तमाम क़ब्रों के पत्थरों पर ख़ूबसूरती से उकेरी हुई एक पंक्ति मिलती है, "हर नफ़्स को मौत का मज़ा चखना है." यह पंक्ति किसी भविष्यवाणी के तौर पर नहीं लिखी दिखती, बल्कि दिल्ली के सबसे बड़े क़ब्रिस्तानों में से एक, जदीद अहल-ए-इस्लाम में क़ब्रों के ज़्यादातर यादगारी पत्थरों पर दर्ज होती है.
यह पंक्ति — كُلُّ نَفْسٍ ذَائِقَةُ الْمَوْتِ – क़ुरान की एक आयत है और इस क़ब्रिस्तान की उदासी में शांति और ठहराव जोड़ती है. इस बीच एक और एंबुलेंस अंदर आती है और जिसकी मौत हुई है उसके परिजन नमाज़-ए-जनाज़ा (आख़िरी प्रार्थना) पढ़ते हैं. जल्द ही वैन खाली हो जाती है, और लाश क़ब्र की जगह ले लेती है. एक मशीन फिर क़ब्र को पाटने लगती है.
बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग पर मौजूद मीडिया कंपनियों की इमारतों के बगल में स्थित, इस क़ब्रिस्तान के एक कोने में 62 साल के निज़ाम अख़्तर, क़ब्र के पत्थरों पर मरने वालों के नाम लिखते हुए मिलते हैं. निज़ाम उन्हें मेहराब के नाम से पुकारते हैं. अपनी उंगलियों के बीच नाज़ुक ढंग से परकज़ा (लिखने के लिए इस्तेमाल होने वाला ब्रश) को पकड़कर, वह नुक़्ता लगाते हैं - नुक़्ता उर्दू के कुछ ख़ास अक्षरों पर लगने वाला एक बिंदु है, जिससे उनको अपना उच्चारण मिलता है. निज़ाम जो शब्द लिख रहे हैं वह है 'दुरदाना.' यह कोरोना की शिकार हुई एक इंसान का नाम है.
निज़ाम वास्तव में क़ब्र के पत्थरों पर, बारीक और मुश्किल लिखावट में नाम और बाक़ी ब्यौरों वाले टेक्स्ट को पेंट कर रहे हैं. बाद में उनका सहकर्मी हथौड़े और छीनी की मदद से पत्थर पर टेक्स्ट को सटीक अंदाज़ में उकेरेगा. ऐसा करने पर पेंट गायब हो जाता है.
यह कातिब (लिखने वाला या लिपिक) जिनका नाम निज़ाम है, 40 से भी ज़्यादा सालों से क़ब्र के पत्थरों पर मरने वालों के नाम उकेर रहे हैं. निज़ाम बताते हैं, "मुझे याद नहीं है कि मैंने क़ब्र के कितने पत्थरों पर काम किया है. अप्रैल और मई के हालिया महीनों में, मैंने लगभग 150 ऐसे लोगों के नाम लिखे जो कोरोना की वजह से मारे गए थे, और लगभग इतने ही उन मृतकों के नाम लिखे जिनकी मौत कोरोना से नहीं हुई थी. हर दिन, मैं तीन से पांच पत्थरों को तैयार करता हूं. किसी पत्थर के एक तरफ़ लिखने में लगभग एक घंटे का समय लगता है.” वह भी उर्दू में. पत्थर के दूसरी तरफ़, आम तौर पर मरने वाले का नाम सिर्फ़ अंग्रेज़ी में लिखा जाता है. वह मुस्कुराते हैं और बेहद मुलायम अंदाज़ में मेरे नोट बनाने का मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं, "यह कुछ सेकेंड के अंदर एक पेज भर देने जैसा आसान काम नहीं है."
महामारी की शुरुआत से पहले, जदीद में हर रोज़ एक या दो पत्थर ही लिखाई के लिए आते थे. अब हर रोज़ चार से पांच आते हैं, काम का बोझ 200 फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ चुका है. यह काम चार मज़दूरों में बंट रहा है. इस हफ़्ते, वे कोई नया ऑर्डर नहीं ले रहे हैं. फ़िलहाल, लगभग 120 पत्थर ऐसे हैं जिन पर आधा काम हुआ है और 50 पत्थरों पर अभी काम शुरू होना बाक़ी है.
यह व्यवसाय बूम कर रहा है, लेकिन इससे जुड़े लोगों का दिल इस बात से टूट जाता है. इस क़ब्रिस्तान में काम करने वाले मोहम्मद शमीम कहते हैं, "बहुत सारे इंसानों की मौत हो गई है, और उनके साथ इंसानियत की भी. मौत का ऐसा मंज़र देखकर मेरा दिल रोता है." शमीम अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी से हैं, जो इस क़ब्रिस्तान में काम कर रही है.
निज़ाम मौत का ज़िक्र करते हुए किसी दार्शनिक की तरह कहते हैं, "ज़िंदगी का यह सच कि जो लोग इस धरती पर पैदा हुए वे जीते हैं, मौत के उस आख़िरी सच की तरह ही है कि सब मर जाएंगे. लोग गुज़र जाते हैं और मुझे क़ब्र के पत्थर तैयार करने को मिलते रहते हैं. लेकिन, मैंने पहले कभी ऐसा मंज़र नहीं देखा था."
व्यवसाय में यह तेज़ी इस बात के बावजूद देखी जा रही है कि हर परिवार क़ब्र के लिए पत्थर नहीं बनवाता. कुछ लोग इसका ख़र्च नहीं उठा पाते हैं. वे सिर्फ़ लोहे के बोर्ड से काम चलाते हैं जिस पर टेक्स्ट को पेंट कर दिया जाता है, और इसकी क़ीमत भी बहुत कम होती है. कई क़ब्रों पर कोई पहचान नहीं होती. निज़ाम कहते हैं, "कई बार दफ़नाने के 15 से 45 दिन बाद क़ब्र के पत्थर तैयार करने का ऑर्डर आता है." निज़ाम के सहकर्मी और हरियाणा के फरीदाबाद जिले के बल्लभगढ़ के रहवासी आसिम पत्थर तराशने का काम करते हैं. आसिम (उनके अनुरोध पर बदला हुआ नाम) कहते हैं, “हम जो भी ऑर्डर लेते हैं उसके लिए परिवार को कम से कम 20 दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता है.”
35 साल के आसिम को बीते साल तक कोरोना के होने पर शक़ था, पर अब उन्हें कोरोना वायरस के होने पर भरोसा हो गया है. वह कहते हैं, "लाशें झूठ नहीं बोलतीं. मैंने इतनी लाशें देख ली हैं कि मेरे पास अब कोरोना को मान लेने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा. ऐसे हालात पैदा हो गए कि लोगों को अपने परिवार के सदस्यों के लिए ख़ुद ही क़ब्र खोदनी पड़ीं. कभी-कभी क़ब्र खोदने वाले कम पड़ जाते हैं"
क़ब्रिस्तान को चलाने वाली कमेटी के केयरटेकर ने हमें बताया, “महामारी शुरू होने से पहले तक, इस क़ब्रिस्तान में आम तौर पर लगभग चार से पांच लाशें हर रोज़ आती थीं. एक महीने में लगभग 150.”
इस साल, सिर्फ़ अप्रैल और मई के महीनों में ही, क़ब्रिस्तान में 1,068 शव दफ़्न होने के लिए आए. इनमें से 453 मौतें कोरोना से हुई थीं और 615 दूसरी वजहों से. ख़ैर, यह क़ब्रिस्तान का आधिकारिक आंकड़ा भर है. यहां काम करने वाले मज़दूर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि संख्या शायद इससे 50 फ़ीसदी तक ज़्यादा है.
आसिम कहते हैं, "एक औरत अपने डेढ़ साल के बच्चे के साथ क़ब्रिस्तान आई थी. उसका पति दूसरे राज्य से मज़दूरी करने इस शहर में आया था, जिसकी मौत कोरोना की वजह से हो गई थी. उस औरत का यहां कोई अपना नहीं था. दफ़नाने से जुड़ी सारी व्यवस्था हमने की थी. अपने पिता की क़ब्र पर मिट्टी वह बच्चा डाल रहा था.” अगर कोई बच्ची मर जाती है, तो वह अपने मां-बाप के दिल में दफ़्न होती है: ऐसी एक पुरानी कहावत है. जब एक बच्ची को मां-बाप की क़ब्र पर मिट्टी देनी पड़े, तो इस मंज़र के लिए कोई कहावत है क्या?
आसिम और उनका परिवार भी कोरोना की चपेट में आ गया था. उन्हें, उनकी दोनों पत्नियों और उनके मां-बाप को कोरोना के सभी लक्षणों का सामना करना पड़ा. हालांकि, उनके पांचों बच्चे सुरक्षित रहे. परिवार में कोई भी टेस्ट कराने के लिए नहीं गया था, लेकिन सभी बच गए. पत्थर की स्लैब पर काम करते हुए आसिम कहते हैं, "मैं अपना परिवार चलाने के लिए यहां पत्थर तोड़ता हूं." जदीद अहल-ए-इस्लाम में हर महीने 9,000 रुपए की तनख़्वाह पाने वाले आसिम सैकड़ों मरने वालों के लिए नमाज़-ए-जनाज़ा (आख़िरी प्रार्थना) भी पढ़ चुके हैं. इनमें, कोरोना से हुई मौतें और दूसरी वजहों से हुई मौतें, दोनों शामिल हैं.
आसिम
कहते हैं, "मेरा परिवार मुझे यहां काम करने के लिए बढ़ावा देता है, क्योंकि जो
लोग आख़िरी यात्रा में किसी इंसान की सेवा करते हैं उन्हें बाद की दुनिया में ईनाम मिलता
है." निज़ाम के परिवार ने भी उन्हें यहां काम करने के लिए बढ़ावा दिया था और वे
भी इस बात में यक़ीन करते हैं. दोनों ही शुरुआत में इस नौकरी से डरते थे, लेकिन जल्द
ही उनका डर जाता रहा. आसिम कहते हैं, "जब कोई लाश ज़मीन पर पड़ी होती है, तब आप
डर के बारे में नहीं, बल्कि दफ़नाने के बारे में सोचते हैं."
जदीद अहल-ए-इस्लाम में, क़ब्र का पत्थर तैयार करवाने में 1500 रुपए ख़र्च होते हैं. इसमें से निज़ाम को 250 से 300 रुपए मिलते हैं, जो उनकी लिखावट, यानी किताबत के लिए दिया जाता है. वह पत्थर के जिस स्लैब पर काम करते हैं वह लगभग 6 फ़ीट लंबा और 3 फ़ीट चौड़ा होता है. इसमें से, 3 फ़ीट लंबे और 1.5 फ़ीट चौड़ाई वाले 4 पत्थर काटकर निकाले जाते हैं. इसके बाद, हर पत्थर के ऊपरी हिस्से को गुंबद का आकार दिया जाता है. जब यह पूरी तरह तैयार हो जाता है, तो उसे ही मेहराब कहा जाता है. कुछ लोग संगमरमर का भी इस्तेमाल करते हैं. पत्थर की जगह लोहे का बोर्ड इस्तेमाल करने वालों को 250 से 300 ही ख़र्च करने होते हैं. यह मेहराब पर होने वाले ख़र्च के लगभग छठवें हिस्से के बराबर है.
हर ऑर्डर लेने के बाद, निज़ाम उस परिवार के किसी सदस्य से काग़ज़ पर, साफ़-सुथरी भाषा में सभी ज़रूरी ब्यौरे लिखने को कहते हैं. इसमें आम तौर पर मरने वाले का नाम, पति या पिता का नाम (औरतों के मामले में), पैदाइश और मौत की तारीख़, और पता शामिल होता है. इसके अलावा, क़ुरान की कोई आयत भी शामिल होती है, जिसे परिवार पत्थर पर दर्ज कराना चाहता है. निज़ाम बताते हैं, "इससे दो मक़सद पूरे होते हैं. पहला, रिश्तेदारों को मृतक का नाम लिखने को मिलता है; और दूसरा, इसके ज़रिए किसी भी ग़लती से बचने में मदद मिलती है.” कई बार टेक्स्ट में कोई शे'र भी शामिल होता है, जैसा नीचे दिया गया है. यह शे'र, जहान आरा हसन की क़ब्र के पत्थर पर लिखा जाएगा, जिसे बनवाने का ऑर्डर हाल ही में उनके परिवार ने दिया है.
अब्र-ए-रहमत
उनकी मरक़द पर गुहर-बारी करे
हश्र
तक शान-ए-करीमी नाज़ बरदारी करे.
निज़ाम ने साल 1975 में किताबत का काम शुरू किया था. उनके पिता पेंटर थे और साल 1979 में उनकी मौत हो गई थी. इसके बाद, निज़ाम ने क़ब्र के पत्थरों पर लिखने का काम शुरू किया. वह कहते हैं, “मेरे पिता एक कलाकार थे, लेकिन मैंने उनसे कुछ नहीं सीखा. मैंने सिर्फ़ उन्हें पेंटिंग करते हुए देखा. मुझे यह कला एक ख़ूबसूरत तोहफ़े की तरह अपने-आप मिल गई.”
साल 1980 में निज़ाम ने दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज से उर्दू में ग्रेजुएशन किया था. उन्होंने अपना काम शुरू किया और एक सिंगल स्क्रीन मूवी थिएटर, जगत सिनेमा के सामने एक दुकान खोली. किसी ज़माने में पाकीज़ा और मुग़ल-ए-आज़म जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में दिखाने वाल यह थिएटर अब स्थायी रूप से बंद हो चुका है. निज़ाम ने साल 1986 में नसीम आरा से शादी की. इस माहिर कैलीग्राफ़र ने कभी अपनी बीवी को ख़त नहीं लिखा. उन्हें इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी. वह जब भी अपने मां-बाप के पास जाती थीं, तो जल्द ही वापस आ जाती थीं, क्योंकि उनका घर पड़ोस में ही था. इनके एक बेटा, एक बेटी और छह पोते-पोतियां हैं. वे पुरानी दिल्ली में जामा मस्ज़िद के पास रहते हैं.
"उस ज़माने में, मैं मुशायरों [उर्दू कविता की महफ़िल], सम्मेलनों, विज्ञापनों, सेमिनारों, धार्मिक और राजनीतिक सभाओं के लिए होर्डिंग पेंट करता था." उन्होंने अपनी दुकान पर मेहराब पेंट करने का ऑर्डर भी लिया. दुकान पर काफ़ी मात्रा में विरोध प्रदर्शनों से जुड़े मैटेरियल, बैनर, होर्डिंग, और तख़्तियां भी बनने आती थीं.
उनका कहना है कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 80 के दशक के बीच में बाबरी मस्ज़िद के ताले खोलने की मंज़ूरी दी थी. निज़ाम बताते हैं, “इसके विरोध में मुस्लिम समुदाय और अन्य बहुत से लोग बड़े पैमाने पर प्रदर्शन कर रहे थे. मैं कपड़े पर आंदोलन के बैनर और विरोध का आह्वान करने वाले पोस्टर बनाता था. साल 1992 में बाबरी को गिराए जाने के बाद, आंदोलन धीरे-धीरे मरता गया. लोगों में [विध्वंस के ख़िलाफ़] गुस्सा था, लेकिन अब वह कम ही बाहर आता था." उनका मानना है कि समाज में, उस तरह की राजनीतिक गतिविधियां कम होती गईं जिसमें इस तरह के काम की ज़रूरत पड़ती. वह आगे कहते हैं, “मैंने आठ लोगों को काम पर रखा था. उन सभी को धीरे-धीरे यह काम छोड़ना पड़ा. मेरे पास उन्हें देने के लिए पैसे नहीं थे. वे अब कहां हैं, मुझे नहीं मालूम. इस बात से मुझे दुख होता है.”
निज़ाम हंसते हुए कहते हैं, “साल 2009-10 के दौरान, गले में संक्रमण के कारण मैंने अपनी आवाज़ खो दी और लगभग 18 महीनों के बाद केवल आधी आवाज़ ही वापस हासिल कर सका. मुझे समझने के लिए यह काफ़ी है." उसी साल निज़ाम की दुकान बंद हो गई थी. वह कहते हैं, "लेकिन, मैंने मेहराब पर नाम लिखना कभी बंद नहीं किया."
“जैसे ही कोरोना भारत में आया, इस क़ब्रिस्तान के मज़दूरों को मेरी सेवाओं की ज़रूरत थी और मैं उन्हें मना नहीं कर सकता था. मैं पिछले साल जून में यहां आ गया था. मैं यहां इसलिए भी आया, क्योंकि मुझे अपना परिवार चलाना था.” निज़ाम का बेटा जामा मस्ज़िद के पास जूते की छोटी सी दुकान चलाता है. लेकिन महामारी और लॉकडाउन की वजह से उसकी कमाई बहुत घट गई है.
साल 2004 में बंद हुए जगत सिनेमा की तरह, निज़ाम को उस दौर की बाक़ी चीज़ें भी अब तक याद हैं. वह साहिर लुधियानवी की शायरी से प्यार करते हैं, और उनके लिखे गीत सुनते हैं. जिस साल निज़ाम ने ग्रैजुएशन का इम्तिहान पास किया था उसी साल इस महान शाएर का निधन हो गया था. साहिर का लिखी उनकी पसंदीदा लाइन है: ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों.’ दूसरे शब्दों में कहें, तो ज़िंदगी और मौत की आपस में कभी बोलचाल नहीं रही.
निज़ाम कहते हैं, “पहले ऐसे कलाकार हुआ करते थे जो उर्दू में लिख सकते थे. अब ऐसे लोग आते हैं जो पत्थरों पर हिंदी और अंग्रेज़ी में लिख सकते हैं. दिल्ली में अब मुश्किल से कोई मिलता है, जो मेहराब पर उर्दू में नाम लिख सके. सियासत ने ऐसा मिथ फैलाकर कि यह केवल मुस्लिमों की ज़बान है, उर्दू को बुरी तरह चोट पहुंचाई है और इसे बर्बाद कर दिया है. उर्दू कैलीग्राफ़ी की दुनिया में पहले के मुक़ाबले, अब रोज़गार बहुत कम बचा है.”
निज़ाम जिस मेहराब पर काम कर रहे थे उस पर किताबत पूरा करने के बाद, पेंट को थोड़ी देर सूखने के लिए छोड़ देते हैं. इसके बाद आसिम, सुलेमान, और नंदकिशोर इसे तराशने का काम करेंगे. 50 से ज़्यादा वसंत देख चुके नंदकिशोर 30 से ज़्यादा सालों से इस क़ब्रिस्तान में काम कर रहे हैं. वह पत्थरों को काटने और हथौड़े और छीनी से तराशकर उन्हें गुंबद का आकार देने में माहिर हैं. वह इस काम के लिए मशीन का इस्तेमाल नहीं करते. वह कहते हैं, "इस क़ब्रिस्तान ने कभी इतनी भयानक स्थिति नहीं देखी जितनी आज है."
नंदकिशोर कोरोना से मरने वालों की क़ब्र के लिए पत्थर नहीं तराशते. वह अल-जदीद के दूसरे कोने में इस उम्मीद के साथ बैठते हैं कि ऐसा करके वह वायरस से बच जाएंगे. वह बताते हैं कि "मुझे हर रोज़ एक पत्थर के लिए 500 रुपये मिलते हैं, जिसे मैं तराशता, काटता, धोता, और पूरा करता हूं. ये अंग्रेज़ों के ज़माने का क़ब्रिस्तान है." जब मैं सवालिया अंदाज़ में कहता हूं कि अंग्रेज़ों ने हमारे लिए सिर्फ़ क़ब्रिस्तान ही तो छोड़े थे?, तो नंदकिशोर हंस देते हैं.
नंदकिशोर बताते हैं, “उन्हें क़ब्रिस्तान में काम करता देखकर, कभी-कभी कुछ लोगों को हैरत होती है. ऐसे मौकों पर मैं केवल उनके चेहरों को देखता हूं और मुस्कुरा देता हूं; मुझे समझ नहीं आता कि क्या बोलूं. हालांकि, कभी-कभी मैं उनसे कह देता हूं: 'मैं आपके लिए क़ुरान की आयतें तराशता हूं. आपने मुसलमान होने के बावजूद यह काम अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं किया.' फिर वे मुझे शुक्रिया कहते हैं, मुझ पर भरोसा करते हैं, और मुझे यहां अपने घर जैसा महसूस होता है." नंदकिशोर के तीन बच्चे हैं, जो उत्तरी दिल्ली के सदर बाज़ार में रहते हैं.
वह कहते हैं, “क़ब्रों के अंदर दफ़्न लोग मेरे अपने जैसे हैं. जब मैं यहां से बाहर क़दम रखता हूं, तो दुनिया मुझे अपनी नहीं लगती. यहां मुझे सुकून मिलता है."
दो महीने पहले यहां एक नए बंदे को काम पर रखा गया था. उनका नाम पवन कुमार है और वह बिहार के बेगूसराय जिले से आते हैं. उनकी पत्नी और तीन बच्चे बिहार वापस चले गए हैं. 31 साल के पवन भी यहां पत्थर काटते हैं. पत्थर काटने वाली एक छोटी सी मशीन की मदद से 20 स्लैब काटने के बाद वह कहते हैं, "मेरा चेहरा लाल हो गया है." पत्थर काटते वक़्त उड़ने वाली धूल उनके पूरे शरीर पर बैठ गई है. वह बताते हैं, “कोरोना हो या न हो, अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुझे साल भर काम करना पड़ता है. यहां, मुझे कभी-कभी एक दिन के 700 रुपये मिल जाते हैं.” पहले उनके पास कोई स्थायी रोज़गार नहीं था, और नंदकिशोर व शमीम की तरह ही उन्हें कभी स्कूल जाने का मौका नहीं मिला.
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के रहने वाले, 27 साल के आस मोहम्मद भी यहां मज़दूरी करते हैं. वह ऑलराउंडर हैं और क़ब्रिस्तान के हर काम में हाथ बंटाते हैं. वह यहां क़रीब छह साल से काम कर रहे हैं. आस के परिवार ने उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में रहने वाले एक दूर के रिश्तेदार की बेटी से उनकी शादी तय की थी.
आस बताते हैं, "मुझे उससे प्यार हो गया था. पिछले साल लॉकडाउन के दौरान, कोरोना से उसकी मौत हो गई." इसके बाद उनके परिवार ने एक और रिश्ता देखा था. इस साल मार्च में लड़की ने रिश्ता ठुकरा दिया, क्योंकि वह ऐसे आदमी से शादी नहीं करना चाहती थी जो क़ब्रिस्तान में काम करता हो.
आस कहते हैं, “दुखी होकर, मैंने ज़्यादा काम करना शुरू कर दिया. ज़्यादा संख्या में क़ब्रें खोदने लगा, ज़्यादा पत्थर काटने लगा. मैं अब शादी नहीं करना चाहता.” वह बोलते हुए भी स्लैब काट रहे हैं. वह भी सिर से पांव तक धूल में सने हुए हैं. उन्हें हर महीने 8,000 रुपये मिलते हैं.
पास में, पीले रंग की एक तितली क़ब्रों के आस-पास मंडरा रही है, जैसे तय न कर पा रही हो कि क़ब्र पर चढ़े फूलों को चूमे या क़ब्रों पर गड़े पत्थरों को.
मरने वालों की यादें उकेरने वाले निज़ाम कहते हैं: “जिनकी मौत होती है वे तो मर जाते हैं. अल्लाह की मदद से, मैं ही उन्हें आख़िरी बार उनका नाम देता हूं. दुनिया को बताता हूं कि यहां कोई था, किसी का प्यारा." उनके ब्रश जिनके सिरे सफ़ेद और काले पेंट में लिपटे हुए हैं, निज़ाम के इशारों पर मेहराब पर चलते हैं. वह आख़िरी शब्द के आख़िरी अक्षर पर नुक़्ता लगाते हुए, एक और पत्थर पर अरबी में वह आयत पूरी करते हैं: "हर नफ़्स को मौत का मज़ा चखना है."
शब्दावली:
नफ़्स : आत्मा, रूह
अब्र-ए-रहमत: दया के बादल (रहमत: दया, अब्र:
बादल)
मरक़द: क़ब्र
गुहर-बारी: मोतियों की बारिश
हश्र: हालत
शान-ए-करीमी: दयालु ईश्वर का वैभव
बरदारी: सहना, बोझ उठाना
अनुवाद:
देवेश