गूगल मैप से मुझे पता चलता है कि मैं अपने गंतव्य तक पहुंच रहा हूं. लेकिन जितना मुझे याद है, यह इलाक़ा कुछ बदला-बदला सा लग रहा है. समुद्र किनारे अब पुराने खंडहर जैसा वह घर नहीं दिख रहा जिसका पता मैंने पिछली बार उप्पडा आने पर अपने फ़ोन में सहेजा था. टी. मरम्मा बंगाल की खाड़ी से आती एक लहर की ओर इशारा करते हुए लापरवाह ढंग से बताती हैं, "अरे, वह घर? अब तो वह समुद्र के पानी में चला गया. देखो, वहां!"
मुझे अभी भी वह पुराना उजड़ा सा घर याद है, जो देखने में बेहद ख़ूबसूरत मगर उदास सा नज़र आता था. मार्च 2020 में तालाबंदी होने से कुछ हफ्तों पहले जब मैं उप्पडा गया था, वहां मैंने मरम्मा और उसके घरवालों की तस्वीरें ली थीं, उनकी पृष्ठभूमि में वही घर था. समुद्र तट के एक संकरे से हिस्से में बने इस लंबे-चौड़े घर का छोटा सा ही हिस्सा सलामत बचा था, जहां पहले मरम्मा का परिवार [2000 के दशक के शुरुआती वर्षों तक] रहता था.
मरम्मा की उम्र यही कोई 50 से 60 वर्ष के बीच है और वह एक स्थानीय नेता हैं. वह पहले मछलियों का व्यापार करती थीं. वह बताती हैं, "यह 8 कमरों की एक बड़ी इमारत थी, जहां [जानवरों के] तीन बाड़े थे. यहां क़रीब सौ लोग रहते थे." 2004 की सुनामी से ठीक पहले उप्पडा में आए एक चक्रवात के कारण इमारत का एक बड़ा हिस्सा टूट गया, जिसके कारण उनके संयुक्त परिवार को अलग-अलग घरों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. मरम्मा कुछ सालों तक उस टूटे-फूटे घर का इस्तेमाल करती रहीं, बाद में वह उसके पास ही एक नए घर में रहने चली गईं.
ऐसा केवल मरम्मा और उसके परिवार के साथ नहीं हुआ है; उप्पडा में तक़रीबन सभी लोग समुद्री लहरों के उफ़ान के कारण कम से कम एक बार अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हुए हैं. अपना घर छोड़ने के लिए सही वक़्त का अनुमान लगाने के लिए वे अपने अनुभवों को ध्यान में रखने के अलावा, स्थानीय समुदाय की समुद्री लहरों की परंपरागत समझ पर भी निर्भर करते हैं. ओ. शिव (14 वर्ष), जिन्हें समुद्री लहरों से बचने के लिए पहले ही एक बार घर छोड़ना पड़ा है, बताते हैं, "जब समुद्री लहरें आगे बढ़ने लगती हैं, तब हम समझ जाते हैं कि घर उनकी चपेट में आने वाला है. तब हम अपने बर्तन और बाक़ी सारा सामान एक तरफ़ कर देते हैं [और रहने के लिए किराए का एक अस्थाई मकान ढूंढ़ना शुरू कर देते हैं]. एक महीने के अंदर पुराना घर [समुद्र में] कहीं खो जाता है."
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पूर्वी गोदावरी ज़िले में स्थित और आंध्र प्रदेश की 975 किमी लंबी तट रेखा से लगा उप्पडा गांव बहुत लंबे समय से बढ़ते समुद्री तट के कटाव की समस्या से जूझ रहा है. यहां रहने वाले लोग बताते हैं कि उन्होंने जब से होश संभाला है, अपने गांव को इस ख़तरे का सामना करते हुए देख रहे हैं.
जब लगभग 50 साल पहले मरम्मा का परिवार उस समय के अपने नए घर में रहने गया, तो वह समुद्र तट से बहुत ज्यादा दूर था. ओ. चिन्नाबाई, जो शिव के दादा और मरम्मा के चाचा हैं, याद करते हुए बताते हैं, "जब हम तट से वापस घर लौटते थे, हमारे पैरों में बहुत ज़्यादा दर्द होता था." उम्र के 70 या 80वें पड़ाव पर खड़े चिन्नाबाई, समुद्र के गहरे तल से मछलियां पकड़ने वाले मछुआरे थे. उन्हें याद है कि उनके घर से लेकर तटरेखा तक ढेर सारे मकान, दुकानें और सरकारी इमारतें थीं. चिन्नाबाई दूर क्षितिज की ओर इशारा करते हैं, जहां कुछ जहाज शाम की रोशनी में गायब हो गए हैं, "वहां तट था."
मरम्मा याद करते हुए बताती हैं, "हमारे नए घर और समुद्र तट के बीच दूर-दूर तक रेत फैली हुई थी. जब हम छोटे थे, तब हम इन रेत के टीलों से गुज़रते थे, वहां खेलते थे."
उप्पडा की ये पुरानी यादें अब समुद्री लहरों में कहीं दफ़न हो चुकी हैं. 1989 से 2018 के बीच, उप्पडा की तटरेखा हर साल औसतन 1.23 मीटर संकुचित हुई है. विजयवाड़ा स्थित आंध्र प्रदेश अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र के शोधकर्ताओं ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि 2017-18 में, तट का कटाव 26.3 मीटर गहरा था. एक अन्य अध्ययन के अनुसार, पिछले चार दशकों में काकीनाडा क्षेत्र की लगभग 600 एकड़ ज़मीन समुद्री जल के कारण नष्ट हो गई है, इनमें से केवल उप्पडा गांव की बात करें, तो उसका एक चौथाई हिस्सा अब समुद्र की लहरों में गुम हो गया है - उप्पडा, काकीनाडा ज़िले के कोतापल्ली मंडल में स्थित एक गांव है. साल 2014 के एक अध्ययन में काकीनाडा के उत्तर में तट के किनारे रहने वाले मछुआरों के हवाले से कहा गया है कि पिछले 25 सालों में समुद्री तट कई सौ मीटर संकुचित हो गया है.
विशाखापत्तनम के आंध्र विश्वविद्यालय में जियो-इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर (सेवानिवृत्त) ककनी नागेश्वर राव कहते हैं कि “उप्पडा, जो काकीनाडा शहर के उत्तर में कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, में तटीय कटाव का मुख्य कारण होप आइलैंड का निर्माण है, जिसे वैज्ञानिक रूप से 'स्पिट' कहते हैं, जो सरल रेखीय आकार का 21 किमी लंबा एक रेत का ढांचा है. यह स्पिट प्राकृतिक रूप से निलारेवु नदी (गोदावरी की एक सहायक नदी) के मुहाने से शुरू होता है.” कई दशकों से आंध्र प्रदेश के तटीय रूपों और प्रक्रियाओं का बारीकी से अध्ययन कर रहे प्रोफेसर राव के मुताबिक़, “इस स्पिट से समुद्री लहरें अपवर्तित होकर उप्पडा तट पर टकराती हैं, जिससे उसका क्षरण होता है. संभवतः ऐसा एक सदी पहले से हो रहा है, 1950 के दशक से हम इस स्पिट को अपने वर्तमान स्वरूप में देख रहे हैं."
पुराने आधिकारिक आंकड़ों को टटोलें, तो 20वीं सदी की शुरुआत में ही उप्पडा की समस्या को पहचान लिया गया था. उदाहरण के लिए, 1907 के गोदावरी ज़िला गजट में कहा गया है कि 1900 से अब तक समुद्री लहरों ने उप्पडा में 50 गज से अधिक ज़मीन को नष्ट कर दिया है. दूसरे शब्दों में कहें तो, उन सात वर्षों में गांव ने हर साल अपनी सात मीटर ज़मीन खो दी.
डॉक्टर राव का कहना है, "चूंकि तटीय इलाक़े सामान्यतः गतिशील होते हैं, जो वैश्विक, क्षेत्रीय और स्थानीय घटनाओं के जटिल प्रभावों का सामना करते हैं. उप्पडा में हो रहे तटीय कटाव के बहुआयामी कारण हैं." बंगाल की खाड़ी में बढ़ते चक्रवाती तूफ़ानों के अलावा वैश्विक तापमान में वृद्धि, ध्रुवीय क्षेत्रों में ग्लेशियरों का पिघलना, और समुद्री जल-स्तर का बढ़ना, ये कुछ कारण हैं जिनके कारण तटीय कटाव की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है. गोदावरी बेसिन में बनाए जा रहे बांधों के कारण नदी के मुहाने पर तलछट की मिट्टी (गाद) कम होती जा रही है, जिससे यह समस्या और गंभीर होती जा रही है.
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जैसे-जैसे समुद्री लहरों के दबाव में उप्पडा की तटीय भूमि नष्ट होती जा रही है, वहां के निवासियों की यादों में उप्पडा अलग-अलग ढंग से जगह बना रहा है.
गांव वालों में से किसी ने मुझसे तेलुगू फ़िल्म नाकु स्वतंत्रम वाचिंदी देखने को कहा, ताकि मैं उप्पडा से जुड़ी पुरानी यादों और उसकी कहानियों की एक झलक देख सकूं. साल 1975 की उस फ़िल्म में उप्पडा गांव की एक दूसरी ही तस्वीर दिखाई देती है, जहां पर्याप्त दूरी तक फैली एक ख़ूबसूरत रेतीली तट रेखा गांव और समुद्र को एक-दूसरे से अलग करती है. फ़िल्म समुद्र और रेतीली तट रेखा को एक ही फ्रेम में दिखाती है, जहां तटरेखा इतनी चौड़ी थी कि कैमरा चालक दल वहां अलग-अलग कोनों से दृश्यों का फिल्मांकन कर सकता था. ये दृश्य फ़िल्म के महत्त्वपूर्ण हिस्सों में दिखाई पड़ते हैं.
68 वर्षीय एस. कृपाराव, जो उप्पडा के एक चर्च में पादरी हैं, कहते हैं, "मैंने फ़िल्म की शूटिंग देखी है. कुछ कलाकार, जो शूटिंग के लिए आए थे, वे यहां के गेस्ट हाउस में ठहरे थे. अब सबकुछ समुद्र में डूब चुका है. यहां तक कि गेस्ट हाउस भी."
साल 1961 में प्रकाशित हुई पूर्वी गोदावरी की ज़िला जनगणना पुस्तिका में एक गेस्ट हाउस का ज़िक्र किया गया है: "समुद्र तट से केवल एक फर्लांग (लगभग 200 मीटर) की दूरी पर यहां एक शानदार यात्री बंगला है, जहां कमरों के दो सुइट (साज-सज्जा युक्त कमरों का सेट) हैं. ऐसा कहा जाता है कि समुद्री लहरों से पुराने यात्री बंगले के नष्ट हो जाने के बाद इसे बनवाया गया था." इसलिए जहां ‘नाकु स्वतंत्रम वाचिंदी’ के कलाकार ठहरे थे, वह कम से कम दूसरा ऐसा बंगला था जो समुद्री लहरों के कारण नष्ट हो गया.
समुद्री लहरों की भेंट हुई कलाकृतियां और इमारती संरचनाएं अब अभिलेखों और स्थानीय लोगों की यादों का हिस्सा हैं, जिसे पीढ़ियों से सहेजकर रखा गया है. गांव के बुज़ुर्गों को याद है कि उनके दादा-दादी या माता-पिता समुद्र में डूबे एक बड़े पत्थर (पेड्ड रई) के बारे में कई साल तक बात करते रहे. साल 1907 के गजट में कुछ ऐसा ही लिखा हुआ मिलता है: “समुद्र में आधे मील की दूरी पर एक डूबे हुए खंडहर में मछुआरों के जाल फंस जाते हैं, और बच्चे ज्वार के समय सिक्कों की तलाश में तट पर आ जाते हैं, क्योंकि समुद्री लहरें अपने साथ ऐसी कुछ चीज़ें बहा ले आती हैं, जो शायद किसी डूबे हुए शहर के कारण समुद्र की गोद में बिखरी पड़ी हैं."
साल 1961 के हैंडबुक में भी इस खंडहर का उल्लेख मिलता है: "बूढ़े मछुआरों का कहना है कि जब वे मछली पकड़ने के लिए अपनी नावों और बेड़ों में जाते थे, तो तट से एक मील की दूरी पर उनके जाल इमारतों की नुकीली सतह या पेड़ों की शाखों में फंस जाते थे, और इसके अलावा उनकी परंपरागत जानकारी के अनुसार समुद्र उनके गांव को अपने कब्ज़े में लेता जा रहा है."
तब से लेकर वर्तमान तक गांव का एक बड़ा हिस्सा समुद्र की गोद में समा गया है. इसके लगभग सभी समुद्र तट, अनगिनत घर, कम से कम एक मंदिर और एक मस्ज़िद समुद्री लहरों के हवाले नष्ट हो चुके हैं. पिछले एक दशक में, समुद्री लहरों के कारण 1463 मीटर लंबा 'जियोट्यूब' भी क्षतिग्रस्त हो चुका है, जिसे 2010 में उप्पडा गांव को बचाने के लिए 12.16 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से बनवाया गया था. जियोट्यूब बड़े नलिका जैसी संरचना वाले कंटेनर होते हैं जो रेत और पानी के घोल के मिश्रण से भरे होते हैं, जिनका उपयोग तटरेखा संरक्षण और भूमि सुधार में किया जाता है. इसी गांव में रहने वाले 24 वर्षीय डी. प्रसाद, जो कभी-कभार मछली पकड़ने का काम करते हैं, कहते हैं, "पिछले पंद्रह सालों में, समुद्री लहरों की मार से दो वर्ग फ़ुट क्षेत्रफल वाले दो बड़े चट्टानी पत्थरों को मैंने छह इंच के कंकड़ों में बदलते देखा है."
उप्पेना साल 2021 में रिलीज हुई एक तेलुगू फ़िल्म है, जिसमें एक ऐसे समय की कल्पना की गई है, जब उप्पडा गांव को समुद्री लहरों से बचाने के लिए चट्टानों और पत्थरों को टिकाकर रखा गया है, और तटरेखा पूरी तरह नष्ट हो गई है. साल 1975 की फ़िल्म के ठीक विपरीत, समुद्र और गांव एक फ्रेम में दिखाने के लिए आसमान से (या विशिष्ट कोनों से) दृश्यों को फिल्माया गया, क्योंकि कैमरा रखने के लिए तटरेखा पर पर्याप्त जगह नहीं थी.
हालिया समय में उप्पडा की तबाही का शायद सबसे बड़ा कारण पिछले साल सितंबर महीने के आख़िर में आया चक्रवात गुलाब था, जब समुद्री लहरों ने कम से कम तीस घरों को लील लिया. फिर दिसंबर माह में आए चक्रवात जवाद ने उप्पडा-काकीनाडा सड़क को जर्जर कर दिया. यह एक नई सड़क थी, जिसे चक्रवात से आई तबाही ने यात्रा के लिहाज़ से असुरक्षित बना दिया.
इस चक्रवाती तूफ़ान के बाद समंदर ने विकराल रूप धारण किया, और अक्टूबर माह की शुरुआत में मरम्मा के परिवार के पुराने घर का बचा-खुचा अवशेष भी ढहकर समुद्री लहरों के साथ बह गया. लहरें मरम्मा के घर को भी बहा ले गईं, जहां वह और उसके पति रहते थे.
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मरम्मा साल 2021 में आई तबाही को याद करते हुए कांप जाती हैं, "चक्रवाती तूफ़ान गुलाब की तबाही के बाद हममें से कईयों को दूसरों के घरों के सामने बने ऊंचे चबूतरों पर सोना पड़ा."
साल 2004 के बाद से, जब उन्हें चक्रवाती तूफ़ान के चलते अपने पुश्तैनी घर को छोड़ना पड़ा, मरम्मा और उनके पति टी. बाबई (जो गहरे समुद्र में मछलियां पकड़ने वाले मछुआरे हैं) दो घरों में रह चुके हैं. पहले एक किराए के घर में, और उसके बाद अपने घर में. पिछले साल के चक्रवाती तूफ़ान में उनका घर बह गया. वर्तमान में, वे लोग पड़ोस में अपने एक रिश्तेदार के घर के बाहर एक चबूतरे पर खुले में रह रहे हैं.
मरम्मा कहती हैं, "एक समय था, जब हम 'धनी' थे [अपेक्षाकृत अच्छी आर्थिक स्थिति वाले थे और हमारी साख थी]." बार-बार के विस्थापन और पुनर्निर्माण के चलते वे परेशान थे ही, उसके साथ ही चार बेटियों की शादियों में हुए ख़र्च ने परिवार की बचत को पूरी तरह ख़त्म कर दिया.
एम. पोलेश्वरी यहां के एक मछुआरा परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं, वह भी मरम्मा की तरह तक़लीफ़ में हैं, "हमने अपना घर बनाने के लिए क़र्ज़ा लिया था, लेकिन हमारा घर तो डूब गया. हम फिर से क़र्ज़ लेकर घर बनवाएं, तो वह फिर से डूब जाएगा." पोलेश्वरी के अब तक दो घर समुद्री लहरों की भेंट चढ़ चुके हैं. वह अब एक तीसरे घर में रह रही हैं, और अपने परिवार की आर्थिक स्थिति तथा अपने पति की सुरक्षा को लगातार चिंतित रहती हैं, क्योंकि उनके पति गहरे समुद्र में मछलियां पकड़ने वाले मछुआरे हैं. "अगर उनके बाहर जाने पर चक्रवात आता है, तो उनकी मौत हो सकती है. लेकिन हम और कर ही क्या सकते हैं? समुद्र ही हमारे भरण-पोषण का एकमात्र ज़रिया है."
आय के अन्य स्रोत भी ख़त्म हो रहे हैं. प्रसाद याद करते हुए बताते हैं कि ज्वार के कम होने पर वह बचपन में अपने दोस्तों के साथ समुद्र तट पर सीपियां या केकड़े पकड़ने जाते थे, जिन्हें बेचकर वे अपना जेब ख़र्च जुटाते थे. रेतीले तटों के विलुप्त होते ही, सीपियां भी गायब हो गईं. जल्दी ही ख़रीदार भी बाज़ार से हट गए.
पोलेश्वरी अपने घर के बाहर धूप में सूखती हुईं पुरानी सीपियों को देखकर कहती हैं, "हमने इन सीपियों को जमा किया था, ताकि इन्हें बेच सकें. पहले यहां सीपियां ख़रीदने वाले काफ़ी लोग आते थे. अब तो वे भी कम आते हैं."
साल 2021 के चक्रवाती तूफ़ान के बाद मरम्मा और मछुआरा कॉलोनी के लगभग 290 अन्य लोगों ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी को पत्र लिखकर उन्हें अपने गांव में बढ़ते ख़तरे और संकट के प्रति आगाह किया. उनके पत्र में कहा गया, "इससे पहले श्री वाई.एस. राजशेखर रेड्डी गारु [पूर्व मुख्यमंत्री] ने मछुआरों के गांव उप्पडा से लगी तटरेखा पर बड़े-बड़े पत्थर रखवाए थे और गांव को समुद्र में डूबने से बचाया था. इन पत्थरों ने हमें आने वाले चक्रवाती तूफ़ानों और सुनामी से बचाया."
"अब चूंकि बार-बार चक्रवाती तूफ़ान आ रहे हैं, किनारों पर रखे पत्थर विस्थापित हो गए हैं, और तटरेखा नष्ट हो गई है. पत्थरों को बांधने वाली रस्सी भी कमज़ोर हो गई है. इसलिए, किनारे पर बने मकान और झोपड़ियां समुद्र में डूब रही हैं. समुद्र तट के किनारे रहने वाले मछुआरे दहशत में जी रहे हैं." इसके अलावा, उन्होंने पुराने पत्थरों को हटाकर नए बड़े पत्थरों को रखवाने की मांग भी की.
हालांकि, डॉ. राव के अनुसार, इस बात के पर्याप्त सबूत नहीं हैं कि इन चट्टानों से समुद्री लहरों को रोका जा सकता है. ज़्यादा से ज़्यादा इन्हें एक अस्थाई समाधान कहा जा सकता है, क्योंकि समुद्र का अतिक्रमण जारी है. वह कहते हैं, "अपने घरों को बचाने की कोशिश मत करो. तट को बचाओ. क्योंकि इससे ही तुम्हारे घर बचेंगे. समुद्र में अपतटीय बाधाओं के ज़रिए उप्पडा में तटीय क्षरण को रोका जा सकता है. उदाहरण के लिए, जापान में बड़ी-बड़ी पत्थर जैसी संरचनाएं समुद्री लहरों के लिए गति अवरोधक का काम करती हैं, जिसके कारण काईके समुद्रतट पर आने वाली लहरों की गति मद्धम (धीमी) हो जाती है.”
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भले ही समुद्री अतिक्रमण के कारण गांव समुद्र के भीतर धंसता जा रहा है, लेकिन वहां हो रहे सामाजिक बदलावों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. उप्पडा हाथों से बनाई हुई अच्छी गुणवत्ता वाली सिल्क की साड़ियों के लिए मशहूर है. यहां के बुनकर समुदाय 1980 के दशक में तटीय इलाक़ों से हटकर गांव के अंदरूनी इलाक़ों में जाकर बस गए. वहां उन्हें सरकार ने कुछ ज़मीनें पट्टे पर दी थीं. धीरे-धीरे, गांव के संपन्न लोग, ख़ासकर उच्च जाति के लोग समुद्र से दूर जाकर बसने लगे. लेकिन मछुआरा समुदाय के पास वहां रहने के सिवा दूसरा कोई रास्ता नहीं था. क्योंकि समुद्र ही उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत है.
उच्च जातियां सुरक्षित क्षेत्रों की तलाश में तटीय इलाक़े को छोड़कर जा रही हैं, जिससे जाति व्यवस्था से जुड़ी प्रथाएं और व्यवहार कमज़ोर पड़ने लगे हैं. मिसाल के लिए, मछुआरा समुदाय पर उच्च जाति के लोगों और उनके उत्सवों के लिए अपना माल (मछलियां) मुफ़्त में देने का दबाव ख़त्म हो गया था. धीरे-धीरे, मछुआरा समुदाय ईसाई धर्म को अपनाने लगा. पादरी कृपाराव कहते हैं, "कई लोगों ने आज़ाद होने के लिए ईसाई धर्म को अपनाया." यहां के ज़्यादातर लोग बहुत ग़रीब हैं और मूल रूप से पिछड़ी जातियों के हैं. कृपाराव को ईसाई धर्म अपनाने से पहले कई तरह के जातिगत भेदभावों और अपमानों का सामना करना पड़ा.
चिन्नाबाई के बेटे, ओ. दुर्गय्या कहते हैं, "20 से 30 साल पहले ज़्यादातर गांववाले हिंदू थे. गांववाले स्थानीय देवी के उत्सव को हर साल मनाते थे. अब गांव में ज़्यादातर लोग ईसाई हैं." कॉलोनी के लोग 1990 के दशक से पहले देवी की प्रार्थना के लिए सप्ताह में एक दिन गुरुवार को छुट्टी लेते थे, अब चर्च जाने के लिए हर रविवार छुट्टी लेते हैं. गांववालों का कहना है कि कुछ दशक पहले तक उप्पडा में कुछ मुसलमान भी रहते थे, लेकिन गांव की मस्ज़िद के डूबने के बाद उनमें से बहुत लोग वहां से चले गए.
गांव में बचे रह गए लोगों के लिए समुद्र ख़तरनाक होने के बावजूद उनकी आजीविका का स्रोत है, और वही ज़िंदगी के सबक भी देकर जा रहा है. के. कृष्णा नाम के एक मछुआरे ने मुझे बताया, "ख़तरा तो पहचाना जा सकता है. पत्थरों से एक ख़ास तरह की 'घोल्लूघोल्लू' जैसी आवाज़ आने लगती है. पहले, हम सितारों को देखकर लहरों का अनुमान लगाते थे, वे कुछ अलग ढंग से चमकने लगते थे. अब मोबाइल फ़ोन हमें ये सब बता देता है." मैं उनसे 2019 में अपनी पहली यात्रा के दौरान मिला था. उनकी पत्नी के. पोलेरू कहा, "कभी-कभी जब खेतों की ओर से पूर्वी हवा बहती है, तो मछुआरों की ज़रा भी आमदनी नहीं होती [उन्हें एक भी मछली नहीं मिलती]." हम मछुआरा कॉलोनी के किनारे बनी उनकी झोपड़ी से समुद्री लहरों को देख रहे थे. साल 2021 में आए चक्रवात गुलाब के कारण उनकी झोपड़ी टूट गई, और तब से वे एक दूसरी झोपड़ी में रहने लगे हैं.
इस बीच मरम्मा अपने रिश्तेदार के घर के बाहर चबूतरे पर रहने के लिए मजबूर हैं. उनकी आवाज़ की कंपकंपी से उनकी तक़लीफ़ और उनके नुक़सान का साफ़ पता चलता है. वह कहती हैं, "यह समुद्र हमारे दो घरों को खा चुका है; मैं नहीं जानती कि हम एक और घर बना सकेंगे या नहीं."
अनुवाद: प्रतिमा