बांस की बनी छोटी सी झोपड़ी में मोहिनी कौर एक खाट पर कपड़ों के ढेर के बीच बैठी हैं, इन कपड़ों को उन्हें सिलना है या उनके नाप को बदलना है. नई दिल्ली के स्वरूप नगर में रहने वाली 61 वर्षीय मोहिनी कौर पिछले साल नवंबर में सिंघु बॉर्डर पर आई थीं. वह कहती हैं, "मैं सिलाई में बहुत अच्छी नहीं हूं, लेकिन जितना कर सकती हूं, उतना करती हूं. मैं यहां आंदोलन कर रहे किसानों की सेवा करने आई थी. वे हमारे अन्नदाता हैं; यही एक चीज़ थी, जो मैं उनके लिए कर सकती थी." मोहिनी एक बार भी अपने घर वापस नहीं गईं, जब तक किसान संगठनों ने इस साल 9 दिसंबर को आंदोलन वापस नहीं ले लिया.
जब सिंघु (दिल्ली-हरियाणा सीमा क्षेत्र) पर एक कार्यकर्ता के रूप में उनके काम की ख़बर पंजाबी अख़बार अजीत में छपी, तो पंजाब का एक पाठक मोहिनी कौर से प्रेरित होकर दिल्ली में उनकी मदद करने चला आया. इस साल जुलाई को, 22 साल के युवा हरजीत सिंह, मोहिनी कौर के पास उनकी झोपड़ी में साथ काम करने चले आए.
पंजाब के लुधियाना ज़िले के खन्ना शहर में हरजीत की अपनी एक सिलाई की दुकान है. उनके पिता एक किसान हैं, जो अपने चार एकड़ की ज़मीन पर धान, गेंहू, और मक्के की फ़सल उगाते हैं. "मैं अपनी दुकान को दो कारीगरों के हवाले करके, इस साल जुलाई में मोहिनी जी की मदद करने आया था. यहां इतना सारा काम था; वह सबकुछ अकेले नहीं कर सकती थीं."
एक खाट और मेज़ के अलावा, दो सिलाई मशीन और एक पंखे के कारण झोपड़ी में किसी आवाजाही के लिए बहुत कम जगह रह गई थी. ज़मीन पर एक छोटे से सिलिंडर वाला चूल्हा दूध गर्म करने के लिए रखा हुआ था. मोहिनी या हरजीत से बात करने के लिए एक बार में कोई एक व्यक्ति ही अंदर जा सकता था. उनके "ग्राहक", किसान और आंदोलन स्थल पर मौजूद अन्य लोग, वहीं दरवाज़े के पास खड़े थे.
काम की मेज़ के एक कोने पर नए कपड़ों का बंडल रखा हुआ था. मोहिनी एक आदमी से बात कर रही थीं, जो एक ख़ास कपड़े के बारे में कुछ पूछ रहा था, "यह शुद्ध सूती कपड़ा है, इसका क़ीमत बाज़ार मूल्य जितनी ही है. मैं सिंथेटिक कपड़ा नहीं रखती. यह 100 रुपए प्रति मीटर का थान है." वह अपने ग्राहकों से केवल कपड़ों का मूल्य लेती हैं, लेकिन उनकी सिलाई बिल्कुल मुफ़्त होती है. अगर लोग उन्हें सिलाई के कुछ पैसे देते हैं, तो वह मना नहीं करतीं.
मोहिनी कौर ने 1987 में बेंगलुरु में एक नर्स के रूप में प्रशिक्षण लिया था. कुछ साल तक उन्होंने नर्स के रूप में काम भी किया, लेकिन मां बनने पर उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी. वह अब अकेली ही रहती हैं, उनके पति की 2011 में मौत हो गई थी. उनकी विवाहिता बेटी दिल्ली (दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र) के द्वारका इलाक़े में रहती है. पांच साल पहले, मोहिनी कौर ने चिकन पॉक्स की गंभीर बीमारी के चलते अपना युवा बेटा खो दिया, जिसकी उम्र अभी 25 साल भी नहीं थी. वह कहती हैं, "अपने बेटे को खो देने की तक़लीफ़ का सामना करना आसान नहीं रहा है. इसलिए, मैंने सोचा कि मैं किसानों की मदद करूंगी. यहां मुझे लगातार काम करने की प्रेरणा मिलती रहती है और मैं अकेला भी महसूस नहीं करती." हरजीत उन्हें मां कहते हैं. अपने गले में इंच टेप लटकाए वह बड़ी सहजता से कहते हैं, "मैं अब उनका बेटा हूं."
26 नवंबर को, सिंघु बॉर्डर के आंदोलन स्थल पर सजा मंच, किसानों (पुरुष और महिलाओं दोनों) की प्रार्थनाओं, भाषणों, गीतों, और तालियों से गूंज रहा था, जो आंदोलन की पहली वर्षगांठ के उपलक्ष्य में वहां इकट्ठा हुए थे. लेकिन मोहिनी और हरजीत, कपड़ा नापने, काटने, और सिलाई मशीन चलाने में व्यस्त थे. वे केवल खाने और रात में सोने के समय अपने काम से अवकाश लेते थे. मोहिनी झोपड़ी के भीतर ही सोती थीं और हरजीत वहां से कुछ दूर अपने ट्रैक्टर पर सोते थे.
वे केवल खाने और रात में सोने के समय अपने काम से अवकाश लेते थे. मोहिनी झोपड़ी के भीतर ही सोती थीं और हरजीत वहां से कुछ दूर अपने ट्रैक्टर पर सोते थे
मोहिनी और हरजीत किसानों के आंदोलन स्थल पर डंटे रहने तक अपने सिलाई का काम जारी रखना चाहते थे, और उन्होंने वैसा ही किया. मोहिनी कहती हैं, "सेवा से कभी दिल नहीं भरता."
9 दिसंबर, 2021 को किसान आंदोलन का 378वां दिन था, जब संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने घोषणा कर दी कि किसान दिल्ली सीमा क्षेत्र के आंदोलन स्थलों को खाली कर देंगे. वे पिछले साल कृषि क़ानूनों का विरोध करने के लिए धरना स्थल पर इकट्ठा हुए थे. इन क़ानूनों को एक अध्यादेश के रूप में 5 जून, 2020 को लाया गया था, जिसे 14 सितंबर को संसद में कृषि विधेयक के तौर पर पेश किया गया, और 20 सितंबर, 2020 को इन्हें अधिनियम के रूप में लागू कर दिया गया.
जितनी तेज़ी से इन्हें पारित किया गया था उतनी ही तेज़ी से 29 नवंबर 2021 को इन क़ानूनों को निरस्त कर दिया गया. ये क़ानून थे: मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता अधिनियम, 2020 ; कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 ; और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 .
किसान संगठनों ने 9 दिसंबर, 2021 को आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर दी, जब केंद्र सरकार ने उनकी अधिकांश मांगों को स्वीकार कर लिया. लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (या एमएसपी) की क़ानूनी गारंटी हासिल करने के लिए बातचीत जारी रहेगी.
सिंघु बॉर्डर से क़रीब चालीस किमी दूर पश्चिमी दिल्ली के टिकरी बॉर्डर पर, डॉक्टर साक्षी पन्नू पूरे हफ़्ते हर रोज़ सुबह 9 बजे से दोपहर 3 बजे तक एक हेल्थ क्लीनिक चलाती रहीं. उन्होंने बताया, "औसतन हर रोज़ क़रीब सौ से ज़्यादा मरीज़ मेरे पास आते हैं. ज़्यादातर सर्दी और बुख़ार की दवा मांगते हैं. कुछ को मधुमेह और उच्च रक्तचाप की समस्या है. आंदोलन शिविर में रहते हुए अक्सर कई लोगों का पेट ख़राब हो जाता है."
जब नवंबर में हम साक्षी से मिले, तो उनके क्लीनिक पर मरीज़ों की बड़ी लंबी क़तार लगी होती थी. वह एक मरीज़ से खांसी की दवा के लिए अगले दिन आने को कह रही थीं, क्योंकि उस दिन उनके पास दवाई ख़त्म हो चुकी थी. क्लीनिक के लिए दवाइयों और उपकरणों का प्रबंध, हरियाणा के ग्रामीण इलाक़े में सक्रिय एक सामाजिक संगठन उज़मा बैठक ने किया था.
साक्षी ने कहा कि वह क्लीनिक को और भी लंबे समय तक खुला रखना चाहती थीं, लेकिन "मुझे अपने 18 महीने के बेटे वास्तिक के साथ घर पर कुछ समय बिताना होता है. मुझे उसकी देखभाल भी करनी चाहिए." वह इस साल अप्रैल से ही वहां काम कर रही हैं. जब वह क्लीनिक के कामों में व्यस्त होती हैं, तो उस दौरान उनके सास-ससुर अपने पोते को साथ लेकर आंदोलन स्थल पर प्रार्थना और बैठकों में हिस्सा लेते हैं, जो क्लीनिक से कुछ फ़ीट की दूरी पर स्थित है. वे लोग भी किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे थे.
उनके दादा जम्मू में एक किसान थे और उनके ससुराल वाले मूल रूप से हरियाणा के जींद ज़िले के झामोला गांव के रहने वाले हैं. साक्षी ने बताया, "हम अपनी मिट्टी से अब भी बहुत गहराई से जुड़े हुए हैं और हम किसानों की मांग और कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ उनके आंदोलन का पूरी तरह समर्थन करते हैं."
टिकरी सीमा स्थल से साक्षी का घर क़रीब पांच किमी दूर है, जो हरियाणा के बहादुरगढ़ क़स्बे में पड़ता है, जहां वह अपने बेटे वास्तिक, पति अमित, और उनके माता-पिता के साथ रहती हैं. 2018 में नई दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री पूरा करने के बाद, साक्षी ने एक साल तक कॉलेज के अस्पताल में काम किया. अभी उन्होंने कुछ समय का अवकाश लिया है, ताकि अपने बेटे के थोड़ा बड़े हो जाने के बाद वह आगे मेडिकल क्षेत्र में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए पढ़ाई कर सकें.
साक्षी कहती हैं, "मैं हमेशा से आम लोगों के लिए कुछ करना चाहता थी. इसलिए जब किसान यहां टिकरी बॉर्डर पर इकट्ठा हुए, तो मैंने सोच लिया था कि मैं इस क्लीनिक पर आऊंगी और एक डॉक्टर के रूप में अपनी सेवाएं दूंगी. जब तक किसान धरना स्थल पर रहेंगे, तब तक मैं भी अपना काम करती रहूंगी."
किसानों को घर वापस जाने के लिए सामान बांधते देखकर, मोहिनी ख़ुशी से कहती हैं, "फ़तेह हो गई (हम जीत गए!)." वहीं साक्षी ख़ुशी से भावुक होकर कहती हैं, "आख़िरकार [किसानों की] साल भर की मेहनत रंग लाई." अपने मन में दृढ़ता से सेवा की भावना लिए, वह आगे कहती हैं, "मैं यहां तब तक रहूंगी, जब तक यहां से आख़िरी किसान भी घर नहीं लौट जाता."
लेखक, इस स्टोरी की रिपोर्टिंग में सहायता के लिए आमिर मलिक का धन्यवाद करती हैं.
अनुवाद: प्रतिमा