वह ऊंची ढलान वाले रास्ते से ऊपर आ रही थी, सिर पर रखा एक बड़ा बोझा उसके चेहरे को छिपाए हुए था। काम तो दिख रहा था, महिला नहीं (यानी ‘काम ही काम, महिलाएं गुमनाम’। उड़ीसा के मलकानगिरी की इस भूमिहीन महिला का यह मज़दूरी भरा एक आम दिन था। पानी भरना, ईंधन और चारा लाना। इन्हीं तीनों कामों में महिलाओं का एक तिहाई जीवन बीत जाता है। देश के कुछ हिस्सों में, महिलाएं दिन भर में सात घंटे केवल अपने परिवार के लिए पानी और ईंधन जुटाने में व्यतीत करती हैं। पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करने में भी समय लगता है। ग्रामीण भारत में लाखों महिलाएं, इन तीन चीज़ों को इकट्ठा करने के लिए हर दिन कई किलोमीटर चलती हैं।

बोझा बहुत भारी है। यह आदिवासी महिला, जो मलकानगिरी में एक ढलान पर भी चल रही है, उसके सिर पर लगभग 30 किलो ईंधनी लकड़ी है। और उसे अभी तीन किलोमीटर और चलना है। कई महिलाएं अपने घरों में पानी लाने के लिए, इतनी ही या इससे भी ज़्यादा दूरी तय करती हैं।
मध्यप्रदेश के झाबुआ में, लकड़ी के लट्ठों पर खड़ी यह महिला, एक ऐसे कुएं से पानी खींच रही है, जिसमें कोई दीवार नहीं है। लट्ठे कुएं के मुहाने पर रखे हुए हैं, ताकि इसके अंदर कीचड़ और धूल न जा सके। वे एक साथ बंधे हुए भी नहीं हैं। अगर वह अपना संतुलन खो देती है, तो इस बीस फुट गहरे कुएं में गिरेगी। अगर वह फिसल कर किनारे गिरती है, तो ये लट्ठे उसके पैरों को कुचल सकते हैं।

वनों की कटाई या पानी की कमी वाले क्षेत्रों में, यह मेहनत और भी सख़्त हो जाती है। वहां इन कार्यों के लिए और भी ज़्यादा दूरी तय करनी पड़ती है। ऐसे में ये महिलाएं एक ही बार में बड़ा बोझ ढोने की कोशिश करती हैं।
अच्छे से अच्छे समय में भी ये बहुत ही कठिन कार्य हैं। लेकिन, चूंकि लाखों लोगों की पहुंच गांव की संयुक्त या आम भूमि तक समाप्त हो रही है, इसलिए समस्याएं और भी जटिल होती जा रही हैं। देश भर के अधिकांश राज्यों में गांव के संयुक्त स्थानों का तेज़ी से निजीकरण किया जा रहा है। इससे ग़रीबों, ख़ासकर कृषि मजदूरों का नुक़सान हो रहा है। सदियों से, वे इन जगहों से अपने उपभोग की चीज़ें बड़ी मात्रा में प्राप्त करते रहे हैं। अब इन जगहों के खोने का मतलब है, अन्य चीज़ों के साथ-साथ तालाबों और मार्गों, चरागाहों, ईंधनी लकड़ी, पशुओं के लिए चारा और पानी खो देना। पेड़-पौधों का वह भू-भाग खो देना, जहां से उन्हें फल मिल सकता है।

संयुक्त स्थानों का निजीकरण और व्यावसायीकरण ग़रीब पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से प्रभावित कर रहा है। लेकिन सबसे ज़्यादा महिलाएं प्रभावित हो रही हैं, जो इन जगहों से ज़रूरत की चीज़ें इकट्ठा करती हैं। दलित (जिन्हें जाति व्यवस्था के तहत ‘अछूत’ समझा जाता है) और भूमिहीन मज़दूरों के अन्य पिछड़े समूह सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं। हरियाणा जैसे राज्यों में ऊंची जाति के नेतृत्व वाली पंचायतों ने ऐसी संयुक्त ज़मीनें कारख़ानों, होटलों, शराब बनाने की भट्टियों, लक्ज़री फार्महाउसों और रिहाइशी कालोनियों को पट्टे पर दे दिए हैं।
ट्रैक्टर के साथ-साथ अब खेती-बाड़ी में मशीनों का बड़े पैमाने पर उपयोग होने लगा है, जिससे ज़मीन मालिकों को मज़दूरों की कम ज़रूरत पड़ती है। इसलिए उन्हें लगता है कि वे अब उन आम ज़मीनों को बेच सकते हैं, जो किसी ज़माने में गांव के अंदर ग़रीब मज़दूरों को बसाए रखने में मदद करते थे। अक्सर यह देखा गया है कि ग़रीब लोग जब इन आम ज़मीनों के बेचे जाने का विरोध करते हैं, तो ज़मीन मालिक उनका जाति आधारित तथा आर्थिक बहिष्कार कर देते हैं। आम भूमि का खो जाना और बहिष्कारों का नतीजा यह होता है कि कई जगहों पर महिलाएं शौचालय की जगह भी खो देती हैं। यह अब उनमें से कई के लिए एक बड़ी समस्या है।

ईंधन, चारा और पानी इकट्ठा करने से लाखों लोगों का घर चल रहा है। लेकिन जो लोग इन कार्यों में लगे हुए हैं, उन्हें इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही है।
हिंदी अनुवाद: डॉ. मोहम्मद क़मर तबरेज़