गोबर के गोल-गोल उपले बनाती बिहार की यह महिला राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में आश्चर्यजनक योगदान कर रही है। हालांकि, इसकी गणना हमारे सकल घरेलू उत्पाद में नहीं की जाएगी। ईंधन के रूप में गाय के गोबर का उपयोग करने वाले लाखों परिवार यदि इसकी जगह गैस या तेल का इस्तेमाल करने लगें, तो आपदा की स्थित पैदा हो जाएगी। पेट्रोलियम और उसके उत्पादों के आयात पर भारत किसी अन्य वस्तु की तुलना में अधिक विदेशी मुद्रा खर्च करता है। वर्ष 1999-2000 में यह राशि 47,421 करोड़ रुपये या 10.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी।

हम खाद्य, खाद्य तेल, दवा और औषधिक उत्पाद, रसायन, लौह और इस्पात के आयात पर जितनी विदेशी मुद्रा ख़र्च करते हैं, यह उससे तीन गुना से भी ज़्यादा है। पेट्रोलियम और उसके उत्पादों पर हम जितना ख़र्च करते हैं, वह हमारे कुल आयात बिल का लगभग एक चौथाई हिस्सा होता है।
यह हमारे द्वारा उर्वरक के आयात पर ख़र्च की जाने वाली विदेशी मुद्रा का लगभग आठ गुना, अर्थात 1.4 बिलियन डॉलर है। गोबर एक महत्वपूर्ण जैविक उर्वरक है, जिसे लाखों लोग फ़सल उगाने में इस्तेमाल करते हैं। तो, यह उस मोर्चे पर भी हमारे लिए अनगिनत राशि बचाने का काम कर रहा है। यह कीटनाशक के रूप में भी काम करता है। इसके अलावा इसके और भी कई अन्य उपयोग हैं। आप जिस तरह चाहें इसे काट लें। जो महिलाएं देश भर में गोबर इकट्ठा करती हैं – और यह ‘महिलाओं का काम’ है – वह भारत के लिए प्रति वर्ष लाखों, शायद अरबों डॉलर बचा रही हैं। लेकिन गोबर चूंकि स्टॉक एक्सचेंज में पंजीकृत नहीं है, और शायद इसलिए कि वे इसे इकट्ठा करने वाली महिलाओं के जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं या उनकी परवाह कम करते हैं – मुख्यधारा के अर्थशास्त्री इसे कभी तवज्जोह नहीं देते। वे इस प्रकार के श्रम को न तो देखते हैं और न ही उसका सम्मान करते हैं।
महिलाएं गाय और भैंस के लिए चारा इकट्ठा करती हैं। वे गोबर में भूसा और फ़सलों के डंठल मिलाकर खाना पकाने का ईंधन तैयार करती हैं। वह भी अपने ख़र्च पर, और बिना किसी विकल्प के। गोबर इकट्ठा करना थका देने वाला काम और उपयोग करने में मुश्किल है।

लाखों महिलाएं भारत को विश्व का शीर्ष दुग्ध-उत्पादक देश बनाने में भी बड़ा योगदान दे रही हैं। और सिर्फ इसलिए नहीं कि वे मुख्य रूप से भारत की 100 मिलियन गायों और भैंसों का दूध निकालने के लिए ज़िम्मेदार हैं। आंध्र प्रदेश के विज़ियानगरम की इस महिला के लिए, उस गाय का दूध निकालना काम का एक छोटा हिस्सा है। वह इसके लिए चारा इकट्ठा करेगी, इसे खिलाएगी, नहलाएगी, गाय की झोंपड़ी को साफ़ करेगी और गोबर इकट्ठा करेगी। उसकी पड़ोसन उसकी गाय का दूध लेकर दुग्ध-समिति पर पहले से ही मौजूद है, जहां वह सभी प्रकार के लेनदेन को संभालेगी। डेयरी सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं की संख्या 69 प्रतिशत से लेकर 93 प्रतिशत तक है। वे दुग्ध-उत्पादों के प्रसंस्करण का भी अधिकतर काम करती हैं। दरअसल, महिलाएं सभी पशुओं के प्रबंधन और उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

एक दूसरी पड़ोसन खेतों से भैंस को वापस ला रही है। भैंस थोड़े तनाव में है, क्योंकि उसने अपेक्षाकृत छोटे लेकिन ताक़तवर हमलावर को देख लिया है: यानी एक छोटे से कुत्ते को जो इसके पैरों पर हमला करने का इंतज़ार कर रहा है। महिला ने दोनों संकेतों को देख लिया है, लेकिन हालात को नियंत्रण में रखे हुई है। वह भैंस पर नज़र रखेगी और इसे सुरक्षित घर ले जाएगी। जैसा कि वह अपने जीवन में हर दिन करती है।
मवेशी केवल अपने दूध या मांस से ही लोगों के लिए पैसे का इंतज़ाम नहीं करते, बल्कि लाखों ग़रीब भारतीयों के लिए वे एक महत्वपूर्ण बीमा कवर का भी काम करते हैं। अत्यंत गंभीर संकट की अवधि के दौरान, जब आय के सभी स्रोत समाप्त हो जाते हैं, तो ग़रीब लोग जीवित रहने के लिए अपने एक या दो मवेशियों को बेचते हैं। इसीलिए बहुत से ग़रीब भारतीयों की ख़ुशहाली देश के मवेशियों के स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है। और मवेशियों का स्वास्थ्य महिलाओं के हाथों में है। फिर भी, कुछ ही महिलाएं हैं, जो ख़ुद से मवेशी रखती और उन्हें नियंत्रित करती हैं। भारत की गांव स्तरीय 70,000 डेयरी सहकारी समितियों (डीसी) में से अधिकांश पर पुरुषों का वर्चस्व है। इन समितियों के कुल सदस्यों में से केवल 18 प्रतिशत ही महिलाएं हैं। डीसी बोर्ड के सदस्यों में भी उनकी संख्या तीन प्रतिशत से कम ही है।
हिंदी अनुवाद: डॉ. मोहम्मद क़मर तबरेज़