िरी दिन, 'परफ़ॉर्मेंस' के मौक़े पर पराई अट्टम के तौर पर बनाए गए फ़्रेम ड्रम बजाते बच्चे

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तंजावुर में, आंशिक रूप से देख पाने में सक्षम युवतियां तस्वीरें खींच रही हैं

उन्हें ख़ूबसूरत लम्हों को रचना बख़ूबी आता है. ऐसे पल जिनमें  बच्चे और बूढ़े मुस्कुराते हैं. उन्होंने मुझे ख़ुद के माता-पिता के साथ ऐसे पलों को फिर से जीने में मदद की. इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा करने के बाद, जब मैं बिना कामकाज के भटक रहा था, और मेरा फ़ोटोग्राफ़ी की ओर रुझान शुरू हुआ, तो येड़िल अन्ना ने मुझे अपने माता-पिता के साथ समय बिताने को भी कहा. उन्होंने अपनी मां के साथ अपने संबंधों के बारे में कहानियां साझा कीं; कैसे पिता की मृत्यु के बाद उनकी मां ने अकेले ही उन्हें और उनकी चार बहनों को पाला था. उनकी मां के संघर्षों से जुड़ी बातचीत के ज़रिए, येड़िल अन्ना ने मुझे इस बारे में सोचने पर मजबूर किया कि मेरे अपने माता-पिता ने मेरे पालन-पोषण में कितना संघर्ष किया होगा. इसके बाद ही मैं अपनी मां के मोल को समझ पाया, उनकी तस्वीरें खींचीं, उनके बारे में लिखा .

जब मैंने येड़िल अन्ना के साथ यात्राएं शुरू कीं, तो मैं नाटक का मंचन से जुड़ी बारीकियां सीखने लगा, स्केच बनाना और पेंट करना, रंग बनाना सीखने लगा. इसके साथ ही, मैंने बच्चों को फ़ोटोग्राफी सिखाना शुरू कर दिया. इस प्रक्रिया ने बच्चों और मेरे बीच की एक दुनिया खोल दी. मैंने उनकी कहानियां सुनीं, उनके जीवन को तस्वीरों में उतारना शुरू किया. जब मैंने उनके साथ बातचीत करने के बाद, उनके साथ खेलने के बाद, उनके साथ नाचने और गाने के दौरान तस्वीरें लेनी शुरू की, तो यह एक तरह के उत्सव जैसा बन गया. मैं उनके साथ उनके घर गया, उनके साथ खाना खाया, उनके माता-पिता से बात की. मुझे अहसास हुआ कि जब मैं उनके साथ बातचीत करने, उनके साथ जीवन साझा करने और समय बिताने के बाद तस्वीरें खींचता हूं, तो जादू सा हो जाता है.

पिछले 22 वर्षों में, जबसे येड़िल अन्ना ने कलिमन विरलगल की शुरुआत की है, उनके संपर्क में जो कोई भी आया उन सबका जीवन उन्होंने जादू और प्रकाश से भर दिया है. वह कहते हैं, “हम आदिवासी बच्चों को अकादमिक मार्गदर्शन देते हैं. हम उन्हें शिक्षा का महत्व बताते हैं. हम बच्चियों को आत्मरक्षा भी सिखाते हैं. हमने देखा है कि जब बच्चे आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षित किए जाते हैं, तो उनमें आत्मविश्वास बढ़ता है.” उनका मानना है: अपने बच्चों पर विश्वास करना, उन्हें तर्कसंगत सोच से लैस करना, तथा विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को विकसित करना.

वह कहते हैं, "हम मानते हैं कि हर इंसान बराबर होता है, और हम उन्हें यही सिखाते हैं. उनकी ख़ुशी में ही मैं अपनी ख़ुशी ढूंढ लेता हूं."

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कोयंबटूर के एक स्कूल में येड़िल अन्ना एक नाटक 'आईना' का अभ्यास करवा रहे हैं, और पूरा कमरा बच्चों की मुस्कान से भर उठा है

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नागपट्टिनम में येड़िल अन्ना और उनकी टीम, पक्षियों पर आधारित एक नाटक प्रस्तुत कर रही है

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तिरुवन्नामलाई में मुखौटों, पोशाक, और रंगे हुए चेहरों के साथ, नाटक ‘लायन किंग’ करने के लिए तैयार खड़ी टीम

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सत्यमंगलम में बच्चों के साथ येड़िल अन्ना. आप बच्चों को उनके जीवन से अलग नहीं कर सकते. जब बात बच्चों की हो, तो वह आकर्षक और सक्रिय इंसान बन जाते हैं

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जवादु की पहाड़ियों में स्थित परिसर में, बच्चे ख़ुद के बनाए काग़ज़ी मुखौटों के साथ तस्वीर खिंचवा रहे हैं

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कांचीपुरम में, सुनने और बोलने में अक्षम बच्चों के एक स्कूल में आयोजित ओरिगेमी कार्यशाला के एक सत्र के दौरान, ख़ुद की बनाई गई काग़ज़ी तितलियों से घिरी एक बच्ची

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पेरम्बलुर में, मंच की सजावट के लिए बच्चे ख़ुद से पोस्टर बना रहे हैं. मंच को काग़ज़ों और कपड़ों से तैयार किया गया था

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जवादु में, अपने आसपास के पेड़ों की शाखाओं का उपयोग करके, येड़िल अन्ना और बच्चे एक पशु का ढांचा बना रहे हैं

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नागपट्टिनम में एक स्कूल के प्रांगण में बच्चों के साथ बैठे हुए

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कांचीपुरम में, बधिर बच्चों के एक स्कूल के छात्रावास के बच्चे, पुरानी सीडी से अलग-अलग वस्तुएं बना रहे हैं

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सेलम के एक स्कूल में अपनी कलाकृतियां प्रदर्शित करते बच्चे

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सत्यमंगलम के एक शिविर में बनाई गई कलाकृतियों की प्रदर्शनी में, बच्चों के साथ मिलकर ग्रामीणों का स्वागत करते येड़िल अन्ना

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कावेरीपट्टिनम में प्रदर्शनी वाले दिन, पोइ काल कुदुरई अट्टम नामक एक लोक नृत्य को लोगों के बीच शुरू करवाते येड़िल अन्ना. पोइ काल कुदुरई या नकली पैरों वाले घोड़े को गत्तों और कपड़ों से तैयार किया गया है

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कावेरीपट्टिनम में एक शिविर के आख़िरी दिन, येड़िल अन्ना की टीम और बच्चे ज़ोर से कहते हैं, 'पापरप्पा बाय बाय, बाय बाय पापरप्पा’

वीडियो देखें: आर. येड़िलारसन: नागपट्टिनम में बच्चों को नाचने और गाने के लिए उकसाते

लेखक, मूलतः तमिल में लिखे गए इस निबंध के अनुवाद पर काम करने के लिए कविता मुरलीधरन का धन्यवाद करते हैं; और स्टोरी में महत्वपूर्ण इनपुट देने के लिए अपर्णा कार्तिकेयन का शुक्रिया अदा करते हैं.

पुनश्च: यह निबंध प्रकाशन के लिए तैयार ही किया जा रहा था कि 23 जुलाई, 2022 को जांच में सामने आया कि आर. येड़िलारसन जिलियन बैरे सिन्ड्रोम से ग्रस्त हैं. यह एक गंभीर तंत्रिका संबंधी बीमारी है, जिसमें आपके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली आपकी नसों पर हमला करती है. यह बीमारी परिधीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करती है और मांसपेशियों की कमज़ोरी और पक्षाघात का कारण बन सकती है.

अनुवाद: अमित कुमार झा

M. Palani Kumar

M. Palani Kumar is Staff Photographer at People's Archive of Rural India. He is interested in documenting the lives of working-class women and marginalised people. Palani has received the Amplify grant in 2021, and Samyak Drishti and Photo South Asia Grant in 2020. He received the first Dayanita Singh-PARI Documentary Photography Award in 2022. Palani was also the cinematographer of ‘Kakoos' (Toilet), a Tamil-language documentary exposing the practice of manual scavenging in Tamil Nadu.

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Translator : Amit Kumar Jha

Amit Kumar Jha is a professional translator. He has done his graduation from Delhi University.

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