वह अपने बैग में एक रैपिड मलेरिया टेस्ट किट खोज रही हैं. बैग में दवाएं, सेलाइन की बोतलें, आयरन की टैबलेट्स, इन्जेक्शन्स, बी.पी. मशीन, और बहुत सारा सामान भरा हुआ है. जिस महिला के घरवाले उसे दो दिन से खोज रहे थे, वह बिस्तर पर पड़ी हुई है. उसका तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है. टेस्ट पॉज़िटिव आता है.

वह एक बार फिर अपने बैग में झांकती हैं. इस बार वह 500 एम.एल. डेक्सट्रोज इंट्रावेनस (आई.वी.) सॉल्यूशन खोज रही हैं. वह महिला के बिस्तर के पास पहुंचती हैं, बड़ी कुशलता से एक प्लास्टिक की रस्सी को छत पर लगे सरिए पर लपेटती है, और तेज़ी से उस पर आई.वी. बॉटल बांध देती है.

35 वर्षीय ज्योति प्रभा किस्पोट्टा पिछले 10 साल से झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले के गावों और आसपास के इलाक़ों में अपनी चिकित्सकीय सेवाएं दे रही हैं. उनके पास डॉक्टर की डिग्री नहीं है, वह कोई प्रशिक्षित नर्स भी नहीं हैं. वह किसी सरकारी अस्पताल या स्वास्थ्य सेवा केंद्र से भी नहीं जुड़ी हैं. लेकिन उरांव समुदाय की यह महिला पश्चिमी सिंहभूम के आदिवासी बहुल गांवों के लिए पहला सहारा हैं, और अक्सर आख़िरी उम्मीद भी. यह गांव ख़स्ता-हाल सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के हवाले है.

ज्योति एक आर.एम.पी. हैं. क्षेत्रीय सर्वेक्षण बताते हैं कि ग्रामीण इलाक़ों में 70 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं तमाम आर.एम.पी. द्वारा ही उपलब्ध कराई जा रही हैं. यहां आर.एम.पी. का मतलब 'रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर' नहीं, बल्कि 'रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर' है; आम बोलचाल में हम जिसे 'झोला छाप डॉक्टर' कहते हैं. ग्रामीण इलाक़ों में ये अयोग्य चिकित्सक समानांतर रूप से निजी स्वास्थ्य सेवाएं देते रहे हैं. अकादमिक जगत में इन्हें तिरस्कार से देखा जाता है और स्वास्थ्य सेवा पर केंद्रित सरकारी नीतियों में दुविधा के भाव से.

आर.एम.पी. अक्सर भारत में किसी भी मान्यता प्राप्त संस्था से पंजीकृत नहीं होते हैं. इनमें से कुछ होम्योपैथ या यूनानी डॉक्टर के बतौर रजिस्टर हो सकते हैं, लेकिन वे एलोपैथी दवाओं के ज़रिए भी मरीज़ों का इलाज करते हैं.

ज्योति के पास एलोपैथी दवाओं का एक आर.एम.पी सर्टिफ़िकेट है, जिसे 'काउंसिल ऑफ़ अनइम्प्लॉईड रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर्स' नाम की एक निजी संस्थान ने जारी किया है. सर्टिफ़िकेट दावा करता है कि यह संस्थान बिहार सरकार द्वारा पंजीकृत है. ज्योति ने 10,000 रुपए देकर वहां से 6 महीने का यह कोर्स किया था. इस संस्था का अब कोई अता-पता नहीं है.

Jyoti Prabha Kispotta administering dextrose saline to a woman with malaria in Borotika village of Pashchimi Singhbhum.
PHOTO • Jacinta Kerketta
Jyoti with a certificate of Family Welfare and Health Education Training Programme, awarded to her by the Council of Unemployed Rural Medical Practitioners
PHOTO • Jacinta Kerketta

बाएं: पश्चिमी सिंहभूम के बोरोतिका गांव में मलेरिया से पीड़ित महिला को डेक्सट्रोज सेलाइन चढ़ातीं ज्योति प्रभा किस्पोट्टा. दाएं: काउंसिल ऑफ़ अनइम्प्लॉईड रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर्स द्वारा हासिलपरिवार कल्याण और स्वास्थ्य शिक्षा प्रशिक्षण कार्यक्रम के प्रमाण-पत्र के साथ ज्योति

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मरीज़ के दोस्त को कुछ निर्देर्शों के साथ दवाएं सौंपने से पहले, ज्योति आई.वी. बॉटल के ख़ाली होने का इंतज़ार करती हैं. हम उनकी बाइक तक पहुंचने के लिए पैदल चलते हैं. सड़कों की ख़राब हालत के चलते उन्हें अपनी बाइक 20 मिनट की दूरी पर खड़ी करनी पड़ी थी.

पश्चिम सिंहभूम ज़िला खनिजों के मामले में समृद्ध है, लेकिन अस्पतालों, स्वच्छ पेयजल, शैक्षणिक संस्थानों, और रोज़गार जैसी बुनियादी सुविधाओं तक इसकी पहुंच नहीं है. यह ज्योति का गृह क्षेत्र है - जंगलों और पहाड़ों से घिरा हुआ. और यह इलाक़ा, राज्य-माओवादी संघर्ष क्षेत्र में भी आता है. यहां की सड़कें बुरी हालत में हैं; मोबाइल या इंटरनेट कनेक्टिविटी बहुत कम या न के बराबर है. इस वजह से उन्हें अक्सर पैदल चलकर ही दूसरे गांव तक जाना पड़ता है. आपात स्थिति में, गांव के लोग ज्योति को लाने के लिए साइकल से किसी व्यक्ति को भेजते हैं.

ज्योति, बोरोतिका गांव में मिट्टी से बने घर में रहती हैं. उनका घर एक पतली सी सड़क के किनारे है, जो आपको पश्चिम सिंहभूम ज़िले के गोइलकेरा ब्लॉक तक ले जाएगी. इस आदिवासी घर के बीच में एक कमरा है और चारों ओर बरामदा. बरामदे के एक हिस्से की मरम्मत करवाकर उसे रसोईघर बना दिया गया है. पूरे गांव में बिजली की आपूर्ति अनियमित रहती है और यह घर भी अंधेरे से घिरा हुआ है.

इस गांव के आदिवासी घरों में ज़्यादा खिड़कियां नहीं हैं. लोग अक्सर दिन के वक़्त भी घर के कोने में छोटी टॉर्च या लालटेन लगाकर रखते हैं. ज्योति यहां अपने पति, संदीप धनवार (38), मां, जुलियानी किस्पोट्टा (71), और अपने भाई के आठ साल के बेटे, जॉनसन किस्पोट्टा के साथ रहती हैं. ज्योति के पति संदीप भी उन्हीं की तरह एक आर.एम.पी. हैं.

एक साइकल सवार ज्योति को खोजता हुआ घर पहुंचता है. वह अपना खाना छोड़ती हैं और इस नए मामले को देखने के लिए अपना बैग उठाती हैं. अपनी बेटी को जाता देखकर मां जूलियानी, सादरी भाषा में ज़ोर से पुकारती है, "भात खाए के तो जाते.” ज्योति घर से बाहर निकलते हुए कहती हैं, "उन्हें मेरी इसी वक़्त ज़रूरत है. मुझे खाना कहीं भी मिल जाएगा, लेकिन मरीज़ ज़रूरी है." इस घर में यह दृश्य अक्सर ही देखने को मिलता है.

Jyoti’s mud house in Borotika village in Herta panchayat
PHOTO • Jacinta Kerketta
A villager from Rangamati village has come to fetch Jyoti to attend to a patient
PHOTO • Jacinta Kerketta

बाएं: हरता पंचायत के बोरोतिका गांव में ज्योति का मिट्टी से बना घर. दाएं: रंगामटी गांव का एक ग्रामीण किसी मरीज़ के इलाज के लिए ज्योति को बुलाने आया है

ज्योति, हरता पंचायत के 16 गांवों में काम करती हैं. इनमें बोरोतिका, हुटूतुआ, रंगामटी, मेरडेंडा, रोमा, कंडी, और ओसांगी गांव भी शामिल हैं. ये सभी 12 किलोमीटर के दायरे में स्थित हैं. हर मामले को देखने के लिए उन्हें कुछ दूरी पैदल तय करनी पड़ती है. कई बार उन्हें दूसरी पंचायतों, जैसे रुनघीकोचा और रॉबकेरा की औरतें भी फ़ोन करती हैं.

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30 साल की ग्रेसी इक्का बताती हैं कि कैसे मुश्किल समय में ज्योति ने उनकी मदद की. वह कहती हैं, "साल 2009 का वक़्त था और मैं पहले बच्चे से गर्भवती थी". वह बोरोतिका के अपने घर में हमसे बात कर रही हैं. "आधी रात को बच्चा हुआ. उस समय मेरे घर में मेरी बूढ़ी सास के अलावा, ज्योति इकलौती औरत थी जो उस वक़्त मेरे साथ थी. मुझे भयानक दस्त लगे थे और बच्चे के पैदा होने के बाद बहुत ज़्यादा कमज़ोरी थी. मैं बेहोश हो गई थी. इस पूरे समय ज्योति ने ही मेरा ख़्याल रखा."

ग्रेसी याद करती हैं कि कैसे उन दिनों, वहां न कोई यातायात का साधन था, न ही गांव तक पहुंचने वाली कोई सड़क थी. ज्योति कोशिश कर रही थीं कि ग्रेसी को इलाज के लिए 100 किलोमीटर दूर, चाईबासा पहुंचाया जा सके. इसके लिए ज्योति एक सरकारी नर्स, जरंति हेब्राम से लगातार संपर्क करने की कोशिश कर रही थीं. जब तक संपर्क नहीं मिला, ज्योति ने इलाज के लिए स्थानीय जड़ी बूटियों का सहारा लिया. नई-नई मां बनी ग्रेसी को वापस पैरों पर खड़ा होने में लगभग एक साल का समय लग गया. ग्रेसी कहती हैं, "ज्योति ही थी जो मेरे बच्चे को, गांव की स्तनपान कराने वाली अन्य महिलाओं के पास ले जाकर दूध पिलवाती थीं. उसके बिना मेरा बच्चा ज़िंदा नहीं बचता."

ग्रेसी के पति संतोष कच्छप (38) बताते हैं कि गांव में पिछले दो सालों से एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है. वहां नर्स हफ़्ते में एक बार बैठती है. यह स्वास्थ्य केंद्र ज्योति के घर से तीन किलोमीटर दूर है और यहां किसी तरह की कोई सुविधा मौजूद नहीं है. वह कहते हैं, "नर्स गांव में नहीं रहती. वह आती है और छोटी-मोटी परेशानियों वाले मरीज़ों, जैसे बुख़ार वगैरह की शिकायत देखकर लौट जाती है. नर्स को लगातार रिपोर्ट भेजने की ज़रूरत होती है, लेकिन गांव में इंटरनेट की सुविधा नहीं है. इसलिए वह गांव में नहीं रह सकती है. ज्योति गांव में रहती है, इसीलिए वह इतनी मदद कर पाती है." गर्भवती महिलाएं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं जातीं. वे घर पर बच्चे को जन्म देने के लिए ज्योति की मदद लेती हैं.

यहां तक कि आज भी ज़िले के किसी भी गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ठीक ढंग से काम नहीं करता. गोइलकेरा ब्लॉक में स्थित अस्पताल बोरोतिका से 25 किलोमीटर दूर है. इसके अलावा आनंदपुर ब्लॉक में हाल ही में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुला है, जो 18 किलोमीटर दूर है. 12 किलोमीटर का एक पतला रास्ता बोरोतिका से सेरेंगदा गांव होते हुए जाता है और कोयल नदी पर जाकर ख़त्म हो जाता है. गर्मियों के मौसम में लोग छिछले पानी में उतरकर, नदी पार करते हुए आनंदपुर पहुंच जाते हैं. लेकिन बारिश के मौसम में नदी उफ़ान पर होती है और रास्ता बंद हो जाता है. ऐसे में लोगों को मजबूरन 4 किलोमीटर लंबा रास्ता तय करना पड़ता है. नदी से आनंदपुर तक का रास्ता पथरीला, कीचड़ भरा है. 10 किमी लंबे इस रास्ते पर बीच-बीच में सड़कें बनी हुई हैं, लेकिन उखड़ी हुई. यह रास्ता जंगल से होकर भी गुज़रता है.

Graci Ekka of Borotika village says, “It was Jyoti who used to take my newborn baby to other lactating women of the village to feed the infant. My baby would not have survived without her.
PHOTO • Jacinta Kerketta
The primary health centre located in Borotika, without any facilities. Government nurses come here once a  week
PHOTO • Jacinta Kerketta

बाएं: बोरोतिका गांव की ग्रेसी इक्का कहती हैं, 'ज्योति ही थी जो मेरे बच्चे को, गांव की स्तनपान कराने वाली अन्य महिलाओं के पास ले जाकर दूध पिलवाती थीं. उसके बिना मेरा बच्चा ज़िंदा नहीं बचता.' दाएं: बोरोतिका के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है. सरकारी नर्स यहां हफ़्ते में एक बार बैठती है

एक बस हुआ करती थी, जो लोगों को चक्रधरपुर शहर तक ले जाती थी. लेकिन एक दुर्घटना के बाद वह बंद हो गई. लोग साइकल या बाइक के ही भरोसे हैं या फिर पैदल ही जाते हैं. यह रास्ता तय करना आम तौर पर किसी भी गर्भवती महिला के लिए असंभव है. ऐसे में सिर्फ़ आनंदपुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ही 'नॉर्मल डिलीवरी' हो सकती है. अगर मामला पेचीदा है या ऑपरेशन की ज़रूरत होती है, तो महिला को आनंदपुर से 15 किलोमीटर दूर मनोहरपुर या फिर राज्य सीमा पार करके 60 किलोमीटर दूर ओडिशा के राउरकेला जाना पड़ता है.

ज्योति कहती हैं, "मैंने बचपन से देखा है कि महिलाएं सबसे अधिक असहाय तब होती हैं, जब वे बीमार होती हैं. पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते हैं (क़स्बों और शहरों में). क़स्बे और अस्पताल गांव से बहुत दूर हैं और आम तौर पर महिलाओं की तबियत और बिगड़ जाती है, जब वह अपने पति के लौटने का इंतज़ार कर रही होती हैं. कई महिलाओं के लिए उनके पति का गांव में रहना भी मदद नहीं करता, क्योंकि पुरुष अक्सर शराब पीते हैं और गर्भावस्था के दौरान भी अपनी पत्नी से मारपीट करते हैं.

ज्योति आगे कहती हैं, “पहले इस इलाक़े में एक दाई-मां थीं. वह डिलीवरी के वक़्त महिलाओं का इकलौता सहारा थीं. लेकिन गांव के मेले में उनकी हत्या कर दी गई. उनके बाद, गांव में इस कौशल वाली कोई महिला नहीं है."

हर गांव में आंगनवाड़ी सेविका और सहिया है. सेविका गांव में पैदा होने वाले बच्चों का रिकॉर्ड रखती हैं. और गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली मांओं, और उनके बच्चों की तबियत की जांच करती हैं. सहिया, गर्भवती महिलाओं को अस्पताल लेकर जाती हैं, लेकिन मरीज़ को सहिया के भोजन, आने-जाने, और अन्य ख़र्चों का भार उठाना पड़ता है. इसीलिए लोग अक्सर सहिया के पास जाने के बजाय ज्योति से संपर्क करते हैं. ज्योति दवाओं के अलावा लोगों के घर जाने का कोई पैसा नहीं लेती हैं.

लेकिन इस गांव में कई परिवारों के लिए यह भी बहुत मुश्किल हो सकता है. गांव के ज़्यादातर लोग बारिश से होने वाली पैदावार और दिहाड़ी मज़दूरी पर निर्भर हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम सिंहभूम के ग्रामीण इलाक़े में 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या, आय के लिए इसी तरह के कामों पर निर्भर हैं. ज़्यादातर परिवारों के पुरुष काम की तलाश में गुजरात, महाराष्ट्र, और कर्नाटक चले जाते हैं.

The few roads in these Adivasi villages of Pashchimi Singhbhum are badly maintained. Often the only way to reach another village for Jyoti is by walking there.
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Jyoti walks to Herta village by crossing a stone path across a stream. During monsoon it is difficult to cross this stream
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बाएं: पश्चिमी सिंहभूम के इन आदिवासी गांवों में कुछ ही सड़कें बनी हैं और बहुत बुरे हाल में हैं. अक्सर एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचने के लिए ज्योति को पैदल ही जाना होता है. दाएं: ज्योति, हरता गांव जाने के लिए पत्थरों से बने रास्ते से नदी को पार कर रही हैं. मानसून के दौरान इस धारा को पार करना मुश्किल होता है

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नीति आयोग की ' राष्ट्रीय बहुआयामी ग़रीबी सूचकांक रिपोर्ट के अनुसार', ग़रीबी के संकेतकों के आधार पर पश्चिमी सिंहभूम के 64 प्रतिशत ग्रामीण 'बहुआयामी ग़रीब' हैं. यहां लोगों के पास दो ही विकल्प हैं. या तो वे ऊंची क़ीमतें अदा कर मुफ़्त सरकारी सुविधाओं तक पहुंचें या फिर ज्योति की तरह किसी आर.एम.पी. से महंगी दवाएं ख़रीदें, जिसकी फ़ीस बाद में किश्तों में भी दी जा सकती है.

देरी को रोकने के लिए राज्य सरकार ने ज़िला अस्पतालों के कॉल सेंटर्स के साथ, मुफ़्त सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं 'ममता वाहन और सहियाओं' के लिए एक नेटवर्क स्थापित किया है. गर्भवती महिलाओं को स्वास्थ्य सेवा केंद्र तक पहुंचाने वाली गाड़ी के बारे में बात करते हुए ज्योति कहती हैं,  "लोग ममता वाहन के लिए फ़ोन नंबर पर कॉल कर सकते हैं. लेकिन वाहन चालक को अगर इस बात का अंदाज़ा लग जाए कि गर्भवती महिला की जान बचने की गुंजाइश बहुत कम है, तो बहुत बार वह आने से ही इंकार कर देते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर महिला की मौत गाड़ी में हो जाती है, तो वाहन चालक स्थानीय लोगों के ग़ुस्से का शिकार हो जाता है."

दूसरी तरफ़, ज्योति महिलाओं को घर पर बच्चे को जन्म देने में मदद करती हैं और वह इस सहयोग के 5,000 रुपए लेती हैं. वह एक सेलाइन की बॉटल लगाने के 700-800 रुपए लेती हैं, जो बाज़ार में 30 रुपए में बिकती है. बिना ड्रिप के मलेरिया के इलाज में कम से कम 250 रुपए का ख़र्च आता है और निमोनिया की दवाएं 500-600 की. इसके अलावा पीलिया या टायफ़ायड के इलाज में  2,000-3,000 तक का ख़र्च आता है. एक महीने में ज्योति के हाथ में लगभग 20,000 रुपए आते हैं, जिसमें से आधा पैसा दवाएं ख़रीदने में ख़र्च होता है.

2005 में प्रातीची (इंडिया) ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में, ग्रामीण भारत में निजी चिकित्सकों और दवा कंपनियों के बीच एक चिंताजनक गठजोड़ की उपस्थिति देखी गई है. रिपोर्ट के मुताबिक़, “जब प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और जन स्वास्थ्य सेवाओं की इकाइयों में दवाओं की भयानक कमी होती है, तो इस विशाल दवा बाज़ार में डॉक्टर अनैतिक तौर तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं और इन्हें बढ़ावा देते हैं. और किसी एक क़ायदे या क़ानून की ग़ैर मौजूदगी में आम लोगों से उनके पैसे हड़प लिए जाते हैं.”

Jyoti preparing an injection to be given to a patient inside her work area at home.
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Administering a rapid malaria test on a patient
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बाएं: घर पर कामकाज के लिए तय हिस्से में ज्योति एक मरीज़ को इंजेक्शन देने की तैयारी कर रही हैं. दाएं: एक मरीज़ का रैपिड मलेरिया टेस्ट कर रही हैं

साल 2020 में झारखंड के मुख्यमंत्री ने 2011 की जनगणना के आधार पर, राज्य की स्वास्थ्य समीक्षा की . इस रिपोर्ट ने पहुंच और वितरण के मामले में राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली की निराशाजनक तस्वीर पेश की. इसमें 'भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों' की तुलना में 3,130 स्वास्थ्य उप-केंद्रों, 769 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और 87 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी पाई गई. राज्य में हर एक लाख की आबादी पर सिर्फ़ 6 डॉक्टर, 27 बेड, 1 लैब टेक्नीशियन, और क़रीब 3 नर्स हैं. साथ ही स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स के 85 फ़ीसदी पद ख़ाली पड़े हैं.

ऐसा मालूम पड़ता है कि यह स्थिति पिछले एक दशक से नहीं बदली है. झारखंड आर्थिक सर्वेक्षण 2013-14 में पीएचसी की संख्या में 65 प्रतिशत, उप-केंद्रों में 35 प्रतिशत, और सीएचसी में 22 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई थी. रिपोर्ट में कहा गया है कि स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी सबसे चिंताजनक मुद्दा है. सी.एस.सी. में दाई, स्त्री रोग और बाल रोग विशेषज्ञों की 80 से 90 प्रतिशत तक की कमी दर्ज की गई है.

यहां तक कि आज भी राज्य की एक चौथाई महिलाओं के पास अस्पताल में जाकर बच्चे को जन्म देने की सुविधा नहीं है. और साथ ही, 5,258 डॉक्टरों की कमी बनी हुई है. 3.78 करोड़ आबादी वाले इस राज्य में, सभी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में केवल 2,306 डॉक्टर मौजूद हैं.

ऐसी असमान स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के रहते आर.एम.पी. महत्वपूर्ण हो जाते हैं. ज्योति घरों में होने वाली डिलीवरी करवाती हैं और प्रसव के बाद की देखभाल करती हैं, और गर्भवती महिलाओं को आयरन और विटामिन की ख़ुराक देती हैं. वह संक्रमण और छोटी-मोटी चोटों के मामले भी देखती हैं और तत्काल चिकित्सकीय मदद करती हैं. जटिल मामलों में, वह मरीज़ को सरकारी अस्पताल ले जाने की सलाह देती हैं और यहां तक कि गाड़ी का इंतज़ाम भी करती हैं या सरकारी नर्स से संपर्क करवाती हैं.

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'झारखंड रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर्स एसोसिएशन' के सदस्य वीरेंद्र सिंह का अनुमान है कि अकेले पश्चिम सिंहभूम में 10,000 आर.एम.पी. प्रैक्टिस कर रहे हैं. इनमें 700 महिलाएं हैं. वह कहते हैं,"आनंदपुर जैसे नए पी.एच.सी. में डॉक्टर नहीं हैं". वह पूछते हैं, "वह पूरी जगह नर्सों द्वारा चलाई जा रही है. यह ज्योति जैसे आर.एम.पी. हैं जो अपने गांवों की देखभाल करते हैं, लेकिन सरकार से कोई सहयोग नहीं मिलता है. लेकिन वे इलाक़े के लोगों को इसलिए समझते हैं, क्योंकि वे उनके साथ रहते हैं. वे जनता से जुड़े हुए हैं. आप उनके काम को नज़रअंदाज़ कैसे कर सकते हैं?"

Susari Toppo of Herta village says, “I had severe pain in my stomach and was bleeding. We immediately called Jyoti."
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Elsiba Toppo says, "Jyoti reaches even far-off places in the middle of the night to help us women."
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The PHC in Anandpur block
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बाएं: हरता गांव की सुसरी टोप्पो कहती हैं, 'मेरे पेट में भयानक दर्द था और ख़ून भी बह रहा था. हमने तुरंत ज्योति को फ़ोन किया.' बीच में: एल्सिबा टोप्पो कहती हैं, 'ज्योति हम महिलाओं की मदद के लिए आधी रात में भी दूर-दूर तक पहुंच जाती है.' दाएं: आनंदपुर ब्लॉक में स्थित पीएचसी

हरता गांव की 30 वर्षीय सुसरी टोप्पो बताती हैं कि जब 2013 में वह अपने पहले बच्चे से गर्भवती थीं, उनके बच्चे ने पेट में हिलना-डुलना बंद कर दिया था. "मेरे पेट में भयानक दर्द था और ख़ून भी बह रहा था. हमने तुरंत ज्योति को फ़ोन किया. वह सारी रात और अगले दिन भी हमारे साथ रही. उन दो दिनों में उसने 6 सेलाइन की बोतलें लगाईं. एक दिन में तीन. आख़िर में बच्चे की नॉर्मल डिलीवरी हुई." बच्चा स्वस्थ था और उसका वज़न 3.5 किलो था. ज्योति को 5,500 रुपए देने थे, लेकिन परिवार के पास सिर्फ़ 3,000 रुपए थे. सुसरी कहती हैं कि ज्योति बचे हुए पैसे बाद में लेने के लिए तैयार हो गईं.

हरता में,  30 साल की एलिस्बा टोप्पो, लगभग तीन साल पहले के अपने अनुभव को बताती हैं. "मैं उस वक़्त अपने जुड़वा बच्चों के साथ गर्भवती थी. मेरा पति हमेशा की तरह शराब में धुत था. मैं अस्पताल नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि मैं जानती थी कि सड़कें बहुत ख़राब हैं." वह कहती हैं कि घर से क़रीब चार किलोमीटर दूर, मुख्य सड़क तक पहुंचने के लिए भी खेतों और नालियों से गुज़रना पड़ता है.

एलिस्बा रात में शौच के लिए जब खेत के पास गईं, उस वक़्त उन्हें दर्द शुरू हो गया. जब वह आधे घंटे बाद घर लौटीं, तो सास ने उनकी मालिश की लेकिन दर्द जस का तस बना रहा. वो कहती हैं, "फिर हमने ज्योति को बुलाया. वह आई, उसने दवाइयां दीं. और उसकी वजह से ही मेरे जुड़वां बच्चों का जन्म, घर पर नॉर्मल डिलीवरी से हुआ. वह हम महिलाओं की मदद करने के लिए आधी रात में भी दूर-दूर तक पहुंच जाती है."

आर.एम.पी, आई.वी सॉल्यूशन्स के अंधाधुन इस्तेमाल के लिए जाने जाते हैं. प्रतीची की रिपोर्ट में पाया गया कि झारखंड और बिहार में आर.एम.पी. द्वारा लगभग हर तरह की बीमारी के लिए आई.वी. सॉल्यूशन (सेलाइन) का इस्तेमाल किया जाता है. जबकि यह न सिर्फ़ ग़ैरज़रूरी है, बल्कि ख़र्चीला भी है. कुछ मामलों में इसके इस्तेमाल का उल्टा असर भी देखा गया है. रिपोर्ट कहती है, "साक्षात्कार करने वाले 'प्रैक्टिशनर्स' ने दृढ़ता से कहा कि सेलाइन के बिना कोई इलाज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह शरीर में ख़ून बढ़ाता है, पोषण देता है और तेज़ी से राहत पहुंचाता है."

यह काम जोख़िम भरा है, लेकिन ज्योति क़िस्मत वाली रही हैं. वह दावा करती है कि पिछले 15 सालों में उनसे कोई चूक नहीं हुई है. वह कहती हैं, "अगर मुझे कोई भी मामला संभालने में परेशानी होती है, तो मैं हमेशा मरीज़ को मनोहरपुर ब्लॉक अस्पताल भेज देती हूं. या फिर मैं ममता वाहन को बुलाने में उनकी मदद करती हूं या किसी सरकारी नर्स से संपर्क करा देती हूं."

Jyoti seeing patients at her home in Borotika
PHOTO • Jacinta Kerketta
Giving an antimalarial injection to a child
PHOTO • Jacinta Kerketta

बाएं: ज्योति, बोरोतिका में अपने घर पर मरीज़ों को देख रही हैं. दाएं: एक बच्चे को मलेरिया रोधी इंजेक्शन लगा रही हैं

ज्योति ने अपने दृढ़ संकल्प से ही सबकुछ सीखा है. जब वह सेरगेंदा के एक सरकारी स्कूल में क्लास 6 में पढ़ती थीं, उसी दौरान उनके पिता की मृत्यु हो गई थी. इससे ज्योति की पढ़ाई पर बड़ी रुकावट आ खड़ी हुई. ज्योति याद करती हैं,"उन दिनों शहर से लौट रही एक महिला मुझे काम दिलाने के बहाने पटना ले गई और एक डॉक्टर दंपत्ति के पास छोड़ गई. वे मुझसे घर का झाड़ू-पोंछा करवाते थे. एक दिन, मैं वहां से भागकर वापस गांव आ गई."

बाद में ज्योति ने चारबंदिया गांव के एक कॉन्वेंट स्कूल में अपनी पढ़ाई फिर से शुरू की. वह कहती हैं, "वहां नन को दवाखाने में काम करते हुए देखकर, मुझे पहली बार नर्सिंग के काम की संतुष्टि और सुख समझ आया. मैं उसके बाद और नहीं पढ़ सकी. मेरे भाई ने किसी तरह 10,000 रुपए जोड़े और मैंने एक निजी संस्थान से एलोपैथी दवाओं में मेडिकल प्रैक्टिशनर का कोर्स किया." इसके बाद ज्योति ने किरीबुरु, चाईबासा, और गुमला के विभिन्न निजी अस्पतालों में कई डॉक्टरों के साथ दो से तीन महीने तक बतौर सहायक काम किया. इसके बाद उन्हें 'झारखंड रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर्स एसोसिएशन' से एक सर्टिफ़िकेट मिला. बाद में वह अपनी ख़ुद की प्रैक्टिस शुरू करने के लिए अपने गांव लौट आईं.

हरता पंचायत में काम करने वाली सरकारी नर्स, जरंती हेंब्रम कहती हैं, "अगर आप एक बाहरी व्यक्ति हैं, तो आपके लिए किसी इलाक़े में काम करना बहुत मुश्किल है. ज्योति प्रभा गांव में प्रैक्टिस करती हैं, इसीलिए लोगों को मदद मिल पाती है."

ज्योति कहती हैं, "सरकारी नर्स महीने में एक बार गांव ज़रूर आती हैं, लेकिन गांव के लोग उनके पास नहीं जाते, क्योंकि वे उन पर भरोसा नहीं करते. यहां लोग शिक्षित भी नहीं हैं. इसलिए उनके लिए दवाओं से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात होती है भरोसा और व्यवहार."

पारी और काउंटरमीडिया ट्रस्ट की ओर से ग्रामीण भारत की किशोरियों तथा युवा औरतों को केंद्र में रखकर की जाने वाली रिपोर्टिंग का यह राष्ट्रव्यापी प्रोजेक्ट, ‘पापुलेशन फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया’ द्वारा समर्थित पहल का हिस्सा है, ताकि आम लोगों की बातों और उनके जीवन के अनुभवों के ज़रिए इन महत्वपूर्ण, लेकिन हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति का पता लगाया जा सके.

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अनुवाद: शोभा शमी

Jacinta Kerketta

Jacinta Kerketta of the Oraon Adivasi community is an independent writer and reporter from rural Jharkhand. She is also a poet narrating the struggles of Adivasi communities and drawing attention to the injustices they face.

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Illustration : Labani Jangi

Labani Jangi is a 2020 PARI Fellow, and a self-taught painter based in West Bengal's Nadia district. She is working towards a PhD on labour migrations at the Centre for Studies in Social Sciences, Kolkata.

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Translator : Shobha Shami

Shobha Shami is a media professional based in Delhi. She has been working with national and international digital newsrooms for over a decade now. She writes on gender, mental health, cinema and other issues on various digital media platforms.

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