एक व्यक्ति अपनी सात साल की बेटी के साथ पैदल पंढरपुर की ओर सालाना तीर्थयात्रा आषाढ़ी वारी पर जा रहे हैं. इस उत्सव के अवसर पर पूरे राज्य भर से आए वारकरी समुदाय के हज़ारों श्रद्धालु भगवान विट्ठल के मंदिर में दर्शन करने के लिए इकट्ठे होते हैं. रास्ते में वे लातूर के एक गांव – म्हैसगांव में डेरा डालने का फ़ैसला करते हैं. शाम गहराने के साथ-साथ कीर्तन की आवाज़ पूरे वातावरण में फैलने लगती हैं. खंजरी (डफ़लीनुमा वाद्ययंत्र) की धीमी आवाज़ सुन कर छोटी बच्ची अपने पिता से वहां ले चलने की ज़िद करती हैं जहां से कीर्तन की आवाज़ आ रही है.
उसके पिता उसकी ज़िद को टालना चाहते हैं. “यहां लोग हमारे जैसे मांग और महारों को छूने से बचना चाहते हैं,” वे अपनी बेटी को समझाने की कोशिश करते हैं. “उनकी नज़रों में हमारी कोई क़ीमत नहीं है. वे हमें भीतर नहीं घुसने देंगे.” लेकिन बच्ची अपनी ज़िद से पीछे नहीं हटती है. अंततः पिता को ही झुकना पड़ता है. लेकिन उसकी भी एक शर्त है कि दोनों कीर्तन को दूर से खड़े होकर सुनेंगे. छंदों की आवाज़ का पीछा करते हुए दोनों पंडाल तक पहुंचते हैं. तन्मय होकर दोनों कीर्तन के दौरान महाराज को खंजरी बजाते हुए देखते रहते हैं. जल्दी ही वह छोटी बच्ची अधीर हो जाती है. वह किसी भी शर्त पर मंच पर चढ़ना चाहती. और, मौक़ा पाते ही किसी को भी कुछ कहे बिना वह यह कर गुज़रती है.
“मैं एक भारुड [हास्य-व्यंग्य पर आधारित गीतों की एक प्राचीन शैली, जो जिनकी रचना समाज में जागरूकता फ़ैलाने के उद्देश्य से की जाती है] गाना चाहती हूं,” वह उस समय मंच पर गा रहे संत से कहती है. वहां उपस्थित लोग उसकी बात सुनकर हक्के-बक्के रह जाते हैं. लेकिन मंच पर गा रहे महाराज उसे गाने की इजाज़त दे देते हैं. अगले कुछ मिनटों के लिए वह छोटी बच्ची मंच पर मानो अपना अधिकार जमा लेती है. संगत के लिए लिए वह धातु के एक बर्तन पर थाप देती है. गाने के लिए उसने एक ऐसा गीत चुना है जिसे मंच पर गा रहे महाराज ने ही लिखा है.
माझा
रहाट
गं
साजनी
गावू
चौघी
जनी
माझ्या
रहाटाचा
कणा
मला
चौघी
जनी
सुना
कुएं पर रहट है सजनी
आओ चारों गाएं मिलकर जी
जैसे रहट की रस्सी
वैसी चारों बहुएं मेरी
उस बाल गायिका से प्रभावित होकर उस संत कलाकार ने उसे अपनी खंजरी उपहार में देते हुए कहा, “मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है. तुम एक दिन दुनिया को आलोकित करोगी.”
मीरा उमप को वीडियो में पारंपरिक भारुड गाते हुए देखा जा सकता है, जिसमें व्यंग्य और रूपकों का उपयोग किया जाता है, और उसकी कई व्याख्याएं की जा सकती हैं
यह 1975 की घटना थी. मंच पर गा रहे संत तुकडोजी महाराज थे, जो ग्राम गीता में संग्रहित अपने दोहों के कारण मशहूर हैं. यह पुस्तक ग्रामीण जीवन के दुःख-पीड़ाओं और उनके निराकरण और उनसे बचाव पर लिखी गई थी. बहरहाल अब 50 की हो चुकी वह छोटी बच्ची आज भी अपनी प्रस्तुतियों से मंच पर एक जोश का माहौल बना देती है. नौवारी सूती की एक साड़ी पहने, ललाट पर एक बड़ी सी बिंदी लगाए और बाएं हाथ में थाप से बजने वाले एक छोटे से वाद्य दिमडी को लेकर जब मीरा उमप भीम गीत गाती हैं, तो उनके दाएं हाथ की उंगलियां दिमडी पर चढ़ी खाल पर एक नई ऊर्जा और लय में थिरकने लगती है. उनकी कलाई की कांच की चूड़ियां भी दिमडी के घेरे में बंधीं घुंघरुओं की संगत देने से नहीं चूकती हैं. देखते-देखते पूरा माहौल जीवंत हो उठता है.
खातो
तुपात
पोळी
भीमा
तुझ्यामुळे
डोईवरची
गेली
मोळी
भीमा
तुझ्यामुळे
काल
माझी
माय
बाजारी
जाऊन
जरीची
घेती
चोळी
भीमा
तुझ्यामुळे
साखर
दुधात
टाकून
काजू
दुधात
खातो
भिकेची
गेली
झोळी
भीमा
तुझ्यामुळे
भीमा बस तेरी वजह से, मैं घी में खाऊं रोटी
भीमा बस तेरी वजह से, मैं अब न ढोऊं लकड़ी
मां कल को थी बाज़ार गई
भीमा बस तेरी वजह से, ज़री की चोली ख़रीदी
मैं दूध में चीनी मिलाई और साथ में काजू खाई
भीमा बस तेरी वजह से, भिक्षा से छूट मैं पाई
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मीराबाई कब पैदा हुई थीं, इस बारे में वे ख़ुद भी कुछ नहीं जानती हैं, लेकिन हमें अपनी पैदाइश का साल 1965 बताती हैं. उनका जन्म महाराष्ट्र के अंतरवाली गांव में एक ग़रीब मातंग परिवार में हुआ था. राज्य में मातंग समुदाय अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध हैं. इस समुदाय को प्राचीनकाल से ही ‘अछूत’ माना जाता रहा है और जातीय पदानुक्रम में ये सबसे नीचे आते हैं.
उनके पिता वामनराव और उनकी मां रेशमाबाई बीड जिले में गांव -गांव घूमते थे और लोगों को सुरीले भजन और अभंग सुना कर उनसे भिक्षा मांगते थे. उन्हें ‘गुरु घराना’ अर्थात गुरुओं और विद्वानों के प्रतिष्ठित समूहों से संबंधित मानकर दलितों के समुदाय में उनका सम्मान एक परिवार की तरह किया जाता था क्योंकि उन्होंने गायन-कला को सुरक्षित रखा था. इसलिए मीराबाई कभी स्कूल नहीं गई थीं, इसके बाद भी उनकी परवरिश माता-पिता के मार्गदर्शन में अभंग, भजन और कीर्तन जैसे भक्ति-संगीत की समृद्ध परंपरा के बीच हुई थी.
अपनी आठ संतानों - पांच बेटियां और तीन बेटों की देखभाल करने और उनका पेट भरने में मीराबाई के माता-पिता को जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ा. सात साल की होने के बाद मीराबाई - जो अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं, अपने माता-पिता के साथ गाकर भिक्षाटन करने साथ जाने लगीं. वामनराव एकतारी बजाते थे और उनके छोटे भाई भाऊराव दिमडी बजाते थे. गीत गाने की अपनी यात्रा की कहानी सुनाते हुए मीरा बताती हैं, “मेरे पिता और चाचा दोनों भिक्षाटन के लिए साथ-साथ ही निकलते थे. एक बार भिक्षा में मिले पैसे और अनाज के बंटवारे को लेकर दोनों के बीच झगड़ा हो गया. यह झगड़ा इतना बढ़ गया कि दोनों ने एक-दूसरे से अलग हो जाने का फ़ैसला कर लिया.”
उस दिन के बाद उनके चाचा बुलढाणा चले गए और उनके पिता मीराबाई को अपने साथ ले जाने लगे. वे भी उनके पीछे-पीछे अपनी कोमल आवाज़ में गाने लगीं, और इसतरह उन्होंने बहुत से भक्तिगीत और भजन याद कर लिए. “मेरे पिता को हमेशा से मेरे ऊपर यह विश्वास था कि एकदिन मैं एक गायिका बनूंगी,” वे कहती हैं.
बाद में दिहाड़ी पर मवेशियों की चरवाही करने के दौरान उन्होंने दिमडी पर भी अपना हाथ आज़माया. “जब मैं छोटी थी, तो धातु के बर्तनों को बजाने के काम में लाती थी. पानी लाते हुए मेरी ऊंगलियां बरबस धातु की बनी कलशी को थपथपाने लगती थीं. मेरा यह शौक धीरे-धीरे मेरी आदत बन गया. जीवन में मैंने जो कुछ भी सीखा वह ऐसे ही सीखा. कोई दूसरा काम करने के दौरान. इसके लिए मुझे कभी किसी स्कूल जाने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई,” मीराबाई बताती हैं.
आसपड़ोस में भजन गाने के लिए रोज़ कुछ लोग इकट्ठे होते थे. मीराबाई भी उन जुटानों में जाने लगीं और धीरे-धीरे वहीं भजन गाना भी शुरू कर दिया.
राम
नाही
सीतेच्या
तोलाचा
राम
बाई
हलक्या
दिलाचा
राम नहीं सीता के क़ाबिल
बड़ा नहीं है राम का दिल
“मैं कभी स्कूल नहीं गई, लेकिन मुझे 40 अलग-अलग रामायण याद हैं,” वे कहती हैं. “श्रवण बाल की कहानी, महाभारत में पांडवों की कहानियां, और कबीर के सैकड़ों दोहे मेरे मस्तिष्क में अंकित हैं.” उनका मानना है कि रामायण कोई ऐसी सीधी-सपाट कहानी नहीं है जिसमें कोई बदलाव नहीं हुआ हो, बल्कि इसे लोगों ने अपनी-अपनी संस्कृति, अपनी-अपनी धारणा और एक सामान्य अवलोकन के आधार पर रचा है. उन ऐतिहासिक चुनौतियों और हानियों जिनसे होकर अनेक समुदायों को गुज़रना पड़ा हैं, के कारण इन महाग्रंथों में बदलाव होते रहे हैं. इनके चरित्र तो वही हैं, लेकिन इनमें जो कहानियां वर्णित हैं उसके तथ्यों में नए पक्ष जुड़ते-घटते रहे हैं.
मीराबाई भी इसे अपनी दृष्टि और समाज में अपनी स्थिति के आधार पर देखती हैं. यह दृष्टि उससे भिन्न है जैसे ऊंची जाति के हिन्दू इसे प्रस्तुत करते हैं. उनके रामायण के केंद्र में एक स्त्री और एक दलित है. राम ने सीता को क्यों त्याग दिया? उन्होंने शम्बूक की जान क्यों ले ली? बालि के वध के पीछे कैसी विवशताएं थीं? जब वे अपनी तार्किकता की कसौटी पर इन ग्रन्थों से ली गईं लोकप्रिय कहानियों को सुनाती हैं, तब वे अपने श्रोताओं के सामने अनेक प्रश्न भी उठा रही होती हैं. “अपनी कथाएं सुनाने के दौरान मैं हास्य का उपयोग भी करती हूं,” वे कहती हैं.
संगीत की गहरी समझ, तकनीकों की अच्छी जानकारी और प्रस्तुति का उनका अपना लहजा, मीराबाई की गायिकी को विशिष्ट बनाता है. तुकडोजी महाराज, जो बड़े संत कवि और समाज सुधारक थे और विदर्भ और मराठवाडा में जिनके अनुयायी बड़ी तादाद में हैं - के पदचिन्हों पर चलते हुए और उनकी शैली का अनुसरण करते हुए मीराबाई ने भी अनेक उपलब्धियां हासिल कीं.
तुकडोजी महाराज कीर्तन गाने के दौरान खंजरी बजाय करते थे. उनके शिष्य सत्यपाल चिंचोलिकर सप्त-खंजरी बजाते हैं जिसमें सात खंजरियां अलग-अलग ध्वनियां और स्वर निकालती हैं. सांगली के देवानंद माली और सतारा के म्ह्लारी गजभारे भी इन्हीं वाद्यों को बजाते थे. लेकिन मीराबाई उमप खंजरी बजाने वालीं अकेलिन महिला कलाकार हैं, और वह भी इतने कौशल के साथ.
लातूर के शाहीर रत्नाकर कुलकर्णी, जो गीत लिखते और डफ (डफली जैसा एक वाद्ययंत्र, जिसे प्रायः शाहीरों द्वारा बजाया जाता था) बजाते थे, ने उन्हें बहुत दक्षता के साथ खंजरी बजाते हुए देखा था और उनकी सुरीली आवाज़ पर भी गौर किया था. उन्होंने मीराबाई की मदद करने फ़ैसला किया और उनको शाहीरी (सामाजिक बदलावों के लिए गाए जाने वाले गीत) गाने के लिए प्रेरित किया. जब वे 20 साल की हो गईं, तब उन्होंने शाहीरी के क्षेत्र में अपना पहला क़दम बढ़ाया और बीड में आयोजित सरकारी कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुतियां दीं.
“सभी धार्मिक पुस्तकें मेरे दिल में दर्ज हैं. सभी कथाएं, सप्त:, रामायण, महाभारत, सत्यवान और सावित्री की कहानी, महादेव और पुराणों की सभी कथाएं और गीत मेरी ज़ुबान की नोक पर हैं,” वे कहती हैं. “मैंने राज्य के कोने-कोने में अपनी प्रस्तुतियां दी हैं, उन्हें सुनाया है और गाया है. लेकिन इससे मुझे कभी पूरी तृप्ति और संतोष नहीं मिला, और न इन गीतों को सुनकर लोगों को कोई नया रास्ता ही मिला.”
ये बुद्ध, फुल, शाहू, आंबेडकर, तुकडोजी महाराज और गाडगे बाबा थे जिन्होंने बहुजन समुदायों की सामाजिक दुर्दशाओं और समाज में व्याप्त बुराइयों के प्रति मीराबाई की भावनाओं को द्रवीभूत करने का काम किया. “विजयकुमार गवई ने मुझे पहला भीम गीत सिखाया और सार्वजनिक तौर पर जो पहला गीत मैंने प्रस्तुत किया वह वामनदादा कर्डक का था,” मीराबाई याद करती हुई कहती हैं.
पाणी वाढ गं माय, पाणी वाढ गं
लयी नाही मागत भर माझं इवलंसं गाडगं
पाणी वाढ गं माय, पाणी वाढ गं
मुझको पानी दे दो, सखी, मुझको पानी दे दो
ज़्यादा तो नहीं मांग रही, बस भर दो छोटी गाडग [मिट्टी का बर्तन] मेरी
मुझको पानी दे दो, सखी, मुझको पानी दे दो
“उस दिन से मैंने सभी पोथी पुराण [किताबी ज्ञान] को गाना बंद कर दिया और भीम गीत गाने लगीं. बाबासाहेब आंबेडकर के जन्मशती-वर्ष अर्थात 1991 से उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह भीम गीत के अनुरूप ढाल लिया और उन गीतों के माध्यम से बाबासाहेब के संदेशों को फ़ैलाने का काम करने लगीं. “लोगों ने भी इसे ख़ूब पसंद किया और उत्साह के साथ इसे सुना,” शाहीर मीराबाई कहती हैं.
शाहीर शब्द फ़ारसी के ‘शायर’ या ‘शाईर’ से बना है. महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाक़ों में शाहीरों ने शासकों का महिमामंडन करते हुए गीत लिखे और गाए हैं. इन गीतों को पोवाड़ा कहते हैं. अपने खंजरी के साथ आत्माराम साल्वे , हारमोनियम के साथ दादू साल्वे और अपने एकतारी (वीणा जैसा एक वाद्य) के साथ कडूबाई खरात जैसे शाहीरों ने अपने गीतों के माध्यम से दलितों को जागरूक करने का प्रयास किया. मीराबाई भी अपनी दिमडी के साथ महाराष्ट्र में सक्रिय कुछ महिला शाहीरों में शामिल हो गईं. दिमडी को अभी तक युद्ध के समय बजाया जाने वाला एक वाद्य ही माना जाता था और इसे आम तौर पर पुरुष बजाते थे. इस तरह से मीराबाई ने एक और परंपरा को तोड़ने का कम किया.
उनको गाते और बजाते हुए सुनना एक भिन्न तरह का अनुभव है. उनकी उंगलियां जब दिमडी की खाल के अलग-अलग हिस्सों पर थिरकती हैं, तब उनसे कई तरह की स्वरलहरियां निकलती हैं जो उनके विविध गायन - कीर्तन, भजन और पोवाड़ा को उनकी ज़रूरतों के मुताबिक़ लयबद्धता देती है. उनका अलाप धीरे-धीरे गति पकड़ता है, आवाज़ मानो आत्मा की भीतरी तहों से निकल रही हो और एक उन्मुक्त और एक सुस्पष्ट उत्साह के साथ प्रतिध्वनित होती है. यह उनका समर्पण ही है कि दिमडी और खंजरी की कला आज भी जीवित है और फलफूल रही है.
मीराबाई उन गिनी-चुनी महिला शाहीरों में हैं जो भारुड की प्रस्तुतियां देती हैं. इस लोक कला का उपयोग महाराष्ट्र के अनेक संत कवियों ने किया था. भारुड के दो प्रकार हैं - भजन भारुड जिसका संबंध धर्म और अध्यात्म से है, और सोंगी भारुड जिसमें पुरुष महिलाओं का वेश धरकर मंचों पर प्रस्तुतियां देते हैं. पोवाड़ा भी पुरुषों द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है और यह ऐतिहासिक और सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ भारुड पर आधारित होता है. लेकिन मीराबाई ने इन विभाजनों को चुनौती दी और पूरे जोश के साथ सभी प्रारूपों में अपनी कला को प्रस्तुत करने लगीं. उनका प्रदर्शन कई पुरुष कलाकारों की बनिस्बत अधिक पसंद किया जाता है, और वे अपने पुरुष समकक्षों से अधिक लोकप्रिय भी हैं.
दिमडी, गीतों, थियेटर और दर्शकों और श्रोताओं के लिए संदेश देना मीराबाई के लिए मनोरंजन से बड़ा उद्देश्य है.
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इस देश में किसी कला के बारे में राय बहुत हद तक उसके रचयिता की जाति पर आधारित या उससे संबंधित होता है. जब कोई व्यक्ति किसी दूसरी जाति के व्यक्ति के बारे में जानने के लिए कुछेक तरीक़ों का चुनाव करता है, तो उनमें संगीत और दूसरी कलाएं भी एक तरीक़े की तरह ही शामिल होती हैं. क्या कोई गैर दलित या गैर बहुजन कभी भी इन वाद्ययंत्रों के स्वर-लिपियों को समझ सकता है और इन्हें बजाना सीख सकता है? और, अगर कोई बाहरी आदमी दिमडी या संबल या एक ज़ुम्बरुक पर अपने हाथ आज़माना चाहे, तो इसके लिए कोई लिपिबद्ध व्याकरण नहीं है.
मुंबई विश्वविद्यालय में संगीत विभाग के छात्र खंजरी और दिमडी बजाने की कला सीख रहे हैं. सुप्रसिद्ध कलाकार कृष्णा मुसले और विजय चव्हाण ने थाप से बजने वाले इन वाद्ययंत्रों के लिए स्वर-लिपियां बनाई हैं. लेकिन विश्वविद्यालय में लोक कला अकादमी के निदेशक गणेश चंदनशिवे कहते हैं कि इन स्वर-लिपियों के साथ कुछ मुश्किलें भी हैं.
“आप दिमडी, संबल और खंजरी को उस तरह से नहीं सिखा सकते हैं, जैसे दूसरे शास्त्रीय वाद्ययंत्रों को सिखाया जाता है,” वे बताते हैं. “उन वाद्यों के संकेत चिह्न के आधार पर केवल कोई तबला बजाना सीख या सिखा सकता है. लोगों ने उन्हीं संकेत चिह्न को आज़मा कर दिमडी या यहां तक की संबल भी सिखाने की कोशिश की, लेकिन इनमें से किसी भी वाद्य के पास अपना कोई संगीतविज्ञान नहीं है. किसी ने इन यंत्रों को एक शास्त्रीय यंत्र का दर्जा देते हुए उनके संकेत चिह्न को लिखने या उनका ‘विज्ञान’ विकसित करने का प्रयास नहीं किया,” वे समस्या की तह तक जाते हुए कहते हैं.
मीराबाई ने दिमडी और खंजरी में जो दक्षता हासिल की है, उसमें किसी विज्ञान, स्वर-लिपि या उसके वादन से संबंधित व्याकरण की कोई भूमिका नहीं है. जब उन्होंने इन्हें बजाना सीखा, वे नहीं जानती थीं कि यह धा है कि ता है. लेकिन उनकी गति और ध्वनि तथा धुन से जुड़ी उनकी बारीकी शास्त्रीय वाद्ययंत्र बजाने में सिद्धहस्त किसी कलाकार से होड़ लेने में सक्षम है. यह उनका वाद्ययंत्र है, जिसपर उनका पूरा नियंत्रण है. लोक कला अकादमी में कोई भी मीराबाई के दिमडी बजाने के कौशल की बराबरी नहीं कर सकता है.
जैसे-जैसे बहुजन जातियां समाज के मध्यम वर्ग का हिस्सा बन रही हैं, वैसे-वैसे उनकी अपनी पारंपरिक कला और अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों की क्षति हो रही है. शिक्षा प्राप्त करने और आजीविका की तलाश के लिए शहरों की ओर अपने पलायन के कारण वे अपने पारंपरिक पेशे और कलाओं से दूर हो गए हैं. इन कला-रूपों का दस्तावेज़ीकरण करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि उनकी उत्पत्ति और लोकाचारों से जुड़े ऐतिहासिक और भौगोलिक संदर्भों को समझा जा सके, और इससे जुड़े प्रश्नों का समाधान निकाला जा सके. उदाहरणार्थ क्या जातिगत संघर्ष के विभिन्न पक्ष, अथवा उनकी अन्य चुनौतियां को अभिव्यक्ति के उपयुक्त माध्यम मिले हैं? यदि हां, तो किन रूपों में उनकी अभिव्यक्ति हुई है? जब इन प्रारूपों पर अकादमिक तरीक़े से सोचा जाए, तो विश्वविद्यालय या शिक्षण संस्थान ऐसी कोई दृष्टि विकसित करते हुए नहीं दिखते हैं.
हर जाति की अपनी एक ख़ास लोक कला होती है, और इन लोक कलाओं का पूरा ख़ज़ाना हमें चमत्कृत करता है. इस ख़ज़ाने और परंपरा को सुरक्षित रखने और उनका अध्ययन करने के लिए एक प्रतिबद्ध शोधकेंद्र की बहुत आवश्यकता है. दुर्भाग्य से, यह आवश्यकता किसी भी गैर-ब्राह्मण अभियान के एजेंडे का हिस्सा नहीं है. लेकिन मीराबाई इस स्थिति को बदलना चाहती हैं. “मैं एक ऐसा संस्थान शुरू करना चाहती हूं, जहां युवा छात्र खंजरी, एकतारी और ढोलकी बजाने की कला सीख सकें,” वे कहती हैं.
उन्हें इस काम के लिए राज्य स्तर पर किसी तरह की सहायता नहीं मिली है. क्या उन्होंने इस संबंध में सरकार से कोई अपील की है? “क्या मुझ्रे लिखना और पढ़ना आता है”, वे उल्टा सवाल करती हैं. “मैं जब और जहां किसी कार्यक्रम में जाती हूं और अगर वहां मुझे कोई सरकारी अधिकारी मिल जाते हैं, तो मैं उनसे अनुरोध करती हूं कि वे इस सपने को पूरा करने में मेरी मदद करें. लेकिन आपको लगता है कि सरकार हाशिए के लोगों की इस कला को कोई महत्व देती है?”
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हालांकि, राज्य सरकार ने मीराबाई को आमंत्रित किया. जब मीराबाई की शाहीरी और गायिकी ने लोगों का ध्यान बड़े पैमाने पर अपनी ओर आकर्षित करना शुरू किया, तब महाराष्ट्र सरकार ने उनसे आग्रह किया कि वे राज्य द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न जागरूकता कार्यक्रमों और अभियानों में अपना योगदान दें. जल्दी ही वे स्वास्थ्य, नशामुक्ति, दहेज-विरोध और शराबबंदी जैसे सामाजिक मुद्दों पर तैयार किए गए छोटे प्रहसनों की प्रस्तुतियां देने के लिए राज्य के कोने-कोने में घूमने लगीं. इन प्रहसनों को तैयार करने में लोक संगीत की सहायता ली जाती थी.
बाई दारुड्या भेटलाय नवरा
माझं नशीब फुटलंय गं
चोळी अंगात नाही माझ्या
लुगडं फाटलंय गं
मेरा पति नशे का आदी
मेरे नसीब में ही ख़राबी
नहीं ब्लाउज का मिला कपड़ा
मेरी साड़ी हो गई चिथड़ा.
नशामुक्ति के मुद्दे पर उनके द्वारा बनाए गए जागरूकता कार्यक्रमों के कारण महाराष्ट्र सरकार ने उनको व्यसनमुक्ति सेवा पुरस्कार से पुरस्कृत किया. उन्हें आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने भी बुलाया गया.
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लेकिन इन सभी उद्देश्यपूर्ण कामों के बाद भी मीराबाई के लिए जीवन कभी आसान नहीं रहा. “मैं बेघरबार रही और किसी ने भी मेरी मदद नहीं की,” वे अपने दुर्भाग्य की ताज़ा कहानी सुनाती हुई बताती हैं. “लॉकडाउन के दौरान [2020] में मेरे घर में शोर्ट सर्किट के कारण आग लग गई. हम इतने विवश थे कि हमारे पास उस घर को बेच देने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. हम सड़क पर आ गए थे. आंबेडकर को मानने वाले अनेक लोगों ने इस घर को बनाने में मेरी मदद की,” वे अपने इस नए घर के बारे में वे बताती हैं जिसमें फ़िलहाल हम बैठे हुए हैं. इसकी दीवारें और छत टीन से बनी हैं.
यह स्थिति उस कलाकार की है जिसे अन्नाभाऊ साठे, बाल गन्धर्व और लक्ष्मीबाई कोल्हापुरकर जैसे दिग्गजों के नामों पर घोषित गौरवशाली पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. महाराष्ट्र की सरकार भी उनके सांस्कृतिक अवदानों के लिए उन्हें सम्मानित कर चुकी है. ये पुरस्कार कभी उनके घर की दीवारों की शोभा बढ़ाते थे.
“ये सिर्फ़ आंखों को सुख देते है, मैं बता रही हूं,” मीराबाई आंसुओं से छलकती हुई आंखों के साथ कहती हैं. “उन्हें देखकर आप अपना पेट नहीं भर सकते. कोरोना के दौरान हम भूखे मर रहे थे. उन दुःख के क्षणों में मुझे उन पुरस्कारों को लकड़ी की जगह जलाकर अपने लिए खाना पकाना पड़ा. भूख की ताक़त उन पुरस्कारों पर भारी पड़ी.”
उन्हें पहचान मिले या न मिले इस चिंता से मुक्त मीराबाई अपनी कला की राह पर पूरी दृढ़ता के साथ बढ़ रही हैं. महान सुधारकों की तरह उन्हें भी समाज में मानवता, प्रेम और करुणा संदेश फैलाना है. अपनी कला और प्रस्तुतियों के ज़रिए वे भी सांप्रदायिक और फ़िरकापरस्त ताक़तों को मात देना चाहती हैं. “मैं अपनी कला को बाज़ार की वस्तु नहीं बनाना चाहती हूं,” वे कहती हैं. “ अगर कोई इसका सम्मान करता है, तो यह कला है, अन्यथा यही कष्ट का कारण बन जाती है.”
मैंने अपनी कला की गरिमा को नहीं खोने दिया. पिछले 40 साल से मैं इस देश के अलग-अलग हिस्सों में घूमी हूं और कबीर, तुकाराम, तुकडोजी महाराज और फुले-आंबेडकर के संदेशों को फैलाया है. मैं उनके गीत गाती रही हूं. मेरी प्रस्तुतियां उनकी विरासत को जीवित रखने और आगे बढ़ाने का ही प्रयास हैं.
“मैं जीवन की अंतिम सांस तक भीम गीत गाती रहूंगी. मेरा जीवन इसी तरह समाप्त होगा और मुझे परम संतुष्टि भी इसी में प्राप्त होगी.”
इस स्टोरी में शामिल वीडियो, पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के सहयोग से इंडिया फ़ाउंडेशन फ़ॉर आर्ट्स द्वारा आर्काइव्स एंड म्यूज़ियम प्रोग्राम के तहत चलाए जा रहे एक प्रोजेक्ट ‘इंफ्लुएंशियल शाहीर्स, नैरेटिव्स फ्रॉम मराठावाड़ा’ का हिस्सा हैं. इस परियोजना को नई दिल्ली स्थित गेटे संस्थान (मैक्स मूलर भवन) से भी आंशिक सहयोग प्राप्त हुआ है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद और देवेश