पहली बार जब 18 वर्षीय सुमित (बदला हुआ नाम) हरियाणा के रोहतक के एक सरकारी ज़िला अस्पताल में चेस्ट रीक्रंस्ट्रक्शन सर्जरी के बारे में पूछताछ करने गए, तो कहा गया कि उन्हें जले हुए रोगी के रूप में भर्ती होना होगा.
भारत के ट्रांसजेंडर समुदाय को उस जटिल चिकित्सकीय-क़ानूनी यात्रा से जुड़ी लालफीताशाही को ख़त्म करने के लिए एक झूठ बोलना होगा, यदि वे उस शरीर से, जिसमें वे पैदा हुए हैं, से एक ऐसे शरीर में परिवर्तन करना चुनते हैं, जिसमें वे सहज महसूस कर सकें. फिर भी, इस झूठ से काम नहीं बना.
सुमित को काग़ज़ी कार्रवाई, अंतहीन मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन, चिकित्सकीय परामर्श, कर्ज़ समेत एक लाख रुपए का ख़र्च, तनावपूर्ण पारिवारिक रिश्तों और अपने पूर्व स्तनों के प्रति एक लगातार होने वाली असहजता के 8 साल और लगेंगे, इससे पहले कि वह आख़िर में 'टॉप सर्जरी'(जैसा कि इसे बोलचाल की भाषा में कहा जाता है) करवा सकें. उन्हें रोहतक से लगभग 100 किलोमीटर दूर, हिसार के एक निजी अस्पताल में रेफ़र किया गया.
डेढ़ साल बाद, 26 वर्षीय सुमित अभी भी चलते समय अपने कंधे झुकाकर चलते हैं; यह उनकी सर्जरी से पहले की आदत है, जब उनके स्तन, शर्म और बेचैनी का कारण थे.
इस बात के कोई हालिया आंकड़े नहीं है कि भारत में सुमित की तरह कितने लोग हैं, जिनकी जन्म के समय निर्धारित लिंग से अलग जेंडर की पहचान है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सहयोग से किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2017 में भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की संख्या 4.88 लाख होगी.
साल 2014 के राष्ट्रीय क़ानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारतीय संघ मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय पारित किया, जिसमें "थर्ड जेंडर" और उनकी पहचान को "ख़ुद की पहचान" के साथ चुनने के अधिकार को मान्यता दी गई और सरकारों को उनके लिए स्वास्थ्य संबंधी देखभाल को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया. पांच साल बाद, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 , ने जेंडर अफ़र्मिंग सर्जरी, हार्मोन थेरेपी और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं जैसी व्यापक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में सरकारों की भूमिका पर फिर से ज़ोर दिया.
इन क़ानूनी परिवर्तनों से पहले के सालों में, कई ट्रांस व्यक्तियों को सेक्स चेंज (जिसे जेंडर अफ़र्मटिव सर्जरी के रूप में भी जाना जाता है) सर्जरी से गुज़रने का मौका नहीं दिया जाता था, जिसमें चेहरे की सर्जरी और 'टॉप' या 'बॉटम' सर्जरी शामिल हो सकती थीं. इसमें स्तन और जननांगों पर होने वाली प्रक्रियाएं भी शामिल थीं.
सुमित उन लोगों में से एक थे जो 8 साल और 2019 के बाद भी ऐसी सर्जरी नहीं करा सके.
हरियाणा के रोहतक ज़िले में एक दलित परिवार में एक महिला के रूप में जन्मे सुमित अपने तीन भाई-बहनों के लिए अभिभावक समान थे. सुमित के पिता, परिवार में पहली पीढ़ी के सरकारी नौकरी करने वाले थे और ज़्यादातर घर से बाहर रहते थे. उनके माता-पिता के बीच तनावपूर्ण संबंध थे. उनके दादा-दादी खेती-किसानी से जुड़ा काम करने वाले दैनिक मज़दूर थे. उनकी मृत्यु तब हुई जब सुमित बहुत छोटे थे. सुमित पर जो घरेलू ज़िम्मेदारियां थीं, वे घर की सबसे बड़ी बेटी के कर्तव्यों की लोगों की धारणा के तौर पर थीं. लेकिन वह सुमित की अपनी पहचान से मेल नहीं खाती थीं. वह कहते हैं, "मैंने एक पुरुष के रूप में वो सारी ज़िम्मेदारियां पूरी कीं."
सुमित को याद है कि जब वह तीन साल के थे तब भी उन्हें फ़्रॉक पहनते समय घबराहट होती थी. शुक्र है, हरियाणा के खेलकूद वाले महौल ने कुछ राहत दी; लड़कियों के लिए न्यूट्रल(जो किसी विशेष जेंडर को ना दर्शाते हों) और यहां तक की मर्दाना, स्पोर्ट्स वाले कपड़े पहनना भी आम बात है. सुमित कहते हैं, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ते हैं कि कुछ कमी फिर भी महसूस होती थी, " बड़े होते हुए मैंने हमेशा वही पहना जो मैंने चाहा. यहां तक कि मेरी सर्जरी[टॉप] के पहले भी, मैं एक पुरुष की तरह ही जिया."
13 साल की उम्र में, सुमित के मन में यह तीव्र इच्छा होने लगी कि उनका शरीर उसकी भावनाओं के अनुरूप हो - यानी एक लड़के के तौर पर. वह कहते हैं, “मेरा शरीर दुबला-पतला था और न के बराबर स्तन थे. लेकिन नफ़रत महसूस करने के लिए यह काफ़ी था,''. इस भावना से परे, सुमित के पास ऐसी कोई जानकारी नहीं थी, जो उनके डिस्फ़ोरिया ( एक बेचैनी जो एक व्यक्ति इसलिए महसूस करता है कि उनकी जेंडर पहचान, जन्म के समय निर्धारित लैंगिक पहचान से मेल नहीं खाती है) को समझा सके.
एक दोस्त मदद करने आगे आईं.
उस समय सुमित अपने परिवार के साथ किराए के मकान में रहते थे और उनकी मालिक की बेटी से दोस्ती हो गई थी. उनके पास इंटरनेट की सुविधा थी, और उन्होंने उसे 'चेस्ट सर्जरी' के बारे में जानकारी प्राप्त करने में मदद की, जो वह चाह रहे थे. धीरे-धीरे स्कूल के दूसरे ट्रांस लड़कों के साथ सुमित को समुदाय मिला, जिन्होंने कई स्तर पर डिस्फ़ोरिया को महसूस किया था. अस्पताल जाने का साहस जुटाने से पहले, युवा किशोर ने अगले कुछ साल ऑनलाइन और दोस्तों से जानकारी इकट्ठा करने में बिताए.
यह 2014 था, 18 साल के सुमित ने अपने घर के पास एक लड़कियों के स्कूल से 12वीं कक्षा पूरी की थी. उनके पिता काम पर गये थे, उनकी मां घर पर नहीं थीं. जब उन्हें रोकने, सवाल करने या समर्थन करने वाला कोई नहीं था, तो वह अकेले ही रोहतक ज़िला अस्पताल चले गए और झिझकते हुए स्तन हटाने की प्रक्रिया के बारे में पूछताछ की.
उन्हें मिली प्रतिक्रियाओं से कई बातें सामने आईं.
उन्हें बताया गया कि वह जले हुए रोगी के रूप में ब्रेस्ट रीकंस्ट्रक्शन सर्जरी करा सकते हैं. जिन प्रक्रियाओं के लिए प्लास्टिक सर्जरी की आवश्यकता होती है, उन्हें सरकारी अस्पतालों के बर्न विभाग के माध्यम से किया जाना असामान्य नहीं है. इसमें सड़क हादसों के मामले भी शामिल हैं. लेकिन सुमित को साफ़ तौर पर लिखित में झूठ बोलने और जले हुए रोगी के रूप में पंजीकरण करने के लिए कहा गया था, लेकिन इसमें उस सर्जरी का कोई ज़िकर नहीं किया गया था, जो वह वास्तव में कराना चाहते थे. उन्हें यह भी बताया गया कि उन्हें कोई भी पैसा नहीं देना होगा- भले ही कोई नियम सरकारी अस्पतालों में स्तन पुनर्निर्माण सर्जरी(ब्रेस्ट रीकंस्ट्रक्शन सर्जरी) या किसी भी जलने से संबंधित सर्जरी के लिए ऐसी छूट का प्रावधान नहीं करता है.
सुमित के लिए यही वजह और उम्मीद काफ़ी थी कि वह अगले डेढ़ साल अस्पताल आते-जाते रहें. इस प्रक्रिया के दौरान उन्हें अहसास हुआ कि इसकी अलग तरह की कीमत चुकानी थी- जो कि मानसिक थी.
सुमित याद करते हैं, “ वहां डॉक्टर बहुत ही आलोचनात्मक थे. वो मुझसे कहते थे कि मुझे भ्रम हो रहा है और बातें जैसे, 'तुम्हें सर्जरी क्यों करानी है' और 'तुम अभी भी किसी भी महिला के साथ रह सकते हो.' मैं उन छ-सात लोगों से डरा हुआ महसूस करता था जो मुझसे इस तरह के लगातार सवाल किया करते थे.
“ मुझे याद है मैंने दो-तीन बार 500-700 सवालों वाले फ़ॉर्म भरे.” सवाल मरीज़ के चिकित्सकीय, पारिवारिक इतिहास, मानसिक स्थिति और बुरी आदतों (अगर कोई हो तो) से संबंधित थे. लेकिन युवा सुमित के लिए वो ख़ारिज करने जैसा अहसास था. उन्होंने कहा, "उन्हें समझ ही नहीं आया कि मैं अपने शरीर में ख़ुश नहीं हूं और इसीलिए मुझे टॉप सर्जरी चाहिए."
सहानुभूति की कमी के अलावा, भारत के ट्रांसजेंडर समुदाय के समर्थन के लिए आवश्यक चिकित्सकीय कौशल में भी कमी थी और बड़े पैमाने पर यह अभी भी मौजूद है, अगर वे जेंडर-अफ़र्मटिव सर्जरी (जीआरएस) के माध्यम से अपनी पहचान को बदलना चुनते हैं.
पुरुष से महिला जी.आर.एस में सामान्यतः दो प्रमुख सर्जरी होती हैं (ब्रेस्ट इम्प्लांट और वैजिनोप्लास्टी), जबकि महिला से पुरुष की पहचान करने के लिए एक अधिक जटिल सीरीज़ होती है, जिसमें सात प्रमुख सर्जरी शामिल होती हैं. इनमें से पहला, ऊपरी शरीर या 'टॉप' सर्जरी शामिल होती है जिसमें स्तन के निर्माण या स्तनों का हटाना शामिल होता है.
नई दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में प्लास्टिक सर्जरी विभाग के उपाध्यक्ष डॉ. भीम सिंह नंदा याद करते हैं, “जब मैं छात्र था [2012 के आसपास] , तो [मेडिकल] पाठ्यक्रम में ऐसी प्रक्रियाओं का ज़िकर तक नहीं था. हमारे पाठ्यक्रम में कुछ लिंग पुनर्निर्माण प्रक्रियाएं थीं, [लेकिन] चोटों और दुर्घटनाओं के मामलों में. लेकिन अब चीज़ें बदल गई हैं."
ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की ज़रूरतों को पूरा करने वाले चिकित्सा पाठ्यक्रम और रिसर्च की समीक्षा करने को कहा गया. लेकिन लगभग पांच साल बाद, जी.आर.एस. को भारतीय ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सुलभ और क़िफ़ायती बनाने के लिए सरकार की ओर से कोई बड़े पैमाने पर प्रयास नहीं किए गए हैं
ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की ज़रूरतों को पूरा करने वाले चिकित्सा पाठ्यक्रम और अनुसंधान की समीक्षा करने को कहा गया. लेकिन लगभग पांच साल बाद, जी.आर.एस. को भारतीय ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सुलभ और क़िफ़ायती बनाने के लिए सरकार की ओर से कोई बड़े पैमाने पर प्रयास नहीं किए गए हैं.
सरकारी अस्पताल भी काफ़ी हद तक एसआरएस से बचते रहे हैं.
ट्रांस पुरुषों के लिए विकल्प विशेष रूप से सीमित हैं. उनके मामले में सेक्स रीअसाइंमेंट सर्जरी के लिए स्त्री रोग विशेषज्ञ, मूत्र रोग विशेषज्ञ और एक रीकंस्ट्रक्टिव प्लास्टिक सर्जन सहित बेहद कुशल पेशेवरों की ज़रूरत होती है. एक ट्रांस पुरुष और तेलंगाना हिजड़ा इंटरसेक्स ट्रांसजेंडर समिति के कार्यकर्ता कार्तिक बिट्टू कोंडैया कहते हैं, “ इस क्षेत्र में प्रशिक्षण और विशेषज्ञता वाले बहुत कम चिकित्सकीय पेशेवर हैं, और सरकारी अस्पतालों में तो और भी कम हैं.”
ट्रांस व्यक्तियों के लिए सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी उतनी ही निराशाजनक है. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में होने वाली मुश्किलों से निपटने के लिए काउंसलिंग एक तरह का उपाय है, लेकिन किसी भी जेंडर अफ़र्मिंग प्रक्रिया से पहले परामर्श एक क़ानूनी आवश्यकता है. ट्रांस व्यक्तियों को एक जेंडर 'आईडेंटिटी डिसऑर्डर सर्टिफ़केट' और आंकलन की रिपोर्ट एक मनोविज्ञैनिक या मनोचिकित्सक से लेनी होती है, जिससे यह साबित हो कि वे पात्र हैं.
साल 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के दस साल बाद, समुदाय में सामंजस्य है कि सम्मिलित, सहानुभूतिपूर्ण मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं, चाहे रोज़मर्रा की संघर्ष का सामना करने के लिए हो या लैंगिक परिवर्तन की यात्रा शुरू करने के लिए, महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यह अभी भी एक सपना ही है.
सुमित कहते हैं, “ज़िला अस्पताल में टॉप सर्जरी के लिए मेरी काउंसलिंग क़रीब दो साल तक चली.” आख़िर में 2016 के आसपास उन्होंने जाना छोड़ दिया. “एक समय के बाद आप थक जाते हैं.”
अपने जेंडर की पहचान को हासिल करने की चाहत उनकी थकान पर हावी हो गई. सुमित ने यह ज़म्मेदारी ख़ुद ले ली कि वह अपने अनुभवों के बारे में और खोजबीन करें, पता करें कि यह एक सामान्य अनुभव था या नहीं, जी.आर.एस. में क्या शामिल होता है और भारत में वह कहां यह प्रक्रिया कराई जा सकती है.
यह सब छिप कर किया गया, क्योंकि वह अब भी अपने परिवार के साथ रह रहे थे. उन्होंने मेंहदी बनाने और कपड़े सिलने का काम शुरू कर दिया और अपनी आय का कुछ हिस्सा टॉप सर्जरी के लिए बचाना शुरू कर दिया, जिसे वह कराने के लिए दृढ़ थे.
साल 2022 में, सुमित ने फिर से कोशिश की, अपने एक दोस्त - वह भी एक ट्रांस पुरुष है, के साथ रोहतक से हरियाणा के हिसार ज़िले तक सौ किलोमीटर से अधिक की यात्रा की. जिस निजी मनोवैज्ञानिक से वह मिले, उसने दो सत्रों में उनकी काउंसलिंग पूरी की, उससे 2,300 रुपए लिए और उसे बताया कि वह अगले दो सप्ताह के भीतर टॉप सर्जरी करा सकते हैं.
उन्हें चार दिनों तक हिसार के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था और उनके रहने और सर्जरी का बिल लगभग 1 लाख रुपए आया. सुमित कहते हैं, “ डॉक्टर और बाक़ी कर्मचारी बहुत दयालु और विनम्र थे. सरकारी अस्पताल में मुझे जो अनुभव हुआ, उससे यह बिल्कुल अलग अनुभव था.
यह ख़ुशी बहुत कम देर की थी.
रोहतक जैसे छोटे शहर में, टॉप सर्जरी कराना, अपनी पहचान सबको बताने की तरह है. जैसा कि एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय से संबंधित अधिकांश लोगों के लिए होता है. सुमित का राज़ दिन की तरह साफ़ था और यह वह रहस्य था, जिसे उसका परिवार स्वीकार नहीं कर सका था. सर्जरी के कुछ दिन बाद जब वह अपने घर रोहतक लौटे, तो उन्होंने देखा कि उनका सामान बाहर फेंक दिया गया है. “मेरे परिवार ने बिना किसी आर्थिक या भावनात्मक समर्थन के मुझे बस चले जाने के लिए कहा. उन्हें मेरी हालत की कोई परवाह नहीं थी.” हालांकि, टॉप सर्जरी के बाद भी सुमित क़ानूनी तौर पर एक महिला थे, लेकिन संभावित संपत्ति के दावों के बारे में चिंताएं सामने आने लगीं. "कुछ लोगों ने यह भी सुझाव दिया कि मुझे काम करना चाहिए और एक आदमी से अपेक्षित ज़िम्मेदारियों को निभाना चाहिए"
जी.आर.एस के बाद, मरीज़ों को कुछ महीनों के लिए आराम करने की सलाह दी जाती है, और मुश्किल मामले में ज़्यादातर अस्पताल के पास रहने को कहा जाता है. इससे ट्रांस व्यक्तियों, विशेष रूप से कम आय या हाशिए पर मौजूद लोगों पर आर्थिक और बाक़ी कामों का बोझ बढ़ जाता है. सुमित के मामले में, उन्हें हर बार हिसार आने-जाने में 700 रुपए और तीन घंटे लगते थे. उन्होंने यह यात्रा कम से कम दस बार की.
टॉप सर्जरी के बाद, मरीज़ों को अपनी सीने के चारों ओर कसे हुए कपड़े, जिन्हें बाइंडर भी कहा जाता है, लपेटना पड़ता है. "भारत की गर्म जलवायु में और यह देखते हुए कि [अधिकांश] मरीज़ों के पास एयर कंडीशनिंग नहीं है, [लोग] सर्दियों में सर्जरी कराना पसंद करते हैं. डॉ. भीम सिंह नंदा बताते हैं कि पसीने से सर्जिकल टांकों के आसपास संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है.
सुमित की सर्जरी हुई और उन्हें उत्तर भारत की मई की भीषण गर्मी में उनके घर से बाहर निकाल दिया गया. वह याद करते हैं, “[इसके बाद के सप्ताह] दर्दनाक थे, जैसे किसी ने मेरी हड्डियों को खरोंच दिया हो. बाइंडर ने हिलना मुश्किल कर दिया था. मैं अपनी ट्रांस पहचान छिपाए बिना एक जगह किराए पर लेना चाहता था लेकिन छह मकान मालिकों ने मुझे मना कर दिया. मैं अपनी सर्जरी के बाद एक महीने तक भी आराम नहीं कर सका.'' अपनी टॉप सर्जरी के नौ दिन बाद और माता-पिता के घर से बाहर निकाल दिए जाने के चार दिन बाद, सुमित दो कमरे के एक घर में रहने लगे, बिना यह झूठ बोले कि वह कौन है.
आज सुमित मेहंदी बनाने, कपड़े सिलने, चाय की दुकान में सहायक और रोहतक में ज़रूरत के आधार पर मज़दूरी कर रहे हैं. वह मात्र 5,000 से 7,000 रुपए कमा रहे हैं, जिसमें से अधिकांश किराए, खाने के ख़र्च, कुकिंग गैस और बिजली के बिल और कर्ज़ के लिए निकल जाते हैं.
सुमित ने टॉप सर्जरी करवाने के लिए एक लाख रुपए दिए, जिसमें से 30,000 रुपए 2016-2022 के बीच की बचत से आए; बाक़ी 70,000 रुपए उन्होंने पांच प्रतिशत ब्याज पर कुछ दोस्तों से उधार लिया था.
जनवरी 2024 में, सुमित के पास अब भी एक क़र्ज़ था, जो 90,000 रुपए का था, जिसपर प्रति महीने 4,000 रुपए का ब्याज लगता था. “मुझे समझ में नहीं आता कि मैं अपनी कमाई की थोड़ी-सी रकम में जीवनयापन का ख़र्च और क़र्ज़ का भुगतान कैसे करूं. मुझे नियमित काम नहीं मिलता,” सुमित हिसाब लगाते हैं. उनकी लगभग एक दशक लंबी कठिन, अलग-थलग और बदलाव की महंगी यात्रा ने उन्हें परेशान कर दिया है और उनकी रातों की नींद मुश्किल हो गई है. “मैं इन दिनों घुटन महसूस कर रहा हूं. जब भी मैं घर में अकेला होता हूं, तो मुझे चिंता, डर और अकेलापन महसूस होता है. पहले ऐसा नहीं था.”
उसके परिवार के सदस्य - जिन्होंने उन्हें बाहर निकालने के एक साल बाद फिर से उससे बात करना शुरू किया - कभी-कभी अगर वह पैसे मांगते हैं, तो उसकी मदद करते हैं.
सुमित एक मुखर ट्रांस पुरुष नहीं है - भारत में अधिकांश लोगों के लिए यह एक विशेषाधिकार है, एक दलित व्यक्ति की तो बात ही छोड़ दें. उन्हें सबके सामने आने और 'यह असली पुरुष नहीं है' जैसी बातों का डर है. स्तनों के बिना, उनके लिए छोटे-मोटे शारीरिक काम करना आसान होता है, लेकिन चेहरे पर बाल या गहरी आवाज़ जैसी 'पितृसत्ता द्वारा बनाई गई पुरुषों की शारीरिक विशेषताएं' के न होने से अक्सर उन्हें संदेहास्पद नज़रों का विषय बना देता है. जैसा कि उनका जन्म के समय का नाम है - जिसे उसने अभी तक क़ानूनी रूप से नहीं बदला है.
वह अभी तक हार्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी के लिए तैयार नहीं है; वह इसके दुष्प्रभावों के बारे में अनिश्चितता से घिरे हुए हैं. सुमित कहते हैं, "लेकिन जब मैं आर्थिक रूप से स्थिर हो जाऊंगा, तो ऐसा करूंगा."
वह एक बार में एक क़दम उठा रहे हैं.
अपनी टॉप सर्जरी के छह महीने बाद, सुमित ने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के साथ एक ट्रांस पुरुष के रूप में पंजीकरण कराया, जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त ट्रांसजेंडर प्रमाणपत्र और पहचान पत्र भी दिया. अब उनके लिए उपलब्ध सेवाओं में एक योजना है, आजीविका और उद्यम के लिए सीमांत व्यक्तियों की सहायता ( स्माइल ), जो भारत की प्रमुख आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत ट्रांसजेंडर लोगों को जेंडर अफ़र्मिंग सेवाएं देती है.
सुमित कहते हैं, ''मुझे अभी तक नहीं पता कि पूरी तरह से बदलाव के लिए मुझे और कौन सी सर्जरी की ज़रूरत है. मैं उन्हें धीरे-धीरे करूंगा. मैं सभी दस्तावेज़ों में अपना नाम भी बदल दूंगा. यह तो एक शुरुआत है."
यह स्टोरी भारत में सेक्सुअल एवं लिंग आधारित हिंसा (एसजीबीवी) का सामना कर चुके लोगों की देखभाल की राह में आने वाली सामाजिक, संस्थागत और संरचनात्मक बाधाओं पर केंद्रित राष्ट्रव्यापी रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट का हिस्सा है. इस प्रोजेक्ट को डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स इंडिया का साथ मिला है.
सुरक्षा के लिहाज़ से स्टोरी में शामिल किरदारों और उनके परिजनों के नाम बदल दिए गए हैं.
अनुवाद: शोभा शमी