जीवनभाई बरिया ने विगत चार सालों में दो दफ़ा दिल का दौरा झेला था. पहली बार, साल 2018 में जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा था, तो संयोग से वह घर पर ही थे. उनकी पत्नी गाभीबेन उनको लेकर आनन-फानन में अस्पताल दौड़ी थीं. दूसरी बार, अप्रैल 2022 में हृदयाघात के दौरान वह अरब सागर में अपना ट्रॉलर (मछलियां पकड़ने वाली नौका, जिसके पिछले हिस्से में जाल लगे रहते हैं) चला रहे थे. उनकी छाती में अचानक बहुत तेज़ दर्द उठा था. ट्रॉलर पर सवार एक साथी ने स्टीयरिंग संभाली और दूसरे मछुआरों ने घबराहट में उन्हें नीचे लिटाया. उस वक़्त वे किनारे से कोई पांच घंटे दूर थे. जीवनभाई अपने प्राण त्यागने से पहले दो घंटे से ज़्यादा वक़्त तक उस स्थिति में जूझते रहे.
गाभीबेन का सबसे बड़ा डर अंततः सच्चा साबित हुआ था.
पहली बार दिल का दौरा पड़ने के साल भर बाद, जब जीवनभाई ने दोबारा काम पर लौटने का फ़ैसला किया, तो गाभीबेन इस फ़ैसले को लेकर बहुत अधिक उत्साहित नहीं थीं. उन्हें पता था यह एक जोखिम भरा काम था. जीवनभाई को भी यही लगता था. वह मद्धिम रौशनी के बीच अपनी झोपडी में बैठी हुई कहती हैं, “मैंने उन्हें मना भी किया.” उनकी यह झोपड़ी गुजरात के अमरेली ज़िले के छोटे से तटीय शहर जाफ़राबाद में है.
शहर के अधिकतर लोगों की तरह ही 60 साल के जीवनभाई मछली पकड़ने के सिवा कोई दूसरा काम नहीं जानते थे. इस काम से उन्हें सालाना 2 लाख रुपयों की आमदनी होती थी. क़रीब 55 वर्षीया गाभीबेन कहती हैं, “पिछले 40 सालों से वह यही काम कर रहे थे. दिल का दौरा पड़ने के बाद जब उन्होंने एक साल आराम किया, तब मैं किसी तरह अपने घर का पेट भरने करने के लिए मज़दूर के रूप में दूसरे मछुआरों के लिए मछलियां सुखाने का काम करती थी. जब उन्हें लगा कि अब वह स्वस्थ हो चुके हैं, तब उन्होंने काम पर जाने का फ़ैसला किया था.”
जीवनभाई एक ट्रॉलर पर काम करते थे, जिसका मालिक जाफ़राबाद का एक बड़ा मछुआरा था. मानसून के मौसम को छोड़कर साल के शेष आठ महीने तक छोटे मछुआरे इन्हीं ट्रॉलरों को लेकर 10-15 दिनों की ट्रिप पर अरब सागर में निकल जाते हैं. अपने साथ वे दो हफ़्ते के लिए खाने का सामान और पीने के लिए पर्याप्त पानी भी ले जाते हैं.
गाभीबेन कहती हैं, “आकस्मिक सेवाओं के अभाव के होते हुए समुद्र में कई-कई दिनों के लिए नावों पर दूर निकल जाना बेहद असुरक्षित है. लेकिन उनके पास प्राथमिक-उपचार के एक किट के सिवा कुछ भी नहीं होता है. दिल के मरीज़ों के लिए तो यह काम बहुत जोखिम भरा है.”

गुजरात के अमरेली ज़िले के तटीय शहर जाफ़राबाद में स्थित अपने घर पर दिवंगत पति जीवनभाई की तस्वीर के साथ गाभीबेन
गुजरात की तटवर्ती सीमा किसी भी दूसरे भारतीय राज्य की तुलना में अधिक लंबी है. यह लगभग 1,600 किलोमीटर लंबी है, और 13 ज़िलों और 39 तालुकों से होकर गुज़रती है. देश के समुद्री उत्पादन का 20 प्रतिशत हिस्सा गुजरात से ही आता है. राज्य के 1,000 से ज़्यादा गांवों के कोई 5 लाख से भी अधिक लोग मत्स्यपालन के रोज़गार में हैं. यह आंकड़ा मत्स्यपालन आयुक्त के वेबसाइट पर उपलब्ध है.
इनमें से अधिकतर लोग चार महीने या उससे भी अधिक अवधि के लिए जब प्रति वर्ष समुद्र में होते हैं, तो स्वास्थ्य-सेवाओं से पूरी तरह वंचित रहते हैं.
अपने पहले हृदयाघात के बाद जब-जब जीवनभाई समुद्र में जाते थे, गाभीबेन गहरी चिंता और तनावों में घिर जाती थीं. उम्मीद और डर के बीच वह अनेक रातें जाग कर काटती थीं, और छत पर लटके पंखे को एकटक देखती रहती थीं. जब जीवनभाई सुरक्षित लौट आते थे, तब उनकी जान में जान आती थी.
फिर एक दिन वह समंदर में गए, तो जीवित नहीं लौटे.
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अगर गुजरात सरकार ने उच्च न्यायालय से पांच साल पहले किया गया वायदा निभाया होता, तो शायद जीवनभाई की क़िस्मत कुछ और हो सकती थी.
अप्रैल 2017 में जाफ़राबाद के समुद्रतट से दूर शियाल बेट नाम के एक द्वीप के निवासी 70 साल के जंदूरभाई बालधिया ने गुजरात उच्च न्यायालय में बोट एंबुलेंस की पुरानी मांग के पक्ष में एक जनहित याचिका दायर की थी. इस याचिका में उनके सलाहकार 43 वर्षीया अरविन्दभाई खुमान थे, जो अहमदाबाद स्थित एक ग़ैरसरकारी संगठन सेंटर फ़ॉर सोशल जस्टिस (सामाजिक न्याय केंद्र) से संबद्ध कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक वकील भी हैं. यह संगठन वंचित समुदायों के अधिकारों के लिए काम करता है.
याचिका में यह दावा किया गया था कि राज्य सरकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित मछुआरों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का, जो मूल रूप से नागरिकों की आजीविका के अधिकार को सुनिश्चित करता है, का उल्लंघन कर रही है.
याचिका में ‘वर्क इन फिशिंग कन्वेंशन, 2007’ का भी उद्धरण दिया गया था, जो “व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा और चिकित्सीय सुविधाओं के सन्दर्भ में न्यूनतम आवश्यकताओं” का उल्लेख करता है.

जाफ़राबाद के समुद्र तट पर खड़े 55 वर्षीय जीवनभाई शियाल कहते हैं कि मछुआरे अपनी यात्रा शुरू करने से पहले मौन प्रार्थना करते हैं
अगस्त 2017 में उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा पर्याप्त आश्वासन मिलने के बाद याचिका को निष्पादित कर दिया. राज्य की तरफ़ से उपस्थित होने वाली मनीषा लवकुमार ने न्यायालय के समक्ष अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करते हुए कहा कि राज्य “मछुआरों और तटीय इलाक़ों में रहने वाले नागरिकों के अधिकारों के प्रति अत्यधिक सचेत है.”
महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने अपने आदेश में उल्लेख किया है कि राज्य सात बोट एंबुलेंसों की ख़रीद करेगी, जो 1,600 किलोमीटर की तटीय सीमाओं में “किसी भी आकस्मिक स्थिति से निपटने के लिए आवश्यक उपकरणों से लैस” होगी.
इस बात को पांच साल बीत चुके हैं, लेकिन मछुआरे अभी भी स्वास्थ्यसंबंधी आकस्मिकताओं का सामना करने के लिए अभिशप्त हैं. वायदे के विपरीत सात में से केवल दो बोट एंबुलेंस की ही अभी तक आपूर्ति हो सकी है. उनमें से एक ओखा और दूसरी पोरबन्दर में हैं.
जाफ़राबाद से 20 किलोमीटर उत्तर के एक छोटे से शहर राजुला में रहने वाले अरविंदभाई बताते हैं, “तटरेखा के एक बड़े हिस्से में अभी तक कोई सुविधा नहीं हैं. पानी पर चलने वाले एंबुलेंस दरअसल स्पीडबोट होते हैं, जो मछली पकड़ने वाले ट्रॉलर से दोगुनी गति में दूरी तय कर सकते हैं. हमें ऐसे ही एंबुलेंसों की ज़रूरत है, क्योंकि मछुआरे इन दिनों किनारों के आसपास नहीं घूमते हैं.”
जीवनभाई को जिस दिन जानलेवा दिल का दौरा पड़ा था, तब वह समुद्रतट से कोई 40 नॉटिकल मील या तक़रीबन 75 किलोमीटर दूर थे. क़रीब 20 साल पहले तक मछुआरे शायद ही समुद्र में इतनी दूर तक निकलते थे.
गाभीबेन बताती हैं, “जब उन्होंने मछली पकड़ने का काम शुरू किया था, तो पांच से आठ नॉटिकल मील के भीतर उन्हें पर्याप्त मात्रा में मछलियां मिल जाती थीं. किनारे से समुद्र में इतनी दूर जाने में एक से दो घंटे का वक़्त लगता था. उसके बाद से स्थिति लगातार बदतर होती गई. अब तो हमें कई बार समुद्र तट से दस से बारह घंटों की यात्रा कर बहुत दूर तक जाना पड़ता है.”

गाभीबेन तनाव और चिंता से घिरे उस वक़्त को याद करती हैं, जब जीवनभाई पहली बार दिल का दौरा पड़ने के बाद समुद्र में जाते थे. गुजरात के अधिकांश मछुआरे समुद्र में रहने के दौरान स्वास्थ्य-सेवाओं से पूरी तरह वंचित रहते हैं
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मछुआरों को समुद्र में इतनी दूर तक जाने के लिए मजबूर करने वाली दो वजहें हैं - निरंतर बढ़ता हुआ तटीय प्रदूषण, और मैन्ग्रोव वनों का ख़ात्मा.
‘नेशनल फिशवर्कर्स फोरम’ के सचिव उस्मान गनी बताते हैं कि पूरी तटरेखा पर अंधाधुंध औद्योगिक प्रदूषण के कारण समुद्री पारिस्थिकी पर भयानक दुष्प्रभाव पड़ा है. वह कहते हैं, “तटीय क्षेत्रों में पानी की गंदगी के कारण मछलियां भी किनारों से दूर साफ़ पानी की तरफ़ चली गई हैं. मछुआरे भी इसी वजह से समुद्र में दूर तक जाने के लिए मजबूर हैं. जितनी दूर वे समुद्र में जाते हैं उनके लिए आकस्मिक सेवाएं उतनी ही दुर्लभ होती जाती हैं.”
स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट रिपोर्ट (एसओई), 2013 के अनुसार गुजरात के 58 बड़े उद्योग राज्य के तटवर्ती ज़िलों में स्थित हैं. इनमें अन्य उद्योगों के अतिरिक्त रासायनिक, पेट्रोरासायनिक, धातु और इस्पात जैसे उद्योग भी हैं. इनके अलावा, 822 खदान और 3156 उत्खनन के पट्टे भी हैं. चूंकि, यह रिपोर्ट 2013 में प्रकाशित हुई है, इसलिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह मानना है कि इनकी मौजूदा संख्या इससे कहीं अधिक होगी.
रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि राज्य के 70 प्रतिशत से भी अधिक ऊर्जा-उत्पादन की परियोजनाएं भी 13 तटवर्ती ज़िलों में ही सीमित हैं, जबकि शेष 30 प्रतिशत परियोजनाएं बाक़ी बचे 13 ज़िलों में हैं.
बड़ौदा के एक पर्यावरण-कार्यकर्ता रोहित प्रजापति कहते हैं, “अधिकांश उद्योग पर्यावरणीय नियमों की जमकर धज्जियां उड़ाते हैं. हरेक उद्योग अपना मलबा प्रत्यक्ष रूप से अथवा नदियों के माध्यम से समुद्र में ही छोड़ता है. गुजरात में प्रदूषित नदियों की संख्या भी लगभग 20 है. उनमें से अधिकांश नदियां अरब सागर में जाकर मिलती हैं.
गनी बताते हैं कि तटवर्ती इलाक़ों में विकास के नाम पर सरकार ने मैन्ग्रोव वनों में भी ख़तरनाक छेड़छाड़ की है. वह यह बताना भी नहीं भूलते हैं, “मैन्ग्रोव वन, तटों को सुरक्षित रखने के साथ-साथ मछलियों के अंडे देने के लिए भी स्वच्छ और सुरक्षित जगह माने जाते हैं. लेकिन गुजरात के तटवर्ती जगहों में जहां कहीं भी व्यापारिक उद्योग स्थापित किए गए हैं, वहां इन मैन्ग्रोव वनों को बेरहमी से काट डाला गया है. ऐसे में मैन्ग्रोव वनों के अभाव में मछलियां तट के क़रीब नहीं आती हैं.”


जाफ़राबाद के तट पर खड़ी एक नाव पर जीवनभाई शियाल बैठे हुए हैं. यहां शहर के मछुआरा समुदाय द्वारा मछलियों की क़तारें (दाएं) सुखाने के लिए रखी गई हैं
साल 2021 की इंडिया स्टेट ऑफ़ फ़ॉरेस्ट रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात के मैन्ग्रोव वन 2019 के बाद से 2 प्रतिशत सिकुड़ गए हैं, जबकि राष्ट्रीय आंकड़े को देखें तो इसी अवधि मैन्ग्रोव वनों में 17 प्रतिशत तक का इजाफ़ा दर्ज किया गया है.
रिपोर्ट यह भी रेखांकित करती है कि गुजरात के 39 में से 38 तटवर्ती तालुका तटीय क्षरण के मामले में अतिसंवेदनशील हैं. अगर मैन्गोव वनों का ख़ात्मा इस अंधाधुंध तरीक़े से नहीं होता, तो इस क्षरण से बचा जा सकता था.
प्रजापति कहते हैं, “मैन्ग्रोव वनों को बचाने में असफलता गुजरात के तटवर्ती क्षेत्रों में समुद्र के जलस्तर को बढ़ाने के कारणों में एक है. समुद्र उन कचरों को वापस तटों पर ले आता है जिन्हें हम इसमें विसर्जित करते हैं. प्रदूषण और उसके परिणाम-स्वरूप होने वाले मैन्ग्रोव वनों के नुक़सान के कारण राज्य के तटवर्ती क्षेत्रों का प्रदूषणमुक्त होना बहुत कठिन है.”
बहरहाल, मछलियों की तलाश में तटों से ख़ासे दूर पानी में निकलने को मजबूर मछुआरों को गहरे पानी की ताक़तवर लहरों, तेज़ हवाओं और अनिश्चित मौसम से होना तय है. सबसे अधिक नुक़सान ग़रीब मछुआरों का होता है, क्योंकि मछली पकड़ने के लिए वे जिन नौकाओं का इस्तेमाल करते वे आकार में निहायत छोटी होती हैं और प्रतिकूल मौसम की मार झेल पाने में असमर्थ होती हैं.
साल 2016 के अप्रैल महीने में सनाभाई शियाल की नाव समुद के बीच में जाकर टूट गई. तेज़ लहरों ने एक मामूली सी दरार को इतना चौड़ा कर दिया कि नाव में बहुत तेज़ी के साथ पानी भरने लगा. नाव पर सवार आठों मछुआरों ने दरार को बंद करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. मदद के लिए उनकी पुकार को भी किसी ने नहीं सुना, क्योंकि दूर-दूर तक कोई था. वे पूरी तरह से अपने हाल पर अकेले पड़ गए थे.
ऐसी स्थिति में नाव टूट कर बिखर गई और आख़िरकार डूबने लगी. कोई उपाय नहीं देखकर घबराए हुए मछुआरे समुद्र में कूद गए और टूटी हुई नाव की लकड़ी का जो भी हिस्सा मिला उसे पकड़ कर अपनी जान बचाने की कोशिश करने लगे. छह मछुआरे किसी तरह बच गए. दो मछुआरों को अपनी जान गंवानी पड़ी, जिनमें से एक 60 वर्षीय सनाभाई भी थे.
छहों मछुआरे समुद्र में तक़रीबन 12 घंटे तक डूबते-उतराते रहे. फिर एक मछली पकड़ने वाले ट्रॉलर की नज़र उन पर पड़ी और उन्हें बचाया जा सका.

जमनाबेन के पति सनाभाई मछली पकड़ने वाली एक छोटी नाव पर सवार थे, जो अरब सागर के बीच में जाकर टूट गई. कोई मदद पहुंचने से पहले ही उनकी मौत हो गई
सनाभाई की 65 वर्षीया पत्नी जमनाबेन कहती हैं, “उनका शव तीन दिनों के बाद मिला.” वह जाफ़राबाद में रहती हैं. “मैं यह नहीं कहती कि एक स्पीड बोट उपलब्ध होता, तो वह बच ही जाते. लेकिन तब शायद उनके बचने की बेहतर संभावना ज़रूर होती. जैसे ही उन्हें अपनी नाव में छेद होने की भनक लगी होगी, उन्होंने मदद के लिए तो चिल्लाया ही होगा. बदक़िस्मती से हम यह कभी नहीं जान सकेंगे कि उन आख़िरी पलों में क्या हुआ था.”
उनके दोनों बेटे - दिनेश (30) और भूपद (35) शादीशुदा हैं और दोनों के दो-दो बच्चे हैं - भी मछली पकड़ने का काम करते हैं. सनाभाई की मौत के बाद से उनके मन में एक घबराहट बैठ गई है.
जमनाबेन बताती हैं, “दिनेश आज भी नियमित रूप से मछलियां पकड़ने के लिए जाता है, लेकिन भूपद जहां तक संभव होता है जाने से कतराता है. लेकिन, हम घर-परिवार वाले लोग हैं. हमें अपना पेट भरने के लिए कमाना पड़ता है, और हमारी आमदनी का एक ही ज़रिया है. हमारा जीवन समंदर पर ही आश्रित है.”
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पचपन साल के जीवनभाई शियाल के पास ख़ुद का मछली पकड़ने वाला ट्रॉलर है. वह बताते हैं कि मछली पकड़ने के लिए निकलने से पहले मछुआरे मन ही मन एक प्रार्थना करते हैं.
वह याद करते हैं, “कोई साल भर पहले मेरे एक आदमी को सीने में अचानक बहुत तेज़ दर्द उठा. उस समय वह नाव पर ही था. हम तत्काल किनारे की तरफ़ लौट पड़े.” पांच घंटे तक वह आदमी सांस लेने के लिए जूझता रहा. जब ट्रॉलर किनारे तक पहुंचा, तो उसने अपनी छाती को हथेलियों से भींच रखा था. शियाल बताते हैं कि वे पांच घंटे उन्हें पांच दिनों के बराबर लगे थे. हर आने वाला पल गुज़रते हुए पल पर भारी पड़ता महसूस हो रहा था. हरेक मिनट तनाव बढ़ता जा रहा था. ख़ुशक़िस्मती से वह मछुआरा बच गया, क्योंकि किनारे पर पहुंचने के साथ ही उसे फ़ौरन अस्पताल में दाख़िल करा दिया गया था.
समंदर में लगे इस चक्कर ने शियाल का 50,000 रुपए से ज़्यादा का नुक़सान कर दिया, क्योंकि उन्हें उसी दिन लौटना पड़ा था. वह बताते हैं, “ट्रॉलर को समुद्र में एक बार जाने-आने में 400 लीटर ईंधन की खपत होती है. हमें एक भी मछली पकड़े बिना ही लौटना पड़ा था.”

जब जीवनभाई शियाल के ट्रॉलर पर उनके एक आदमी को सीने में अचानक बहुत तेज़ दर्द महसूस हुआ, तो वे बिना कोई मछली पकड़े तुरंत वापस लौट पड़े. इस चक्कर को लगाने में उनका 50,000 रुपए से ज़्यादा का ईंधन ख़र्च हुआ था

जीवनभाई शियाल कहते हैं, 'जब हम नाव पर निकले होते हैं, तो बीमार पड़ने पर भी अपनी असुविधाओं को बर्दाश्त करने के लिए मजबूर रहते हैं. किसी तरह का इलाज हमें तब ही मिलता है, जब हम घर लौटते है'
शियाल बताते हैं कि मछली पकड़ने के कारोबार में दिन-ब-दिन लागत बढ़ने के कारण मछुआरों को अपनी सेहत से जुड़े मसलों की अनदेखी करनी पड़ती है. “यह जानलेवा साबित हो सकता है. लेकिन कोई बचत नहीं कर पाने के कारण हम बेहद मामूली जीवन जीने के लिए मजबूर हैं. हमारी परिस्थितियां हमें अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करने के लिए विवश कर देती हैं. जब हम नाव पर निकले होते हैं, तो बीमार पड़ने पर भी अपनी असुविधाओं को बर्दाश्त करने के लिए मजबूर रहते हैं. किसी तरह का इलाज हमें तब ही मिलता है, जब हम घर लौटते है.”
शियाल बेट में रहने वाले बाशिंदों के लिए तो घर पर भी किसी तरह की स्वास्थ्य-सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. इस द्वीप तक पहुंचने का इकलौता साधन फेरी की सवारी है, और वहां तक पहुंचने में 15 मिनट लगते हैं. डगमगाती हुई नाव में सवार होने और उतरने के लिए पांच मिनट की मशक्कत अलग से करनी पड़ती है.
बोट एम्बुलेंसों की मांग के साथ-साथ, बालधिया द्वारा दायर की गई याचिका में आजीविका के लिए मछली के व्यवसाय पर निर्भर शियाल बेट के 5,000 से भी अधिक निवासियों के लिए एक सुविधायुक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) की भी मांग की गई थी.
इस मांग के जबाव में उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया था कि इस ज़िले व आसपास के ज़िलों के चिकित्सा अधिकारी हफ़्ते में पांच दिन के लिए सुबह 10 बजे से लेकर अपराह्न 4 बजे तक उप-स्वास्थ्य केंद्र में प्रतिनियुक्त किए जाएं.
बहरहाल, वहां के निवासीगण बताते हैं कि उक्त निर्देश का कोई परिपालन ज़मीनी स्तर पर नहीं हुआ है.

शियाल बेट में स्थित एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के बाहर बैठे कानाभाई बलधिया. वह कहते हैं, 'मुझे हर बार डॉक्टर को दिखाने के लिए, नाव के ज़रिए सफ़र तय करना पड़ता है'

हंसाबेन शियाल गर्भवती हैं, और उन्हें यह डर सताता रहता है कि वह समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाएंगी
कानाभाई बालधिया, जो पहले स्वयं एक मछुआरे थे, कहते हैं कि अपने लगातार बने रहने वाले घुटने के दर्द का इलाज कराने के लिए उन्हें जाफ़राबाद या राजुला जाना पड़ता है. क़रीब 75 साल के बालधिया बताते हैं, “यहां का स्वास्थ्य केंद्र प्रायः बंद रहता है. न्यायालय ने पता नहीं क्या सोच कर, यहां हफ़्ते में पांच दिन के लिए ही डॉक्टर को भेजा होगा, गोया सप्ताहांत में लोग बीमार नहीं पड़ते हैं. लेकिन यहां तो कामकाज वाले दिनों में भी बुरी हालत ही रहती है. मुझे तो जब भी डॉक्टर से मिलना होता है, तब नाव से ही जाना पड़ता है.”
गर्भवती महिलाओं को तो कहीं ज़्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
हंसाबेन शियाल के गर्भ में आठ महीने का बच्चा है और गर्भावस्था में स्वास्थ्य से संबंधित जटिलताओं के कारण उन्हें हफ़्ते में तीन बार जाफ़राबाद स्थित अस्पताल जाना होता है. उन्हें अच्छी तरह अपने पेट का वह भयानक दर्द याद है, जब वह छह महीने की गर्भवती थीं. रात घिरे बहुत देर हो चुकी थी और उस दिन के लिए फेरी सेवा को बंद हुए कई घंटे बीत चुके थे. उन्होंने किसी तरह रात काटने और भोर के फूटने का इंतज़ार करने का फ़ैसला किया. वह बहुत भयावह और चिंताओं में डूबी हुई रात थी.
सुबह के चार बजने के बाद हंसाबेन के लिए बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया. उन्होंने एक नाविक को बुलवाया. वह इतना दयालु था कि उनकी मदद करने के लिए राज़ी हो गया. वह बताती हैं, “गर्भावस्था के दौरान पीड़ा से जूझते हुए नाव पर चढ़ना और उससे उतरना एक बहुत कष्टप्रद काम है. नाव कभी स्थिर नहीं रहती है. आपको उनके डगमगाने के साथ संतुलन बिठाना पड़ता है. एक छोटी सी चूक से भी आप पानी में गिर सकते हैं. यह कमोबेश तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा मुश्किल काम है.”
बहरहाल, जब वह नाव पर किसी तरह बैठीं, तब इनकी सास मंजूबेन (60) ने एंबुलेंस सेवा को फ़ोन किया. वह कहती हैं, “हमें लगा कि एंबुलेंस को थोड़ा पहले बुला लेने से हमारा वक़्त बचेगा. लेकिन उन्होंने हमें जाफ़राबाद बंदरगाह पहुंचने के बाद फिर से फ़ोन करने के लिए कहा.”
इसका मतलब था कि उन्हें अस्पताल तक पहुंचने के लिए बंदरगाह पर 5-7 मिनट तक और इंतज़ार करना पड़ा था, जब तक कि एंबुलेंस आई और उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए रवाना हुई.


शियाल बेट (बाएं) और जाफ़राबाद बंदरगाहों (दाएं) पर उतर रहे यात्री
हंसाबेन इस पूरे उपक्रम से बुरी तरह डर गई थीं. वह बताती हैं, “मुझे यही लग रहा था कि मैं अपनी डिलीवरी के लिए समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाउंगी. मुझे लगता था कि मैं नाव से गिर पडूंगी, दूसरी तरफ़ मैं दर्द से अलग बेहाल थी. मैं अपने गांव की उन औरतों के बारे में जानती थीं जो वक़्त पर अस्पताल नहीं पहुंच पाने के कारण जान से हाथ धो बैठी थीं. मुझे ऐसे मामलों की जानकारी थी, जब बच्चे को नहीं बचाया जा सका था.”
याचिकाकर्ता की मदद करने वाले संलिप्त कार्यकर्ता-वकील अरविन्दभाई कहते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण विगत वर्षों में शियाल बेट से पलायन करने वाले लोगों की तादाद बहुत तेज़ी से बढ़ी है. वह कहते हैं, “आपको ऐसे परिवार मिलेंगे जिन्होंने अपना सबकुछ बेच दिया है. इनमें से अधिकांश परिवार ऐसे हैं जो चिकित्सीय सुविधाओं के अभाव में कोई बड़ी दुर्घटना झेल चुके हैं. ऐसे सभी लोग अब तटवर्ती इलाक़ों में रहने लगे हैं और तय कर लिया है कि वे दोबारा वापस नहीं लौटेंगे.”
एक क़सम गाभीबेन ने भी खाई है, जबकि वह तटवर्ती क्षेत्र में रहती हैं - उनके परिवार की अगली पीढ़ी अपना पुश्तैनी व्यवसाय हमेशा के लिए छोड़ देगी. जीवनभाई की मृत्यु के बाद से, वह दूसरे मछुआरों के लिए दैनिक मज़दूरी पर मछलियों को सुखाने का काम करती हैं. यह मेहनत का काम है, जिसके बदले उन्हें रोज़ सिर्फ़ 200 रुपए मिलते हैं. वह अपनी आमदनी की पाई-पाई अपने 14 साल के बेटे रोहित पर ख़र्च करती हैं, जो जाफ़राबाद के एक निजी स्कूल में पढ़ता है. वह चाहती हैं कि बड़ा होकर वह जो बनना चाहे वह बने, बस मछुआरा न बने.
गाभीबेन को इस बात की भी चिंता नहीं है कि बड़ा होकर कहीं रोहित उनको बुढ़ापे में जाफ़राबाद में अकेला छोड़ कर कहीं और न बस जाए. जाफ़राबाद में ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है जो अपने दुस्वप्नों के साथ अपनी ज़िंदगियां गुज़ार रहे हैं. उन लोगों में एक गाभीबेन भी हैं.
पार्थ एम.एन. ‘ठाकुर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन’ द्वारा दिए गए स्वतंत्र पत्रकारिता अनुदान के माध्यम से लोक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता जैसे विषयों पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं. ‘ठाकुर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन’ इस रिपोर्ताज में उल्लिखित किसी भी बात पर किसी तरह का संपादकीय नियंत्रण नहीं रखा है.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद