ଘନ‌ ‌ଅନ୍ଧାର‌ ‌ଥିଲା,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ସେ‌ ‌ସୂର୍ଯ୍ୟୋଦୟ‌ ‌ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ‌ ‌ଅପେକ୍ଷା‌ ‌କରିପାରିବେ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌।‌ ‌ରାତି‌ ‌୨ଟା‌ ‌ବାଜିଥିଲା‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଆହୁରି‌ ‌ତିନି‌ ‌ଘଣ୍ଟା‌ ‌ପରେ‌ ‌ପୋଲିସ‌ ‌ଆସି‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ଅଟକାଇବେ‌ ‌।‌ ‌କିଛି‌ ‌ସମୟ‌ ‌ପରେ‌ ‌ପୋଲିସ‌ ‌ବନ୍ଦ‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ରାସ୍ତାକୁ‌ ‌ଅତିକ୍ରମ‌ ‌କରି‌ ‌କାସାରୁପୁ‌ ‌ଧନରାଜୁ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ଆହୁରି‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ଜଣ‌ ‌ସହଯୋଗୀ‌ ‌ଆଗକୁ‌ ‌ଟପିଗଲେ।‌ ‌କିଛି‌ ‌ସମୟପରେ,‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ମୁକ୍ତ‌ ‌ଥିଲେ-ଏବଂ‌ ‌ସମୁଦ୍ରରେ‌ ‌ଥିଲେ।

“‌ଆରମ୍ଭରୁ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଖୁବ‌ ‌ଡରିଯାଇଥିଲି”,‌ ‌ସେ‌ ‌ଏପ୍ରିଲ‌ ‌୧୦‌ ‌ତାରିଖରେ‌ ‌ପଳାୟନ‌ ‌କରିବା‌ ‌ପୂର୍ବରୁ‌ ‌କହିଥିଲେ।‌ ‌“ମୋତେ‌ ‌ସାହସ‌ ‌କରି‌ ‌ଯିବାର‌ ‌ଥିଲା।‌ ‌ମୋର‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ଦରକାର‌ ‌ଥିଲା।‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ମୋ‌ ‌ଭଡ଼ା‌ ‌ଦେବାର‌ ‌ଥିଲା”।‌ ‌ଧନରାଜୁ‌ ‌(୪୪)‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ସହଯୋଗୀମାନେ,‌ ‌ସମସ୍ତେ‌ ‌ଥିଲେ‌ ‌ହତାଶ‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀ‌ ‌-‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ମୋଟର‌ ‌ଚାଳିତ‌ ‌ଛୋଟ‌ ‌ବୋଟରେ‌ ‌ଚୁପଚାପ‌ ‌ସମୁଦ୍ର‌ ‌ମଧ୍ୟକୁ‌ ‌ଚାଲିଯାଇଥିଲେ।‌ ‌ଲକଡାଉନ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ଜେଟ୍ଟୀରେ‌ ‌ମାଛଧରା‌ ‌ଓ‌ ‌ଅନ୍ୟାନ୍ୟ‌ ‌କାର୍ଯ୍ୟକଳାପ‌ ‌ବନ୍ଦ‌ ‌କରାଯାଇଥିଲା।‌ ‌ପ୍ରତିଦିନ‌ ‌ଭୋର‌ ‌୫ଟାରେ‌ ‌ପୋଲିସ‌ ‌ଆସି‌ ‌ବିଶାଖାପାଟଣା‌ ‌ମାଛଧରା‌ ‌ବନ୍ଦରର‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ପ୍ରବେଶ‌ ‌ପଥରେ‌ ‌ପହଞ୍ଚିଯାଉଥିଲା।‌ ‌ଏଠାକାର‌ ‌ବଜାର‌ ‌ଉଭୟ‌ ‌ସାଧାରଣ‌ ‌ଲୋକ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀଙ୍କ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ବନ୍ଦ‌ ‌ରଖାଯାଇଥିଲା।

ଧନରାଜୁ‌ ‌ସୂର୍ଯ୍ୟୋଦୟ‌ ‌ପୂର୍ବରୁ‌ ‌୬ରୁ‌ ‌୭‌ ‌କିଗ୍ରା‌ ‌ଓଜନର‌ ‌ବାଙ୍ଗାରୁ‌ ‌ଥିଗା‌ ‌(ସୁନେଲି‌ ‌କାର୍ପ‌ ‌ମାଛ)‌ ‌ଧରି‌ ‌ଫେରିଆସିଥିଲେ।‌ ‌“ଅଳ୍ପକେ‌ ‌ବର୍ତ୍ତିଗଲି”,‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଫେରିବାର‌ ‌କିଛି‌ ‌ମିନିଟ‌ ‌ପରେ‌ ‌ପୋଲିସ‌ ‌ସେଠାରେ‌ ‌ପହଞ୍ଚିଗଲା।‌ ‌ଯଦି‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ଧରି‌ ‌ନେଇଥାନ୍ତେ,‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ହୁଏତ‌ ‌ପିଟିଥାନ୍ତେ‌ ‌।‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଏହି‌ ‌ନିରାଶାର‌ ‌ସମୟରେ,‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌ବଞ୍ଚିବା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌କିଛି‌ ‌ନା‌ ‌କିଛି‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିବ।‌ ‌ଆଜି‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ମୋ‌ ‌ଭଡ଼ା‌ ‌ଦେବି,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଆସନ୍ତାକାଲି‌ ‌ଆଉ‌ ‌କିଛି‌ ‌ସମସ୍ୟା‌ ‌ଆସିବ‌ ‌।‌ ‌ମୁଁ‌ ‌କୋଭିଡ‌ ‌-୧୯ରେ‌ ‌ସଂକ୍ରମିତ‌ ‌ହୋଇନାହିଁ,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଏହା‌ ‌ଆର୍ଥିକ‌ ‌ଦୃଷ୍ଟିରୁ‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ପ୍ରଭାବିତ‌ ‌କରିଛି’’।‌

ପୋଲିସ‌ ‌ଆଖିରେ‌ ‌ଧୂଳି‌ ‌ଦେଇ‌ ‌ଚେଙ୍ଗଲ‌ ‌ରାଓ‌ ‌ପେଟାସ୍ଥିତ‌ ‌ଡ.‌ ‌ଏନଟିଆର‌ ‌ବିଚ‌ ‌ରୋଡ‌ ‌ପଛରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ସଙ୍କୀର୍ଣ୍ଣ‌ ‌ଗଳିରେ‌ ‌ନିଜର‌ ‌ପୁରୁଣା‌ ‌ଜଙ୍କ‌ ‌ଲଗା‌ ‌ରୋମା‌ ‌ସାଇକେଲ‌ ‌ଉପରେ‌ ‌ଏକ‌ ‌ଧଳା‌ ‌ବୋର୍ଡ‌ ‌ଲଗାଇ‌ ‌ନିଜର‌ ‌ଅସ୍ଥାୟୀ‌ ‌ଦୋକାନରେ‌ ‌ସେ‌ ‌ଗୋପନୀୟ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ମାଛଟିକୁ‌ ‌ବିକି‌ ‌ଦେଲେ‌ ‌।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ସାଇକେଲ‌ ‌ନେଇ‌ ‌ମୁଖ୍ୟ‌ ‌ରାସ୍ତାକୁ‌ ‌ଯାଇପାରିଥାନ୍ତି,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ପୋଲିସ‌ ‌ପିଟିବାର‌ ‌ଭୟ‌ ‌ଥିଲା,”‌ ‌ବୋଲି‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌ଧନରାଜୁ‌ ‌।‌ ‌ସାଧାରଣ‌ ‌ଦିନରେ‌ ‌କିଲୋ‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌୨୫୦‌ ‌ଟଙ୍କାରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରିବା‌ ‌ବଦଳରେ‌ ‌ମାଛଟିକୁ‌ ‌ସେ‌ ‌୧୦୦‌ ‌ଟଙ୍କାରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌ବାଧ୍ୟ‌ ‌ହେଲେ‌ ‌।‌

ଅନ୍ୟ‌ ‌ସାଧାରଣ‌ ‌ଦିନରେ‌ ‌ଧନରାଜୁ‌ ‌୬-୭‌ ‌କିଗ୍ରା‌ ‌କାର୍ପ‌ ‌ମାଛକୁ‌ ‌୧୫୦୦ରୁ‌ ‌୧୭୫୦‌ ‌ଟଙ୍କାରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରିଥାନ୍ତେ‌ ‌।‌ ‌ମାତ୍ର,‌ ‌ସାଇକେଲରେ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ମାଛ‌ ‌ଦୋକାନ‌ ‌ଖୁବ‌ ‌କମ୍‌ ‌ଲୋକଙ୍କ‌ ‌ଦୃଷ୍ଟି‌ ‌ଆକର୍ଷଣ‌ ‌କରିଥିଲା।‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ସହିତ‌ ‌୪୬‌ ‌ବର୍ଷୀୟା‌ ‌ମହିଳା‌ ‌ପପୁ‌ ‌ଦେବୀ‌ ‌ଥିଲେ,‌ ‌ଯିଏକି‌ ‌ଗ୍ରାହକମାନଙ୍କୁ‌ ‌ମାଛ‌ ‌କାଟି‌ ‌ଦେଉଥିଲେ।‌ ‌ପ୍ରତ୍ୟେକ‌ ‌ଗ୍ରାହକଙ୍କୁ‌ ‌ମାଛ‌ ‌କାଟି‌ ‌ସଫା‌ ‌କରି‌ ‌ଦେବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ସେ‌ ‌୧୦-୨୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ନେଉଥିଲେ।‌ ‌ସେ‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ସେଠାରେ‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ବିପଦକୁ‌ ‌ବରଣ‌ ‌କରୁଥିଲେ।‌

Left: Kasarapu Dhanaraju sold the fish secretly, on a 'stall' on his old rusted cycle. Right: Pappu Devi, who cleans and cuts the fish, says, 'I think I will survive [this period]'
PHOTO • Amrutha Kosuru
Left: Kasarapu Dhanaraju sold the fish secretly, on a 'stall' on his old rusted cycle. Right: Pappu Devi, who cleans and cuts the fish, says, 'I think I will survive [this period]'
PHOTO • Amrutha Kosuru

ବାମ‌ ‌:‌ ‌କାସାରାପୁ‌ ‌ଧନରାଜୁ‌ ‌ଗୋପନୀୟ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ନିଜର‌ ‌ପୁରୁଣା‌ ‌ଜଙ୍କଲଗା‌ ‌ସାଇକେଲରେ‌ ‌ନେଇ‌ ‌ମାଛଟିକୁ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌ କରିଦେଲେ।‌ ‌ଡାହାଣ‌ ‌:‌ ‌ପପୁ‌ ‌ଦେବୀ,‌ ‌ଯିଏକି‌ ‌ମାଛ‌ ‌କାଟି‌ ‌ସଫା‌ ‌କରିଥାନ୍ତି,‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଭାବୁଛି‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ବଞ୍ଚିଯିବି‌ ‌(ଏହି‌ ‌ ସମୟରେ)।’’‌

ଯେବେ‌ ‌ଜେଟ୍ଟୀ‌ ‌ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ‌ ‌ରୂପେ‌ ‌କାର୍ଯ୍ୟକ୍ଷମ‌ ‌ଥାଏ,‌ ‌ପପ୍ପୁ‌ ‌ଦେବୀ‌ ‌ଦିନକୁ‌ ‌୨୦୦-୨୫୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ରୋଜଗାର‌ ‌କରିଥାନ୍ତି।‌ ‌ସେ‌ ‌କେବଳ‌ ‌ମାଛ‌ ‌କାଟିବା‌ ‌ଓ‌ ‌ସଫା‌ ‌କରିବା‌ ‌କାମ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି।‌ ‌“ଏବେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଦିନକୁ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌ଗୋଟିଏ‌ ‌ଓଳି‌ ‌ଖାଇପାରୁଛି,”‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ମୋତେ‌ ‌‌ଜୁନ୍‌ ‌‌ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ‌ ‌‌ବଞ୍ଚିବାକୁ‌ ‌‌ପଡିବ‌।‌ ‌‌ଭାଇରସ୍‌ ‌‌ହେତୁ‌ ‌‌ଏହା‌ ‌[‌ଲକଡାଉନ୍‌ ‌‌ପିରିୟଡ୍‌]‌ ‌‌ଜୁନ୍‌ ‌‌ଠାରୁ‌ ‌‌ଅଧିକ‌ ‌ହୋଇପାରେ‌ ‌‌ବୋଲି‌ ‌‌ସେ‌ ‌‌କୁହନ୍ତି’’।‌ ‌କିଛି‌ ‌ସମୟ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ସେ‌ ‌ନିରବ‌ ‌ହୋଇଗଲେ,‌ ‌ପୁଣି‌ ‌ଆଶାବାନ୍ଧି‌ ‌କହିଲେ,‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଭାବୁଛି‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ବଞ୍ଚିଯିବି”।‌ ‌ସେ‌ ‌ଜଣେ‌ ‌ବିଧବା‌ ‌ଓ‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ସନ୍ତାନର‌ ‌ଜନନୀ,‌ ‌ସେ‌ ‌ମୂଳତଃ‌ ‌ଆନ୍ଧ୍ରପ୍ରଦେଶର‌ ‌ବିଜୟନଗରମ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ମେଣ୍ଟାଡ‌ ‌ତହସିଲ‌ ‌ଅନ୍ତର୍ଗତ‌ ‌ଇପ୍ପଲବାଲସା‌ ‌ଗ୍ରାମର‌ ‌ବାସିନ୍ଦା।‌

ଦେବୀ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ଝିଅଙ୍କୁ‌ ‌ମାର୍ଚ୍ଚ‌ ‌ମାସରେ‌ ‌ଇପ୍ପଲାଭାଲସାରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ନିଜ‌ ‌ମାତାପିତାଙ୍କ‌ ‌ପାଖକୁ‌ ‌ପଠାଇ‌ ‌ଦେଇଥିଲେ।‌ ‌“ମୋ‌ ‌ମାତାପିତାଙ୍କ‌ ‌ଯତ୍ନ‌ ‌ନେବା‌ ‌ପାଇଁ”,‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଏ‌ ‌ମାସ‌ ‌ସେଠାକୁ‌ ‌ଯାଇଥାନ୍ତି।‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ବର୍ତ୍ତମାନ‌ ‌ଏହା‌ ‌ଅସମ୍ଭବ‌ ‌ଲାଗୁଛି”।‌

ଏପ୍ରିଲ‌ ‌୨,‌ ‌୨୦୨୦‌ ‌ବେଳକୁ‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀମାନଙ୍କୁ‌ ‌ସମୁଦ୍ର‌ ‌ମଧ୍ୟକୁ‌ ‌ବିଧିବଦ୍ଧ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ଯିବାକୁ‌ ‌ଅନୁମତି‌ ‌ଦିଆଗଲାନାହିଁ।‌ ‌ଆହୁରି,‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ଋତୁ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ଏପ୍ରିଲ‌ ‌୧୫ରୁ‌ ‌ଜୁନ‌ ‌୧୪‌ ‌ତାରିଖ‌ ‌ମଧ୍ୟରେ‌ ‌୬୧‌ ‌ଦିନ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ମାଛଧରାକୁ‌ ‌ନିଷିଦ୍ଧ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ।‌ ‌ଏହାର‌ ‌ଅର୍ଥ‌ ‌ଏହି‌ ‌ସମୟରେ,‌ ‌ମାଛ‌ ‌ବଢ଼ିବାକୁ‌ ‌ଦେବା‌ ‌ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟରେ‌ ‌ସମୁଦ୍ରରେ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ମାରିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ମୋଟର‌ ‌ଚାଳିତ‌ ‌ଓ‌ ‌ଯନ୍ତ୍ରଚାଳିତ‌ ‌ବୋଟ‌ ‌ନିଷିଦ୍ଧ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ମାର୍ଚ୍ଚ‌ ‌୧୫‌ ‌ତାରିଖରେ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ମାରିବା‌ ‌ଛାଡ଼ି‌ ‌ଦେଇଥିଲି,‌ ‌କାରଣ‌ ‌ପାଖାପାଖି‌ ‌୧୫‌ ‌ଦିନ‌ ‌ହେବ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଧରୁଥିବା‌ ‌ମାଛ‌ ‌ସାଧାରଣ‌ ‌ଦିନର‌ ‌ଦର‌ ‌ତୁଳନାରେ‌ ‌ଅଧା‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ଆହୁରି‌ ‌କମ‌ ‌ଦରରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରୁଥିଲି”,‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌ସେହି‌ ‌ଚେଙ୍ଗଲ‌ ‌ରାଓ‌ ‌ପେଟା‌ ‌ଅଞ୍ଚଳରେ‌ ‌ରହୁଥିବା‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀ‌ ‌ବାସୁପଲ୍ଲୀ‌ ‌ଆପ୍ପାରାଓ‌ ‌(୫୫)।‌ ‌“ମାର୍ଚ୍ଚ‌ ‌ମାସରେ,‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌୫ହଜାର‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ରୋଜଗାର‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌ସକ୍ଷମ‌ ‌ହୋଇଛି”।‌ ‌ସାଧାରଣତଃ‌ ‌ସେ‌ ‌ମାସିକ‌  ‌୧୦,୦୦୦-୧୫,୦୦୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ଆୟ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି।

“‌ଏପ୍ରିଲର‌ ‌ପ୍ରଥମ‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ସପ୍ତାହ‌ ‌(ବାର୍ଷିକ‌ ‌ନିଷିଦ୍ଧାଦେଶ‌ ‌ପୂର୍ବରୁ)‌ ‌ରେ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ଲାଭ‌ ‌କରିଥାଉ‌ ‌କାରଣ‌ ‌ସେତେବେଳେ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌କ୍ରେତା‌ ‌ଥାଆନ୍ତି,”‌ ‌ଆପ୍ପରାଓ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌“ଗତ‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ଋତୁ‌ ‌ପୂର୍ବର‌ ‌୧୦-୧୫‌ ‌ଦିନ‌ ‌ମଧ୍ୟରେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌୧୫‌ ‌ହଜାର‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ରୋଜଗାର‌ ‌କରିଥିଲି,”‌ ‌ଉତ୍ସାହିତ‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି।

Left: The Fishing Harbour in Visakhapatnam (file photo). As of April 2, 2020, fishermen were officially not allowed to venture out to sea. Right: The police has been guarding the entrance to the jetty and fish market during the lockdown
PHOTO • Amrutha Kosuru
Left: The Fishing Harbour in Visakhapatnam (file photo). As of April 2, 2020, fishermen were officially not allowed to venture out to sea. Right: The police has been guarding the entrance to the jetty and fish market during the lockdown
PHOTO • Amrutha Kosuru

ବାମ‌ ‌:‌ ‌ବିଶାଖାପାଟଣାରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ମାଛଧରା‌ ‌ବନ୍ଦର‌ ‌(ଫାଇଲ‌ ‌ଫଟୋ)।‌ ‌ଏପ୍ରିଲ‌ ‌୨,‌ ‌୨୦୨୦‌ ‌ସୁଦ୍ଧା,‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀମାନଙ୍କୁ‌ ‌ ସମୁଦ୍ର‌ ‌ମଧ୍ୟକୁ‌ ‌ଯିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ଅନୁମତି‌ ‌ଦିଆଯାଏ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌।‌ ‌ଡାହାଣ‌ ‌:‌ ‌ଲକଡାଉନ‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ପୋଲିସ‌ ‌ଜେଟ୍ଟୀର‌ ‌ପ୍ରବେଶପଥ‌ ‌ ଏବଂ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ବଜାରକୁ‌ ‌ଜଗି‌ ‌ରହିଛି।‌

ଚଳିତ‌ ‌ବର୍ଷ,‌ ‌ମାର୍ଚ୍ଚ‌ ‌ପ୍ରଥମ‌ ‌ସପ୍ତାହରେ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ଦର‌ ‌ଖୁବ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ପରିମାଣରେ‌ ‌ହ୍ରାସ‌ ‌ପାଇଥିଲା-‌ ‌ବଞ୍ଜରମ‌ ‌(ସିୟର‌ ‌ଫିସ)‌ ‌ଓ‌ ‌ସାନ୍ଦୁଭାଏ‌ ‌(ପମ୍ଫରେଟ‌ ‌ମାଛ)‌ ‌ସାଧାରଣତଃ‌ ‌କିଲୋପ୍ରତି‌ ‌୧୦୦୦‌ ‌ଟଙ୍କାରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌ହେଉଥିବା‌ ‌ବେଳେ‌ ‌ଆମେ‌ ‌୪୦୦ରୁ‌ ‌୫୦୦‌ ‌ଟଙ୍କାରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରୁଥିଲୁ।‌ ‌ଆପ୍ପାରାଓ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌କରୋନା‌ ‌ଭୂତାଣୁ‌ ‌ଭୟ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ଏପରି‌ ‌ସ୍ଥିତି‌ ‌ସୃଷ୍ଟି‌ ‌ହୋଇଥିଲା।‌ ‌“ଜଣେ‌ ‌ବ୍ୟକ୍ତି‌ ‌ଆସିଲେ‌ ‌ଓ‌ ‌ମୋତେ‌ ‌କହିଲେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଜାଲ‌ ‌ପକାଇବା‌ ‌ବନ୍ଦ‌ ‌କରିଦେବା‌ ‌ଉଚିତ‌ ‌କାରଣ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ଚୀନରୁ‌ ‌ଭୂତାଣୁ‌ ‌ନେଇ‌ ‌ଆସିପାରେ,”‌ ‌ସେ‌ ‌ହସି‌ ‌ହସି‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଅପାଠୁଆ,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଭାବୁଛି‌ ‌ଏହା‌ ‌ସତ‌ ‌ହୋଇନଥିବ”।‌

ସରକାରଙ୍କ‌ ‌ଠାରୁ‌ ‌ମାଗଣା‌ ‌ରାସନ‌ ‌ସାମଗ୍ରୀ‌  ‌(ମୁଣ୍ଡ‌ ‌ପିଛା‌ ‌୫‌ ‌କିଗ୍ରା‌ ‌ଚାଉଳ)‌ ‌ପାଇଲେ‌ ‌ସୁଦ୍ଧା‌ ‌ଆଗକୁ‌ ‌କଷ୍ଟକର‌ ‌ସମୟ‌ ‌ଆସିବ‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ଆପ୍ପାରାଓ‌ ‌ଆଶଙ୍କା‌ ‌କରୁଛନ୍ତି।‌ ‌“ସବୁ‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ଋତୁ‌ ‌ସମୟ‌ ‌ବେଶ‌ ‌କଷ୍ଟକର‌ ‌ହୋଇଥାଏ,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ତା’‌ ‌ପୂର୍ବ‌ ‌ସପ୍ତାହଗୁଡ଼ିକରେ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଭଲ‌ ‌ଲାଭ‌ ‌କରିଥିବାରୁ‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ମତେ‌ ‌ଚଳିଯାଇଥାଉ,”‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌“ଏଥର‌ ‌ସ୍ଥିତି‌ ‌ଭିନ୍ନ।‌ ‌ଆମର‌ ‌କିଛି‌ ‌ଆୟ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ଲାଭ‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌”।‌

ଏପ୍ରିଲ‌ ‌୧୨‌ ‌ତାରିଖରେ‌ ‌ରାଜ୍ୟ‌ ‌ସରକାର‌ ‌ଲକଡାଉନକୁ‌ ‌ସାମନ୍ୟ‌ ‌କୋହଳ‌ ‌କଲେ,‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀମାନଙ୍କୁ‌ ‌ତିନି‌ ‌ଦିନ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ସମୁଦ୍ର‌ ‌ମଧ୍ୟକୁ‌ ‌ଯିବାକୁ‌ ‌ଦିଆଗଲା।‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ପରିସ୍ଥିତିରେ‌ ‌୭୨‌ ‌ଘଣ୍ଟା‌ ‌ପରେ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ଋଣ‌ ‌କଟକଣା‌ ‌ଲାଗୁ‌ ‌ହେବାର‌ ‌ଥିଲା।‌ ‌ଏହା‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀଙ୍କୁ‌ ‌ସାମାନ୍ୟ‌ ‌ଆଶ୍ଵସ୍ତି‌ ‌ଦେଇଥିଲା-‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌“ଏହା‌ ‌ଖୁବ‌ ‌ଅଳ୍ପ‌ ‌ସମୟ‌ ‌ଥିଲା”,‌ ‌ଆପ୍ପାରାଓ‌ ‌ମତବ୍ୟକ୍ତ‌ ‌କରନ୍ତି,‌ ‌“ଲକଡାଉନ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ଖୁବ‌ ‌କମ‌ ‌ଗ୍ରାହକ‌ ‌ଆସିବାର‌ ‌ସମ୍ଭାବନା‌ ‌ଥିଲା।‌

ଚେଙ୍ଗାଲରାଓ‌ ‌ପେଟାର‌ ‌ସଙ୍କୀର୍ଣ୍ଣ‌ ‌ଗଳିରେ‌ ‌ଚିନ୍ତାପଲ୍ଲି‌ ‌ତାତାରାଓଙ୍କ‌ ‌ଘର‌ ‌ଥିଲା,‌ ‌ଦିଆସିଲି‌ ‌ଖୋଳ‌ ‌ଗଦା‌ ‌ଭଳି‌ ‌ଅସମାନ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ରହିଥିବା‌ ‌କେତେଗୁଡ଼ିଏ‌ ‌ଘର‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌କୁଡ଼ିଆ‌ ‌ଗୋଟିଏ‌ ‌ଥିଲା।‌  ‌ସରୁ‌ ‌ଶିଢ଼ି‌ ‌ଦେଇ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ଅନ୍ଧାରୁଆ‌ ‌ଘରକୁ‌ ‌ଯିବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ୁଥିଲା।‌ ‌୪୮‌ ‌ବର୍ଷୀୟ‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀ‌ ‌ତାତାରାଓ‌ ‌ସବୁଦିନ‌ ‌ବଡ଼ି‌ ‌ଭୋରୁ‌ ‌ଉଠି‌ ‌ସମୁଦ୍ର‌ ‌କୂଳକୁ‌ ‌ଯାଇଥାନ୍ତି,‌ ‌ଠିକ‌ ‌ଯେତିକି‌ ‌ବାଟ‌ ‌ପପ୍ପୁ‌ ‌ଦେବୀ‌ ‌ଆସିଥାନ୍ତି।‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ମୂଳ‌ ‌ଘର‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ବିଜୟନଗରମର‌ ‌ଇପ୍ପାଲବାଲସା‌ ‌ଜିଲ୍ଲାରେ‌ ‌।

Left: The three-day relaxation in the lockdown 'is too little time', says Vasupalle Apparao. Right: Trying to sell prawns amid the lockdown
PHOTO • Madhu Narava
Left: The three-day relaxation in the lockdown 'is too little time', says Vasupalle Apparao. Right: Trying to sell prawns amid the lockdown
PHOTO • Madhu Narava

ବାମ‌ ‌:‌ ‌ଲକଡାଉନ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌ତିନି‌ ‌ଦିନ‌ ‌କୋହଳ‌ ‌କରିବା‌ ‌ଖୁବ‌ ‌ଅଳ୍ପ‌ ‌ସମୟ’,‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌ବାସୁପଲ୍ଲି‌ ‌ଆପ୍ପରାଓ।‌ ‌ଡାହାଣ‌ ‌:‌ ‌ ଲକଡାଉନ‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ଚିଙ୍ଗୁଡ଼ି‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ଚେଷ୍ଟା‌ ‌କରୁଛନ୍ତି।‌

“‌ମୁଁ‌ ‌ସମୁଦ୍ରକୁ‌ ‌ଝୁରୁଛି‌ ‌।‌ ‌ଜେଟ୍ଟୀ‌ ‌କଥା‌ ‌ମନେ‌ ‌ପଡ଼ୁଛି‌ ‌।‌ ‌ମୋର‌ ‌ମାଛ‌ ‌ଧରା‌ ‌କଥା‌ ‌ମନେ‌ ‌ପଡ଼ୁଛି,”‌ ‌ସେ‌ ‌ଦୁଃଖମିଶ୍ରିତ‌ ‌ହସ‌ ‌ହସି‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌ମାଛ‌ ‌ସହିତ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ରୋଜଗାର‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ବନ୍ଦ‌ ‌ହୋଇଯାଇଛି‌ ‌।‌ ‌ଶେଷଥର‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ମାର୍ଚ୍ଚ‌ ‌୨୬,‌ ‌୨୦୨୦ରେ‌ ‌ସେ‌ ‌ସମୁଦ୍ରକୁ‌ ‌ଯାଇଥିଲେ।‌

“ସେଗୁଡ଼ିକୁ‌ ‌ବରଫରେ‌ ‌ରଖିବାକୁ‌ ‌ଚେଷ୍ଟା‌ ‌କରିଥିଲେ‌ ‌ସୁଦ୍ଧା,‌ ‌ସେହି‌ ‌ସପ୍ତାହରେ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ସଂଖ୍ୟକ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ସରିଯାଇଥିଲା,”‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌ତାତାରାଓ।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଖୁସି‌ ‌ଯେ‌ ‌ଏହା‌ ‌ସରିଗଲା,”‌ ‌ମାଛ‌ ‌କାଟିବା‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ସ୍ତ୍ରୀ‌ ‌ସତ୍ୟା‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ଆମକୁ‌ ‌ଏଥର‌ ‌ଭଲ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ଖାଇବାକୁ‌ ‌ମିଳିଲା!”‌

୪୨‌‌ ‌‌ବର୍ଷୀୟା‌ ‌ଗୃହିଣୀ‌ ‌ସତ୍ୟା‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ତାତାରାଓ‌ ‌ଧରି‌ ‌ଆଣିଥିବା‌ ‌ମାଛ‌ ‌ବିକ୍ରିରେ‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ସହାୟତା‌ ‌କରିଥାନ୍ତି।‌ ‌ଲକଡାଉନ‌ ‌ପରଠାରୁ‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ଘର‌ ‌ପୂରିଉଠୁଛି‌ ‌।‌ ‌“ସାଧାରଣତଃ‌ ‌ଘରେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଏକୁଟିଆ‌ ‌ଥାଏ;‌ ‌ଏବେ‌ ‌ମୋ‌ ‌ପୁଅ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ମୋର‌ ‌ପତି‌ ‌ଘରେ‌ ‌କରୁଛନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ଅନେକ‌ ‌ମାସ‌ ‌ହୋଇଗଲାଣି‌ ‌ଆମେ‌ ‌ସାଙ୍ଗ‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ମଧ୍ୟାହ୍ନ‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ରାତ୍ରି‌ ‌ଭୋଜନ‌ ‌କରିନାହୁଁ।‌ ‌ଆର୍ଥିକ‌ ‌ସଙ୍କଟ‌ ‌ସତ୍ତ୍ୱେ,‌ ‌ଆମେ‌ ‌ପରସ୍ପର‌ ‌ସହ‌ ‌ସମୟ‌ ‌ବିତାଉଥିବାରୁ‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ଭଲ‌ ‌ଲାଗୁଛି,”‌ ‌ଖୁସିରେ‌ ‌ଆତ୍ମହରା‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ତାତାରାଓଙ୍କ‌ ‌ମୁଣ୍ଡରେ‌ ‌ଗୋଟିଏ‌ ‌ଚିନ୍ତା,‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପୂର୍ବେ‌ ‌ଡଙ୍ଗା‌ ‌କିଣିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ସେ‌ ‌ନେଇଥିବା‌ ‌ଋଣ‌ ‌ସେ‌ ‌କିଭଳି‌ ‌ଶୁଝିବେ‌ ‌।‌ ‌ସେ‌ ‌ଋଣ‌ ‌ଯନ୍ତା‌ ‌ମଧ୍ୟରେ‌ ‌ପେଶି‌ ‌ହୋଇଯାଇଥିବା‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ଏବର୍ଷ‌ ‌ଶେଷ‌ ‌ସୁଦ୍ଧା‌ ‌ସେ‌ ‌ଋଣ‌ ‌ସୁଝିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ଚେଷ୍ଟା‌ ‌କରିଥିଲେ।‌ ‌“ମାଛ‌ ‌ଧରିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ତିନି‌ ‌ଦିନ‌ ‌ଅବଧି‌ ‌କୋହଳ‌ ‌କରାଯିବା‌ ‌କିଛି‌ ‌ଲାଭ‌ ‌ହେବ‌ ‌ନାହିଁ,‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଏବେ‌ ‌ଯେଉଁ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ଧରୁଛୁ‌ ‌ତାହା‌ ‌ଖୁବ‌ ‌କମ‌ ‌ଦରରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌ହେଉଛି”,‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌“ମାଛ‌ ‌ଧରିବା‌ ‌ଅପେକ୍ଷା‌ ‌ଏହାକୁ‌ ‌ଉଚିତ‌ ‌ମୂଲ୍ୟରେ‌ ‌ବିକ୍ରି‌ ‌କରିବା‌ ‌ଏବେ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌କଷ୍ଟକର‌ ‌ହୋଇପଡ଼ିଛି”।‌

“‌ମୁଁ‌ ‌ମୋ‌ ‌ପୁଅ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ଚିନ୍ତିତ‌ ‌।‌ ‌ଗତବର୍ଷ‌ ‌ସେ‌ ‌ତା'ର‌ ‌ଚାକିରି‌ ‌ହରାଇଛି”,‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ଚିନ୍ତାପଲ୍ଲି‌ ‌ତରୁଣ‌ ‌(୨୧)‌ ‌ଏକ‌ ‌ଘରୋଇ‌ ‌କମ୍ପାନୀରେ‌ ‌ୱେଲଡର‌ ‌ଭାବେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରୁଥିଲେ‌ ‌।‌ ‌ଗତ‌ ‌ଫେବୃଆରୀରେ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ଚୁକ୍ତି‌ ‌ଶେଷ‌ ‌ହୋଇଯାଇଛି।‌ ‌“ମୁଁ‌ ‌ଚାକିରି‌ ‌ଖୋଜୁଛି,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଏ‌ ‌କରୋନା‌ ‌ଭୂତାଣୁ….”‌ ‌ସେ‌ ‌ହତାଶାର‌ ‌ସହ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌

Left: Chinthapalle Thatharao, Tarun and Sathya (l-r) at their home in Chengal Rao Peta. Right: Chinthapalle Thatharao and Kurmana Apparao (l-r)
PHOTO • Amrutha Kosuru
Left: Chinthapalle Thatharao, Tarun and Sathya (l-r) at their home in Chengal Rao Peta. Right: Chinthapalle Thatharao and Kurmana Apparao (l-r)
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ବାମ‌ ‌:‌ ‌ଚିନ୍ତାପଲ୍ଲୀ‌ ‌ତାତାରାଓ,‌ ‌ତରୁଣ‌ ‌ଓ‌ ‌ସତ୍ୟା‌ ‌(ବାମରୁ‌ ‌ଡାହାଣ)‌ ‌ଚେଙ୍ଗଲରାଓ‌ ‌ପେଟାସ୍ଥିତ‌ ‌ନିଜ‌ ‌ଘରେ।‌ ‌ ଡାହାଣ‌ ‌:‌ ‌ଚିନ୍ତାପଲି‌ ‌ତାତାରାଓ‌ ‌ଓ‌ ‌ବାସୁପଲ୍ଲୀ‌ ‌ଆପ୍ପାରାଓ‌ ‌(ବାମରୁ‌ ‌ଡାହାଣ)‌

“‌ଆମେ‌ ‌ବସ୍ତି‌ ‌ବାସିନ୍ଦା‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଆମ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ସାମାଜିକ‌ ‌ଦୂରତା‌ ‌ଅସମ୍ଭବ‌ ‌।‌ ‌ବର୍ତ୍ତମାନ‌ ‌ସୁଦ୍ଧା‌ ‌ଏ‌ ‌ଅଞ୍ଚଳରେ‌ ‌ଜଣେ‌ ‌ହେଲେ‌ ‌ପଜିଟିଭ‌ ‌ଚିହ୍ନଟ‌ ‌ହୋଇନାହାନ୍ତି,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଯୋଗକୁ‌ ‌ଯଦି‌ ‌କେହି‌ ‌ହୁଏ-ତା’ହେଲେ‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌କେହି‌ ‌ବଞ୍ଚାଇପାରିବେ‌ ‌ନାହିଁ,‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଭାବୁଛି”,‌ ‌ତାତାରାଓ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌“କୌଣସି‌ ‌ମାସ୍କ‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ହ୍ୟାଣ୍ଡ‌ ‌ସାନିଟାଇଜର‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌ବଞ୍ଚାଇପାରିବ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌”।‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ପାଖରେ‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ସର୍ଜିକାଲ‌ ‌ମାସ୍କ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌ବରଂ‌ ‌ସେ‌ ‌ନିଜର‌ ‌ରୁମାଲକୁ‌ ‌ମୁହଁରେ‌ ‌ବାନ୍ଧୁଛନ୍ତି।‌ ‌ସତ୍ୟା‌ ‌ନିଜର‌ ‌ମୁହଁକୁ‌ ‌ଶାଢ଼ି‌ ‌କାନିରେ‌ ‌ଘୋଡ଼ାଉଛନ୍ତି।‌

ଉଦାସ‌ ‌ମନରେ‌ ‌ଅଳ୍ପ‌ ‌ହସି‌ ‌ତାତାରାଓ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ପରିସ୍ଥିତି‌ ‌ଆମ‌ ‌ସପକ୍ଷରେ‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌।‌ ‌ଯଦି‌ ‌ମୋତେ‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ମୋ‌ ‌ପରିବାରର‌ ‌କାହାକୁ‌ ‌ଭୂତାଣୁ‌ ‌ସଂକ୍ରମିତ‌ ‌ହୁଏ,‌ ‌ଚିକିତ୍ସା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ଆମ‌ ‌ନିକଟରେ‌ ‌ଅର୍ଥ‌ ‌ନାହିଁ”।‌ ‌ସତ୍ୟା‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ଆମ‌ ‌ପାଖରେ‌ ‌ସ୍ବାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌ବୀମା‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ସଞ୍ଚୟ‌ ‌ନାହିଁ,‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌କେବଳ‌ ‌ଋଣ‌ ‌ଶୁଝିବାର‌ ‌ଅଛି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ପେଟ‌ ‌ପୂରାଇବାକୁ‌ ‌ଅଛି‌ ‌”‌ ‌।

ତାତାରାଓ,‌ ‌ସତ୍ୟା‌ ‌ଓ‌ ‌ପପ୍ପୁ‌ ‌ଦେବୀ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଏମାନଙ୍କ‌ ‌ପରି‌ ‌ଆହୁରି‌ ‌ଅନେକ‌ ‌ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀ‌ ‌ସମୁଦାୟର‌ ‌ଲୋକମାନେ‌ ‌ଅନ୍ୟ‌ ‌ସ୍ଥାନରୁ‌ ‌ପେଟପାଟଣା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ବିଶାଖାପାଟଣାକୁ‌ ‌ଆସିଛନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ସାଧାରଣ‌ ‌ଦିନଗୁଡ଼ିକରେ,‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ବେଳେ‌ ‌ବେଳେ‌ ‌ନିଜ‌ ‌ଗାଁକୁ‌ ‌ଫେରିଥାନ୍ତି,‌ ‌ସାଧାରଣତଃ‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ମାସର‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ଋତୁରେ‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ଗାଁକୁ‌ ‌ଯାଇଥାନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ଚଳିତ‌ ‌ଥର,‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ନିକଟରେ‌ ‌ସେତିକି‌ ‌ସୁଯୋଗ‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ମିଳିବ‌ ‌ନାହିଁ।

“‌ପୂର୍ବରୁ‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌ସେହି‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ମାସ‌ ‌ଭଡ଼ା‌ ‌ଦେବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ୁନଥିଲା-ଏବେ‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଦେବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିବ”,‌ ‌ତାତାରାଓ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌“ପ୍ରଜନନ‌ ‌ୠତୁରେ‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ମାସ‌ ‌ଗାଁକୁ‌ ‌ଯାଇଥିବା‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଅନ୍ୟମାନଙ୍କ‌ ‌ଜମିରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିଥାଉ,‌ ‌ସେଥିରୁ‌ ‌ଦୈନିକ‌ ‌ପାଖାପାଖି‌ ‌୫୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ମିଳିଥାଏ”।‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ଏହି‌ ‌କାର୍ଯ୍ୟ‌ ‌ସାଧାରଣତଃ‌ ‌ଜଙ୍ଗଲୀ‌ ‌ପଶୁ‌ ‌କବଳରୁ‌ ‌ଅନ୍ୟମାନଙ୍କ‌ ‌ଫସଲ‌ ‌ଓ‌ ‌ଚାଷକୁ‌ ‌ସୁରକ୍ଷିତ‌ ‌ରଖିବା‌ ‌ହୋଇଥାଏ।‌

“ବେଳେ‌ ‌ବେଳେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌କାମରେ‌ ‌ଗଡ଼ବଡ଼‌ ‌କରିଥାଏ,”‌ ‌ସେ‌ ‌ହସି‌ ‌ହସି‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌“ମତ୍ସ୍ୟଜୀବୀମାନେ‌ ‌ଅନ୍ୟ‌ ‌ପେସା‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ବେପାର‌ ‌ଜାଣନ୍ତିନାହିଁ‌ ‌।‌ ‌ଏବେ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଆଶା‌ ‌କରୁଛୁ‌ ‌ଯେ‌ ‌ମାଛ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ଋତୁ‌ ‌ପରେ‌ ‌ଏହି‌ ‌ଭୂତାଣୁ‌ ‌ପ୍ରକୋପ‌ ‌ଯେମିତି‌ ‌ନରହୁ”‌ ‌।‌

ପ୍ରଜାଶକ୍ତି,‌ ‌ବିଶାଖାପାଟଣାର‌ ‌ବ୍ୟୁରୋ‌ ‌ଚିଫ‌ ‌ମଧୁ‌ ‌ନାରାଭୁଙ୍କୁ‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ଫଟୋ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ଧନ୍ୟବାଦ‌ ‌।

ଅନୁବାଦ:‌ ‌ଓଡ଼ିଶାଲାଇଭ୍‍‌

Amrutha Kosuru

Amrutha Kosuru is a 2022 PARI Fellow. She is a graduate of the Asian College of Journalism and lives in Visakhapatnam.

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