क़रीब 65 साल की हो चुकीं किसान कमलाबाई गुढे को जब भी काम मिलता है, मज़दूरी कर लेती हैं और वह भी नक़दी के लिए नहीं, बल्कि अनाज के बदले. उन्हें इतना ही मिल पाता है. वह कई बार 12 घंटे तक काम करती हैं, केवल 25 रुपए के ज्वार के लिए. उनके पास अपनी साढ़े चार एकड़ ज़मीन है, जिस पर वह खेती करती हैं. जब कभी उनकी फ़सल अच्छी होती है, तो इसे जंगली जानवर खा जाते हैं, क्योंकि उनका खेत जंगल के बिल्कुल क़रीब है. कपास और सोयाबीन की फ़सल जितनी अच्छी होती है, जंगली सुअर और नीलगाय उसके ओर उतना ही आकर्षित होते हैं. खेत की घेराबंदी का मतलब है, उस पर 1 लाख रुपए ख़र्च करना. इतने पैसों के बारे में वह सोच भी नहीं सकतीं.
कमलाबाई उन 100,000 से ज़्यादा महिलाओं में से एक हैं, जिन्होंने 1990 के दशक से हो रही किसान आत्महत्याओं में अपने पति को खो दिया है. वह इस मसले से सबसे ज़्यादा प्रभावित रहे क्षेत्र विदर्भ में रहती हैं. उनका गांव लोणसावला, वर्धा ज़िले में पड़ता है, जो कि इस क्षेत्र के उन छह ज़िलों में शामिल है, जहां वर्ष 2001 से अब तक 6,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं.
ऋण के बोझ से लदे उनके पति पालसराम ने एक साल पहले आत्महत्या कर ली थी. इसके बाद वह किसी तरह जीवन व्यतीत करती रहीं, खेती करने की कोशिश कर रही हैं, एक ऐसे घर में रह रही हैं जिसकी आधी छत नहीं है और दो दीवारें गिरने की हालत में हैं. इस टूटी-फूटी झोपड़ी में पांच इंसान रहते हैं. इसमें उनका बेटा, बहू और दो पोते शामिल हैं. समाज की आंखों में कमलाबाई एक 'विधवा' हैं. लेकिन ख़ुद अपनी नज़रों में वह एक छोटी किसान हैं, जो अपना और अपने परिवार का पेट पालने की कोशिश कर रही हैं.
एक भूमिहीन दलित के पास अपना खेत कैसे हो सकता है? ठीक इतनी ही मुश्किल के साथ वह अपना जीवन व्यतीत कर रही हैं. कमलाबाई के जीवन का प्रत्येक क्षण संघर्षों से भरा रहा है. अपने जीवन का आरंभ उन्होंने 10-12 रुपए दिहाड़ी पर, एक खेतिहर मज़दूर के रूप में किया था. वह कहती हैं, ''उन दिनों यह एक बड़ी राशि हुआ करती थी.'' यह लगभग चार दशक पहले की बात है. अपनी इस आय में उन्होंने थोड़ी वृद्धि पशुओं का चारा इकट्ठा कर उन्हें किसानों को बेचकर की.
उनका बेटा भास्कर बताता है, ''मुझे याद है कि किस तरह मेरी मां घंटों चारा इकट्ठा करती थीं और इसे लगभग मुफ़्त में बेच दिया करती थीं.'' भास्कर खेती जारी रखने की कमलाबाई की योजना का हिस्सा हैं. वह हंसते हुए कहती हैं, ''एक मुट्ठी चारे के लिए मुझे दस पैसे मिलते थे. लेकिन मैं इसे बेचने के लिए बहुत सारा चक्कर लगाती थी, और रोज़ाना दस रुपए कमा लेती थी.'' उन्हें गिनती भी याद नहीं कि उन्होंने कितने किलोमीटर के चक्कर लगाए रोज़ाना सौ मुट्ठी चारा बेचने के लिए. हालांकि, उनकी रोज़ाना की 16-18 घंटे की मेहनत रंग लाई. अपनी इस मामूली आय से उन्होंने अपने पति के साथ कुछ पैसे बचाए और जंगल के किनारे एक ज़मीन खरीदी, जो कोई दूसरा नहीं ख़रीदता. यह लगभग 40 साल पहले की बात है. साढ़े चार एकड़ ज़मीन के लिए उन्होंने 12,000 रुपए चुकाए. इसके बाद परिवार ने ग़ुलाम की तरह इस कठोर ज़मीन पर खेती शुरू की. वह बताती हैं, ''मेरा एक दूसरा बेटा भी था, लेकिन उसकी मृत्यु हो गई.''
इस उम्र में कमलाबाई रोज़ाना लंबी-लंबी दूरियां पैदल तय करती हैं. ''क्या करें? खेत हमारे गांव से छह किलोमीटर दूर है. जब मुझे काम मिलता है, तो मैं एक मज़दूर के रूप में काम करती हूं. उसके बाद मैं खेत पर जाकर भास्कर और वनिता का हाथ बंटाती हूं.'' वह इतनी बूढ़ी हो चुकी हैं कि सरकारी परियोजना स्थलों पर उन्हें काम नहीं मिल सकता. वैसे भी, इन जगहों पर अकेली औरत और ख़ासकर विधवा महिलाओं को लेकर बहुत से पूर्वाग्रह होते हैं. इसलिए उन्हें जो भी काम मिलता है, उसे करने लगती हैं.
इस परिवार ने मिलकर खेत की अच्छी देखभाल की है. यह खेत देखने में अच्छा और उपजाऊ है. वह परिवार द्वारा मेहनत से बनाए गए इस बड़े कुएं की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, ''इस कुएं को देखिए. अगर हम सफ़ाई और मरम्मत कर लें, तो इससे हमें पर्याप्त पानी मिल सकता है.'' लेकिन, इसके लिए कम से कम 15,000 रुपए की ज़रूरत पड़ेगी. यह राशि उससे अलग है जो उन्हें खेत की घेराबंदी के लिए चाहिए, यानी 1 लाख रुपए. वे अपने खेत के निचले सिरे पर एक एकड़ ज़मीन को जलाशय में बदल सकते हैं. इसका मतलब होगा और पैसे ख़र्च करना. बैंक से ऋण लेना अब असंभव हो चुका है. और अपने गिरते हुए घर की मरम्मत के लिए उन्हें 25,000 रुपए अलग से चाहिए. वह बताती हैं, ''मेरे पति ने फ़सल बर्बाद होने के कारण आत्महत्या कर ली, जिसकी वजह से हम 1.5 लाख रुपए के क़र्ज़दार हो गए.” उन्होंने इसमें से कुछ राशि चुका दी है और परिवार का गुज़ारा राज्य सरकार से मुआवजे के तौर पर मिले 1 लाख रुपए से हुआ. लेकिन पैसे देने वाले अभी भी परेशानी खड़ी करते हैं. ''हमारा सबकुछ ठीक चल रहा था. लेकिन, हमारी फ़सलें कई वर्षों तक बर्बाद होती रहीं, जिसकी वजह से हमें भारी नुक़सान उठाना पड़ा.''
लाखों अन्य लोगों की तरह ही उनका परिवार भी दशकों से कृषि संकट से प्रभावित रहा है. बीज और उर्वरक आदि की लगातार बढ़ती क़ीमत, उत्पादन की गिरावट, पैसे की कमी, सरकारी सहायता न मिलना इत्यादि ने उनके जीवन को कठिन बना दिया है. वह कहती हैं, ''यही हाल गांव के अन्य लोगों का भी है.” पिछले साल भी पूरी फ़सल बर्बाद हो गई थी. उन्हें काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा, क्योंकि भास्कर ने बीटी कपास लगाई थी. वह कहती हैं, ''हमें केवल दो क्विंटल की उपज मिले.”
सरकार ने इस नुक़सान को और बढ़ा दिया. पिछले साल के अंत में, राज्य सरकार ने उन्हें ''राहत पैकेज'' से ''लाभ'' लेने के लिए चुना. इसके तहत कमलाबाई को 'आधा जर्सी' गाय ख़रीदने के लिए मजबूर किया गया, जबकि वह उसे ख़रीदना नहीं चाहती थीं. हालांकि, सरकार की ओर से इसमें काफ़ी सब्सिडी दी गई, लेकिन उन्हें इसके लिए अपने हिस्से में से 5,500 रुपए भुगतान करने पड़े. उन्होंने हमें बताया, “मवेशी ने परिवार के हम सभी लोगों की तुलना में कहीं अधिक चारा खाया.” (द हिंदू; 23 नवंबर, 2006). और ''उसने बहुत कम दूध दिया.''
अपनी ही चीज़ के बदले किराया भरना
इसके बाद से ही, ''मैंने गाय को दो बार लौटा दिया, लेकिन वह उसे हमारे पास फिर से लेकर आ जाते हैं.” वह यह कहते हुए इसे दूसरों को दे देती हैं कि ''हम इसका पेट नहीं पाल सकते.'' इसलिए अब ''इस मवेशी की देखभाल करने के बदले अपने पड़ोसी को हर महीने 50 रुपए दे रही हूं.'' एक तरह से अपनी ही चीज़ के बदले किराया भरना. समझौता यह हुआ है कि अगर गाय ने दूध देना शुरू कर दिया, तो उन्हें इसका आधा हिस्सा मिलेगा. यह तब संभव है, जब भविष्य में सारा काम उनकी उम्मीद के अनुसार हो. फ़िलहाल तो कमलाबाई इस गाय की देखभाल के लिए पैसे का भुगतान कर रही हैं, जो सरकार ने उन्हें इस वादे के साथ दिया था कि गाय उनकी देखभाल करेगी.
लेकिन, अभी तक उन्होंने आशा नहीं खोई है. वह काम न मिलने पर अभी भी अपने खेत पर जाने के लिए हर रोज़ लंबी दूरी तय करती हैं. आज उनके छोटे लेकिन ऊर्जावान पोते उनके साथ चल रहे हैं. उनके जीवन और भविष्य को संवारना ही कमलाबाई को लगातार काम करने के लिए प्रेरित करता है. हमेशा की तरह, आज भी वह सिर उठा के चल रही हैं, लेकिन उन्हें (पोतों को) देखने के बाद वह अपने आंसुओं को रोक नहीं पाती हैं. कमलाबाई का मानना है कि आत्महत्या के बाद मरने वाला तो चला जाता है, लेकिन जीवित लोग पीछे रह जाते हैं; ज़िंदा लोगों से जुड़ा है आत्महत्या का मसला. और वह उनके लिए संघर्ष कर रही हैं.
यह लेख सर्वप्रथम 21 मई, 2007 को द हिंदू में प्रकाशित हुआ था.
अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़