୮୨‌‌ ‌‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସରେ‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌ସବୁକିଛି‌ ‌ଦେଖିଛନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଆଧାର‌ ‌କାର୍ଡରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ତଥ୍ୟ‌ ‌ଅନୁଯାୟୀ‌ ‌ସେ‌ ‌ଜାନୁଆରୀ‌ ‌୧,‌ ‌୧୯୩୮ରେ‌ ‌ଜନ୍ମଗ୍ରହଣ‌ ‌କରିଥିଲେ।‌ ‌ଏହା‌ ‌ସଠିକ‌ ‌କି‌ ‌ନୁହେଁ‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌ତାହା‌ ‌ଜାଣନ୍ତି‌ ‌ନାହିଁ,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ମନେ‌ ‌ଅଛି‌ ‌ଯେ‌ ‌୧୬‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସରେ‌ ‌ସେ‌ ‌ପ୍ରାୟ‌ ‌୨୦‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସ୍କ‌ ‌ରିଜୱାନ‌ ‌ଖାନଙ୍କ‌ ‌ଦ୍ୱିତୀୟ‌ ‌ପତ୍ନୀ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ହରିୟାଣାର‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌ଗ୍ରାମକୁ‌ ‌ବୋହୂ‌ ‌ହୋଇଆସିଥିଲେ।‌ ‌“(ରିଜୱାନଙ୍କ‌ ‌ପ୍ରଥମ‌ ‌ପତ୍ନୀ)‌ ‌ତଥା‌ ‌ମୋ‌ ‌ବଡ଼‌ ‌ଭଉଣୀ‌ ‌ଓ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌୬‌ ‌ଜଣ‌ ‌ପିଲା‌ ‌ଦେଶ‌ ‌ବିଭାଜନ‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ଦଙ୍ଗାରେ‌ ‌ପ୍ରାଣ‌ ‌ହରାଇଥିଲେ।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ମୋ‌ ‌ମା’‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ରିଜୱାନଙ୍କ‌ ‌ସହିତ‌ ‌ବାହା‌ ‌କରି‌ ‌ଦେଇଥିଲେ”,‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌(ଛଦ୍ମନାମ)‌ ‌କୁହନ୍ତି।

ତାଙ୍କର‌ ‌ଅଳ୍ପ‌ ‌ଅଳ୍ପ‌ ‌ମନେ‌ ‌ଅଛି‌ ‌ମେୱାତର‌ ‌ଏକ‌ ‌ଗ୍ରାମକୁ‌ ‌ଥରେ‌ ‌ମହାତ୍ମା‌ ‌ଗାନ୍ଧୀ‌ ‌ଆସିଥିଲେ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ପାକିସ୍ତାନ‌ ‌ଚାଲିନଯିବା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ମିଓ‌ ‌ମୁସଲିମ‌ ‌ପରିବାରଗୁଡ଼ିକୁ‌ ‌ଅନୁରୋଧ‌ ‌କରିଥିଲେ।‌ ‌ପ୍ରତିବର୍ଷ‌ ‌ଡିସେମ୍ବର‌ ‌୧୯‌ ‌ତାରିଖକୁ‌ ‌ହରିୟାଣାର‌ ‌ମିଓ‌ ‌ମୁସଲିମାନେ‌ ‌ମେୱାତ‌ ‌ଦିବସ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ପାଳନ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ମହାତ୍ମା‌ ‌ଗାନ୍ଧୀ‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲା‌ ‌ଘାସେରା‌ ‌ଗ୍ରାମକୁ‌ ‌ଆସିଥିବାର‌ ‌ସ୍ମୃତିରେ‌ ‌ଏହି‌ ‌ଦିବସ‌ ‌ପାଳନ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ‌ ‌(୨୦୦୬‌ ‌ମସିହା‌ ‌ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ନାମ‌ ‌ମେୱାତ‌ ‌ଥିଲା।)‌

ଆରିଫାଙ୍କର‌ ‌ଭଲ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ମନେ‌ ‌ଅଛି‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ମା’‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ପାଖରେ‌ ‌ବସାଇ‌ ‌କାହିଁକି‌ ‌ସେ‌ ‌ରିଜୱାନଙ୍କୁ‌ ‌ବାହା‌ ‌ହେବା‌ ‌ଉଚିତ‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ବୁଝାଇଥିଲେ।‌ ‌“ସେ‌ ‌ସବୁକିଛି‌ ‌ହରାଇଛନ୍ତି,‌ ‌ମୋ‌ ‌ମା’‌ ‌ମୋତେ‌ ‌କହିଥିଲେ‌ ‌।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ମୋ‌ ‌ମା’‌ ‌ମୋତେ‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ସମର୍ପି‌ ‌ଦେଇଥିଲେ”,‌ ‌ଗୋଟିଏ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ନିଜ‌ ‌ଗ୍ରାମ‌ ‌ରେଠୋରା‌ ‌ଠାରୁ‌ ‌୧୫‌ ‌କିମି‌ ‌ଦୂର‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌କିଭଳି‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ଘର‌ ‌ପାଲଟିଲା‌ ‌ସେ‌ ‌ସମ୍ପର୍କରେ‌ ‌ମନେ‌ ‌ପକାଇ‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଏ‌ ‌ଦୁଇଟି‌ ‌ଗ୍ରାମ‌ ‌ଦେଶର‌ ‌ସବୁଠୁ‌ ‌ଦରିଦ୍ରତମ‌ ‌ଅଞ୍ଚଳ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ପରିଗଣିତ‌ ‌ହୋଇଥାଏ।

ଜାତୀୟ‌ ‌ରାଜଧାନୀଠାରୁ‌ ‌ପାଖାପାଖି‌ ‌୮୦‌ ‌କି.ମି‌ ‌ଦୂର‌ ‌ଫିରୋଜପୁର‌ ‌ବ୍ଲକ‌ ‌ଅନ୍ତର୍ଗତ‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌ଗ୍ରାମ‌ ‌ହରିୟାଣା‌ ‌ଓ‌ ‌ରାଜସ୍ଥାନ‌ ‌ସୀମାର‌ ‌ଆରାବଳୀ‌ ‌ପର୍ବତମାଳାର‌ ‌ପାଦଦେଶରେ‌ ‌ଅବସ୍ଥିତ‌ ‌।‌ ‌ଦିଲ୍ଲୀରୁ‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଯିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ରାସ୍ତା‌ ‌ଦକ୍ଷିଣ‌ ‌ହରିୟାଣାର‌ ‌ଗୁରୁଗ୍ରାମ‌ ‌ଦେଇ‌ ‌ଯାଇଥାଏ।‌ ‌ଗୁରୁଗ୍ରାମ‌ ‌ଏକ‌ ‌ଆର୍ଥିକ‌ ‌ଓ‌ ‌ଶିଳ୍ପ‌ ‌ସମୃଦ୍ଧ‌ ‌ସହର‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଏଠାକାର‌ ‌ମୁଣ୍ଡପିଛା‌ ‌ଆୟ‌ ‌ଭାରତରେ‌ ‌ତୃତୀୟ‌ ‌ସର୍ବାଧିକ।‌ ‌ଏ‌ ‌ସହର‌ ‌ଦେଇ‌ ‌ଦେଶର‌ ‌୪୪ତମ‌ ‌ସବୁଠୁ‌ ‌ପଛୁଆ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାକୁ‌ ‌ଯିବାକୁ‌ ‌ହୋଇଥାଏ।‌ ‌ଏଠାକାର‌ ‌ସବୁଜ‌ ‌କ୍ଷେତ,‌ ‌ଶୁଷ୍କ‌ ‌ପାହାଡ଼,‌ ‌ଦୁର୍ବଳ‌ ‌ଭିତ୍ତିଭୂମି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଜଳ‌ ‌ସଙ୍କଟ‌ ‌ଅନେକଙ୍କୁ‌ ‌ଆରିଫାଙ୍କ‌ ‌ଭଳି‌ ‌ଜୀବନ‌ ‌ଜିଇଁବାକୁ‌ ‌ବାଧ୍ୟ‌ ‌କରିଥାଏ।‌

ହରିୟାଣାର‌ ‌ଏହି‌ ‌ଭାଗର‌ ‌ଅଧିକାଂଶ‌ ‌ସ୍ଥାନରେ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ପଡ଼ୋଶୀ‌ ‌ରାଜସ୍ଥାନର‌ ‌କେତେକ‌ ‌ଭାଗରେ‌ ‌ମିଓ‌ ‌ମୁସଲିମ‌ ‌ସମୁଦାୟ‌ ‌ରହିଛନ୍ତି।‌ ‌(‌ ୨୦୧୧‌ ‌ଜନଗଣନା )‌‌ ‌ଅନୁଯାୟୀ‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ସମୁଦାୟ‌ ‌ଜନସଂଖ୍ୟାର‌ ‌୭୯.୨‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ହେଉଛନ୍ତି‌ ‌ମୁସଲିମ।

୧୯୭୦ରେ‌ ‌ଆରିଫାଙ୍କ‌ ‌ସ୍ୱାମୀ‌ ‌ରିଜୱାନ‌ ‌ବିୱାନଠାରୁ‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଗଲେ‌ ‌ଅଳ୍ପ‌ ‌ଦୂରରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ଏକ‌ ‌ବାଲି,‌ ‌ପଥର‌ ‌ଓ‌ ‌ସିଲିକା‌ ‌ଖଣିରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିବା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କରିଥିଲେ।‌ ‌ଆରିଫାଙ୍କ‌ ‌ଦୁନିଆ‌ ‌ପାହାଡ଼‌ ‌ଦ୍ୱାରା‌ ‌ଘେରି‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ରହିଥିଲା,‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ମୁଖ୍ୟ‌ ‌କାମ‌ ‌ଥିଲା‌ ‌ଜଳ‌ ‌ସଂଗ୍ରହ‌ ‌କରିବା।‌ ‌୨୨‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପୂର୍ବେ‌ ‌ରିଜୱାନ‌ ‌ଆରପାରିକୁ‌ ‌ଚାଲିଯିବା‌ ‌ପରେ‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌ନିଜେ‌ ‌ଓ‌ ‌ନିଜର‌ ‌୮‌ ‌ପିଲାଙ୍କ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ପେଟ‌ ‌ପୋଷିବା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ନିକଟସ୍ଥ‌ ‌ଏକ‌ ‌କ୍ଷେତରେ‌ ‌ଶ୍ରମିକ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିବା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କଲେ।‌ ‌ଦିନକୁ‌ ‌୧୦ରୁ‌ ‌୨୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ମିଳୁଥିଲା‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌“ଆମ‌ ‌ଲୋକମାନେ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌ତୁମେ‌ ‌ଯେତେ‌ ‌ସନ୍ତାନ‌ ‌ଲାଭ‌ ‌କରୁଛ‌ ‌କର,‌ ‌ସେମାନଙ୍କୁ‌ ‌ଆଲ୍ଲା‌ ‌ଦେବେ,”‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌

Aarifa: 'Using a contraceptive is considered a crime'; she had sprained her hand when we met. Right: The one-room house where she lives alone in Biwan
PHOTO • Sanskriti Talwar
Aarifa: 'Using a contraceptive is considered a crime'; she had sprained her hand when we met. Right: The one-room house where she lives alone in Biwan
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ଆରିଫା‌ ‌:‌ ‌“ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିବା‌ ‌ଏକ‌ ‌ଅପରାଧ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ଗ୍ରହଣ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ”;‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ଭେଟିବା‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ହାତ‌ ‌ଭାଙ୍ଗିଯାଇଥିଲା।‌ ‌

ଡାହାଣ‌ ‌:‌ ‌ସେ‌ ‌ଏକୁଟିଆ‌ ‌ରହୁଥିବା‌ ‌ବିୱାନର‌ ‌ସେହି‌ ‌ବଖୁରିକିଆ‌ ‌ଘର

ତାଙ୍କର‌ ‌୪‌ ‌ଝିଅ‌ ‌ବାହା‌ ‌ହୋଇସାରିଛନ୍ତି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଭିନ୍ନ‌ ‌ଭିନ୍ନ‌ ‌ଗାଁରେ‌ ‌ରହୁଛନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌୪‌ ‌ପୁଅ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ସହିତ‌ ‌ନିକଟରେ‌ ‌ରହୁଛନ୍ତି;‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌୩‌ ‌ଜଣ‌ ‌ଚାଷୀ‌ ‌ଓ‌ ‌ଜଣେ‌ ‌ଏକ‌ ‌ଘରୋଇ‌ ‌ସଂସ୍ଥାରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରୁଛନ୍ତି।‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌ନିଜର‌ ‌ବଖୁରିକିଆ‌ ‌ଘରେ‌ ‌ଏକାକୀ‌ ‌ରହିବା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ପସନ୍ଦ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ବଡ଼‌ ‌ପୁଅଙ୍କର‌ ‌୧୨‌ ‌ଜଣ‌ ‌ପିଲା‌ ‌ଅଛନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌ଦାବି‌ ‌କରନ୍ତି‌ ‌ଯେ‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ଭଳି‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ସବୁ‌ ‌ବୋହୂ‌ ‌କେବେ‌ ‌ହେଲେ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିନାହାନ୍ତି।‌ ‌“୧୨‌ ‌ପାଖାପାଖି‌ ‌ପିଲା‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ହେବା‌ ‌ପରେ‌ ‌ତାହା‌ ‌ଆପେ‌ ‌ଆପେ‌ ‌ବନ୍ଦ‌ ‌ହୋଇଯାଏ,‌ ‌ଆମ‌ ‌ଧର୍ମରେ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ବ୍ୟବହାରକୁ‌ ‌ଏକ‌ ‌ଅପରାଧ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ଗ୍ରହଣ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ”,‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।

ରିଜୱାନ‌ ‌ବୃଦ୍ଧାବସ୍ଥାରେ‌ ‌ଆରପାରିକୁ‌ ‌ଚାଲିଯାଇଥିବା‌ ‌ବେଳେ‌ ‌ମେୱାତ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ଅଧିକାଂଶ‌ ‌ମହିଳା‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମା‌ ‌ରୋଗରେ‌ ‌ସେମାନଙ୍କର‌ ‌ସ୍ୱାମୀଙ୍କୁ‌ ‌ହରାଇଥାନ୍ତି।‌ ‌ବିୱାନର‌ ‌୯୫୭‌ ‌ଜଣ‌ ‌ବାସିନ୍ଦା‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମା‌ ‌ରୋଗରେ‌ ‌ପୀଡ଼ିତ‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ପ୍ରାଣ‌ ‌ହରାଇଛନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଏମାନଙ୍କ‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌ଜଣେ‌ ‌ହେଉଛନ୍ତି‌ ‌ବାହାରଙ୍କ‌ ‌ସ୍ୱାମୀ‌ ‌ଦାନିଶ‌ ‌(ଛଦ୍ମନାମ)‌।‌ ‌‌୪୦ବର୍ଷ‌ ‌ଧରି‌ ‌ସେ‌ ‌ବିୱାନରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ନିଜ‌ ‌ଘରେ‌ ‌ରହିଆସୁଥିବା‌ ‌ବେଳେ‌ ‌୨୦୧୪ରେ‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମାରେ‌ ‌ପୀଡ଼ିତ‌ ‌ହେବା‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ତାଙ୍କ‌  ‌ସ୍ୱାମୀଙ୍କ‌ ‌ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟାବସ୍ଥା‌ ‌ସଙ୍କଟାପନ୍ନ‌ ‌ହେବାକୁ‌ ‌ଲାଗିଥିଲା।‌ ‌“ତାଙ୍କର‌ ‌ଛାତି‌ ‌ଯନ୍ତ୍ରଣା‌ ‌ହେଉଥିଲା‌ ‌ଏବଂ‌ ‌କାଶିବା‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌କଫରୁ‌ ‌ରକ୍ତ‌ ‌ପଡ଼ୁଥିଲା”,‌ ‌ବାହାର‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ବାହାରଙ୍କୁ‌ ‌ଏବେ‌ ‌ପାଖାପାଖି‌ ‌୬୦‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌ଝିଅ‌ ‌ସେହି‌ ‌ପାଖରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ଘରେ‌ ‌ରହୁଛନ୍ତି,‌ ‌ସମସ୍ତେ‌ ‌ସେହି‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ହିଁ‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମାରେ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ସ୍ୱାମୀଙ୍କୁ‌ ‌ହରାଇଛନ୍ତି।‌ ‌“ଲୋକମାନେ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌ଦୁର୍ଭାଗ୍ୟ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ଏହା‌ ‌ଘଟୁଛି।‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଆମର‌ ‌କହିବା‌ ‌କଥା‌ ‌ହେଲା‌ ‌ଏଥିପାଇଁ‌ ‌ପାହାଡ଼‌ ‌ଦାୟୀ।‌ ‌ଏ‌ ‌ପାହାଡ଼ଗୁଡ଼ିକ‌ ‌ଆମ‌ ‌ଜୀବନକୁ‌ ‌ନର୍କରେ‌ ‌ପରିଣତ‌ ‌କରିଦେଲାଣି”‌।‌

(ଫରିଦାବାଦ‌ ‌ଓ‌ ‌ପାର୍ଶ୍ୱବର୍ତ୍ତୀ‌ ‌ଅଞ୍ଚଳରେ‌ ‌ବ୍ୟାପକ‌ ‌କ୍ଷୟକ୍ଷତି‌ ‌ପରେ‌ ‌୨୦୦୨ରେ‌ ‌ହରିୟାଣାରେ‌ ‌ଖଣି‌ ‌ଖନନକୁ‌ ‌ସୁପ୍ରିମକୋର୍ଟ‌ ‌ନିଷିଦ୍ଧ‌ ‌କରିଥିଲେ।‌ ‌ସୁପ୍ରିମକୋର୍ଟଙ୍କ‌ ‌ରୋକ‌ ‌କେବଳ‌ ‌ପରିବେଶଜନିତ‌ ‌କ୍ଷତି‌ ‌ଆଧାରିତ‌ ‌ଥିଲା।‌ ‌ଏଥିରେ‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମା‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌ଉଲ୍ଲେଖ‌ ‌କରାଯାଇନଥିଲା।‌ ‌କେବଳ‌ ‌ଉପାଖ୍ୟାନ‌ ‌ମୂଳକ‌ ‌ତଥ୍ୟ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌କେତେକ‌ ‌ରିପୋର୍ଟ‌ ‌ଏ‌ ‌ଦୁଇଟିକୁ‌ ‌ଯୋଡ଼ିଥାଏ)‌

ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲା‌ ‌ମୁଖ୍ୟାଳୟଠାରୁ‌ ‌୭‌ ‌କିମି‌ ‌ଦୂର‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌ନିକଟସ୍ଥ‌ ‌ପ୍ରାଥମିକ‌ ‌ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌କେନ୍ଦ୍ର‌ ‌(ପିଏଚସି)ର‌ ‌କର୍ମଚାରୀ‌ ‌ପବନ‌ ‌କୁମାର‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌୨୦୧୯ରେ‌ ‌ରେକର୍ଡ‌ ‌ପରିମାଣର‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମା‌ ‌ଜନିତ‌ ‌ମୃତ୍ୟୁର‌ ‌ତଥ୍ୟ‌ ‌ପ୍ରଦାନ‌ ‌କରିଥିଲେ‌।‌‌ ‌ଏଥିରେ‌ ‌୪୫ବର୍ଷୀୟ‌ ‌ୱାଇଜଙ୍କର‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ପ୍ରାଣହାନି‌ ‌ଘଟିଥିଲା।‌ ‌ରେକର୍ଡ‌ ‌ଅନୁଯାୟୀ‌ ‌ଏବେ‌ ‌ବିୱାନର‌ ‌୭‌ ‌ଜଣ‌ ‌ପୁରୁଷ‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମା‌ ‌ଆକ୍ରାନ୍ତ‌ ‌ଅଛନ୍ତି।‌ ‌“ଆହୁରି‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ଥାଇପାରନ୍ତି,‌ ‌କାରଣ‌ ‌ଅଧିକାଂଶ‌ ‌ଡାକ୍ତରଖାନାକୁ‌ ‌ଆସିନଥାନ୍ତି”,‌ ‌କୁମାର‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌।‌

ୱାଇଜଙ୍କ‌ ‌ବିବାହ‌ ‌୪୦‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସ୍କ‌ ‌ଫୈଜା‌ ‌(ଛଦ୍ମ‌ ‌ନାମ)ଙ୍କ‌ ‌ସହିତ‌ ‌ହୋଇଥିଲା।‌ ‌ରାଜସ୍ଥାନର‌ ‌ଭରତପୁର‌ ‌ଜିଲ୍ଲାରେ‌ ‌ରହିଛି‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ଗ୍ରାମ‌ ‌ନୌଗାନୱା‌।‌‌ ‌“ସେଠାରେ‌ ‌କୌଣସି‌ ‌କାମ‌ ‌ନଥିଲା”‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌ ‌“ଖଣିରେ‌ ‌କାମ‌ ‌ପାଇବା‌ ‌ପରେ‌ ‌ମୋର‌ ‌ସ୍ୱାମୀ‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌ଚାଲିଆସିଲେ।‌ ‌ବର୍ଷକ‌ ‌ପରେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ପାଖକୁ‌ ‌ଆସିଲି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଏଠାରେ‌ ‌ଆମର‌ ‌ଘର‌ ‌ତିଆରି‌ ‌କଲୁ।”‌ ‌ଫାଇଜା‌ ‌୧୨‌ ‌ଜଣ‌ ‌ପିଲାଙ୍କୁ‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ଦେଲେ‌ ‌‌।‌‌ ‌ଅକାଳ‌ ‌ପ୍ରସବ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌୪‌ ‌ଜଣ‌ ‌ପ୍ରାଣ‌ ‌ହରାଇଲେ।‌ ‌“ଜଣେ‌ ‌ଭଲ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ବସିପାରୁନଥିଲା‌ ‌ଓ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ପୁଣି‌ ‌ଏକ‌ ‌ସନ୍ତାନକୁ‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ଦେଲି”,‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌

ସେ‌ ‌ଓ‌ ‌ଆରିଫା‌ ‌ଏବେ‌ ‌ମାସିକ‌ ‌୧,୮୦୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ମାସିକ‌ ‌ବିଧବା‌ ‌ଭତ୍ତାରେ‌ ‌ଚଳୁଛନ୍ତି।‌ ‌ସେମାନଙ୍କୁ‌ ‌କାମ‌ ‌ପ୍ରାୟତଃ‌ ‌ମିଳିନଥାଏ।‌ ‌“ଯଦି‌ ‌ଆମେ‌ ‌କାମ‌ ‌ମାଗିବୁ,‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌କହିବେ‌ ‌ତୁମେମାନେ‌ ‌ଭାରି‌ ‌ଦୁର୍ବଳ।‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌କହିବେ‌ ‌ଏହା‌ ‌୪୦‌ ‌କିଲୋ,‌ ‌(ଉଠାଇବୁ‌ ‌କେମିତି)?”,‌ ‌ସେମାନଙ୍କୁ‌ ‌ମିଳୁଥିବା‌ ‌ଅପବାଦ‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌୬୬‌ ‌ବର୍ଷୀୟା‌ ‌ବିଧବା‌ ‌ହାଦିୟା‌ ‌(ଛଦ୍ମନାମ)‌।‌ ‌ତେଣୁ‌ ‌ଭତ୍ତାର‌ ‌ପ୍ରତ୍ୟେକ‌ ‌ଟଙ୍କାକୁ‌ ‌ସଞ୍ଚିବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିଥାଏ।‌ ‌ସର୍ବନିମ୍ନ‌ ‌ଚିକିତ୍ସା‌ ‌ସେବା‌ ‌ପାଇବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ନୁହରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ପିଏଚସିକୁ‌ ‌ଯିବାକୁ‌ ‌ହେଲେ‌ ‌୧୦‌ ‌ଟଙ୍କା‌ ‌ଅଟୋ‌ ‌ଭଡ଼ା‌ ‌ଦେବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିଥାଏ,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଯାଇ‌ ‌ଫେରିଲେ‌ ‌ଏହି‌ ‌ଅର୍ଥ‌ ‌ସଞ୍ଚିତ‌ ‌ହୋଇଥାଏ।‌ ‌“ଆମେ‌ ‌ସବୁ‌ ‌ବୟସ୍କା‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌ଏକତ୍ରିତ‌ ‌କରିଥାଉ।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ସାଙ୍ଗ‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଯାଇଥାଉ।‌ ‌ବାଟରେ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଏକାଧିକ‌ ‌ବାର‌ ‌ବସି‌ ‌ରହି‌ ‌ବିଶ୍ରାମ‌ ‌ନେଇଥାଉ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ପୁଣି‌ ‌ଚାଲିବା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କରିଥାଉ।‌ ‌ଏମିତି‌ ‌ଆମର‌ ‌ସାରା‌ ‌ଦିନ‌ ‌ବିତିଯାଇଥାଏ”,‌ ‌ହାଦିୟା‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।‌

Bahar (left): 'People say it happened because it was our destiny. But we blame the hills'. Faaiza (right) 'One [child] barely learnt to sit, and I had another'
PHOTO • Sanskriti Talwar
Bahar (left): 'People say it happened because it was our destiny. But we blame the hills'. Faaiza (right) 'One [child] barely learnt to sit, and I had another'
PHOTO • Sanskriti Talwar

ବାହାର‌ ‌(ବାମ)‌ ‌:‌ ‌‘ଲୋକମାନେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌ଏହା‌ ‌ଆମର‌ ‌ଦୁର୍ଭାଗ୍ୟ।‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଏଥିପାଇଁ‌ ‌ପାହାଡ଼କୁ‌ ‌ଦାୟୀ‌ ‌କରୁଛୁ’‌।‌ ‌ଫାଇଜା‌ ‌(ଡାହାଣ)‌ ‌‘ଜଣେ‌ ‌(ପିଲା)‌ ‌ଠିକରେ‌ ‌ବସିପାରୁନଥିଲା‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଆଉ‌ ‌ଏକ‌ ‌ସନ୍ତାନ‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌କଲି’‌।‌

ପିଲାଦିନେ,‌ ‌ହାଦିୟା‌ ‌କେବେ‌ ‌ବି‌ ‌ସ୍କୁଲକୁ‌ ‌ଯାଇନଥିଲେ।‌ ‌ହରିୟାଣାର‌ ‌ସୋନପତରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ଚାଷ‌ ‌ଜମିରେ‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ମା’‌ ‌ଶ୍ରମିକ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରୁଥିଲେ,‌ ‌ମା’‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ସବୁକିଛି‌ ‌ଶିଖାଇଛନ୍ତି‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।‌ ‌ସେ‌ ‌୧୫‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସରେ‌ ‌ଫହିଦଙ୍କୁ‌ ‌ବାହା‌ ‌ହୋଇଥିଲେ।‌ ‌ଆରାବଳୀ‌ ‌ପାହାଡ଼ରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ଖଣିରେ‌ ‌ଫହିଦ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିବା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କରିବା‌ ‌ପରେ,‌ ‌ହାଦିୟାଙ୍କ‌ ‌ଶାଶୂ‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ଏକ‌ ‌ଖୁରପା‌ ‌(ମାଟି‌ ‌ଖୋଳିବା‌ ‌ସରଞ୍ଜାମ)‌ ‌ଦେଇ‌ ‌କ୍ଷେତରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌କହିଥିଲେ।

୨୦୦୫ରେ‌ ‌ଯକ୍ଷ୍ମାରେ‌ ‌ଆକ୍ରାନ୍ତ‌ ‌ହୋଇ‌ ‌ଫହିଦଙ୍କର‌ ‌ପ୍ରାଣହାନି‌ ‌ଘଟିଥିଲା।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ହାଦିୟା‌ ‌ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ଜଣେ‌ ‌କୃଷି‌ ‌ଶ୍ରମିକ‌ ‌ପାଲଟିଗଲେ।‌ ‌ଧାର‌ ‌ଆଣିବା‌ ‌ଓ‌ ‌ଫେରସ୍ତ‌ ‌କରିବା‌ ‌ତାଙ୍କ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ନିତିଦିନିଆ‌ ‌କଥା‌ ‌ପାଲଟିଗଲା।‌ ‌“ଦିନରେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌କ୍ଷେତରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରୁଥିଲି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ରାତିରେ‌ ‌ପିଲାମାନଙ୍କର‌ ‌ଯତ୍ନ‌ ‌ନେଉଥିଲି।‌ ‌(ମୋ‌ ‌ଜୀବନ‌ ‌ଫକୀରଙ୍କ‌ ‌ଭଳି‌ ‌ପାଲଟିଯାଇଥିଲା)”,‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌‌।

ତାଙ୍କ‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ପ୍ରସଙ୍ଗ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ହସ୍ତକ୍ଷେପ‌ ‌ସମ୍ପର୍କରେ‌ ‌ସଚେତନତା‌ ‌ଅଭାବ‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌ମତ‌ ‌ଦେଇ‌ ‌୪‌ ‌ପୁଅ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌୪‌ ‌ଝିଅଙ୍କ‌ ‌ମା’‌ ‌ହାଦିୟା‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌‌“‌ବାହାଘରର‌ ‌ଗୋଟିଏ‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପରେ‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ଏକ‌ ‌ଝିଅକୁ‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ଦେଲି।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌ଦୁଇ‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ତିନି‌ ‌ବର୍ଷରେ‌ ‌ଅବଶିଷ୍ଟ‌ ‌ପିଲାମାନେ‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ନେଉଥିଲେ।‌ ‌(ପୂର୍ବରୁ‌ ‌ସବୁକିଛି‌ ‌ବିଶୁଦ୍ଧ‌ ‌ଥିଲା)‌।‌”

ନୁହରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ଗୋଷ୍ଠୀ‌ ‌ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌କେନ୍ଦ୍ର‌ ‌(ସିଏଚସି)ରେ‌ ‌ବରିଷ୍ଠ‌ ‌ଚିକିତ୍ସା‌ ‌ଅଧିକାରୀ‌ ‌ଗୋବିନ୍ଦ‌ ‌ଶରନ‌ ‌ସେ‌ ‌ସମୟର‌ ‌କଥା‌ ‌ମନେ‌ ‌ପକାଇଥାନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌୩୦‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପୂର୍ବେ‌ ‌ସେ‌ ‌ଯେତେବେଳେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିବା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କଲେ,‌ ‌ସେତେବେଳେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌ଆଲୋଚନା‌ ‌କରିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ଲୋକମାନେ‌ ‌ଅସହଜ‌ ‌ମନେ‌ ‌କରୁଥିଲେ।‌ ‌ବର୍ତ୍ତମାନ‌ ‌ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ସେଭଳି‌ ‌ସ୍ଥିତି‌ ‌ନାହିଁ।‌ ‌“ପୂର୍ବରୁ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌କଥା‌ ‌କହିଲେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ଲୋକମାନେ‌ ‌ରାଗି‌ ‌ଯାଉଥିଲେ।‌ ‌ବର୍ତ୍ତମାନ‌ ‌ମିଓ‌ ‌ସମୁଦାୟର‌ ‌ଅଧିକାଂଶ‌ ‌ଦମ୍ପତି‌ ‌କପର-ଟି‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରୁଛନ୍ତି‌ ‌।‌ ‌ତଥାପି‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ଏବେ‌ ‌ବି‌ ‌ପରିବାରର‌ ‌ବୟସ୍କଙ୍କ‌ ‌ଠାରୁ‌ ‌ଏହାକୁ‌ ‌ଲୁଚାଇ‌ ‌ରଖୁଛନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଅଧିକାଂଶ‌ ‌କ୍ଷେତ୍ରରେ‌ ‌ମହିଳାମାନେ‌ ‌ଏହି‌ ‌କଥାକୁ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ଶାଶୂଙ୍କ‌ ‌ଠାରୁ‌ ‌ଲୁଚାଇ‌ ‌ରଖିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ଅନୁରୋଧ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି”,‌ ‌ଶରନ‌ ‌କୁହନ୍ତି।‌

ଜାତୀୟ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌ସର୍ବେକ୍ଷଣ-୪ ‌(୨୦୧୫-୧୬)ର‌ ‌ତଥ୍ୟ‌ ‌ଅନୁଯାୟୀ‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲା‌ ‌(ଗ୍ରାମାଞ୍ଚଳ)ର‌ ‌୧୫-୪୯‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସ୍କ‌ ‌ବିବାହିତା‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌୧୩.୫‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ପ୍ରକାରର‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ସୁବିଧାର‌ ‌ଉପଯୋଗ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି। ‌‌ ହରିୟାଣାରେ‌ ‌ମୋଟ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ହାର‌ ‌୨.୧ ତୁଳନାରେ‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାରେ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌‌ ୪.୯ (୨୦୧୧‌ ‌ଜନଗଣନା)‌ ‌ରହିଛି‌ ‌।‌ ‌ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ଗ୍ରାମାଞ୍ଚଳରେ‌ ‌୧୫-୪୯‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌୩୩.୬‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ଶିକ୍ଷିତ,‌ ‌୨୦-୨୪‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ବୟସ୍କ‌ ‌ବିବାହିତା‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ମଧ୍ୟରୁ‌ ‌୪୦ପ୍ରତିଶତ‌ ‌୧୮‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ପୂର୍ବରୁ‌ ‌ବାହା‌ ‌ହୋଇଯାଇଥାନ୍ତି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌୩୬.୭‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ମହିଳା‌ ‌ଡାକ୍ତରଖାନାରେ‌ ‌ପ୍ରସବ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି।

ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ଗ୍ରାମାଞ୍ଚଳରେ‌ ‌କପର-ଟି‌ ‌ଭଳି‌ ‌ଅନ୍ତଗର୍ଭାଶୟୀ‌ ‌ଉପକରଣ‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌୧.୨‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ମହିଳା‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିଥାନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଏହାର‌ ‌କାରଣ‌ ‌ହେଉଛି‌ ‌କପର-ଟିକୁ‌ ‌ଶରୀରରେ‌ ‌ଏକ‌ ‌ବିଦେଶୀ‌ ‌ବସ୍ତୁ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ଗ୍ରହଣ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ।‌ ‌“ଏପରି‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ଉପକରଣ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ଶରୀରରେ‌ ‌ଖଞ୍ଜିବା‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ଧର୍ମବିରୋଧୀ‌ ‌ବୋଲି‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ପ୍ରାୟତଃ‌ ‌କହିଥାନ୍ତି”,‌ ‌ବୋଲି‌ ‌କହୁନ୍ତି‌ ‌ନୁହ‌ ‌ପିଏଚସିରେ‌ ‌(ଏଏନଏମ)‌ ‌ଭାବେ‌ ‌କାର୍ଯ୍ୟରତ‌ ‌ସୁନୀତା‌ ‌ଦେବୀ।

Hadiyah (left) at her one-room house: 'We gather all the old women who wish to see a doctor. Then we walk along'. The PHC at Nuh (right), seven kilometres from Biwan
PHOTO • Sanskriti Talwar
Hadiyah (left) at her one-room house: 'We gather all the old women who wish to see a doctor. Then we walk along'. The PHC at Nuh (right), seven kilometres from Biwan
PHOTO • Sanskriti Talwar

ହାଦିୟା‌ ‌(ବାମ)‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ବଖୁରିକିଆ‌ ‌ଘରେ‌ ‌:‌ ‌‘ଡାକ୍ତର‌ ‌ଦେଖାଇବାକୁ‌ ‌ଚାହୁଁଥିବା‌ ‌ସମସ୍ତ‌ ‌ବୟସ୍କ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌ଆମେ‌ ‌ଏକତ୍ରିତ‌ ‌କରିଥାଉ।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ଚାଲିବା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କରିଥାଉ’‌।‌‌ ‌ନୁହରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ପିଏଚସି‌ ‌(ଡାହାଣ),‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌ଠାରୁ‌ ‌୭‌ ‌କିମି‌ ‌ଦୂର।‌

ସେହିପରି‌ ‌ଏନଏଫଏଚଏସ-୪‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ପୂରଣ‌ ‌ହେଉନଥିବା‌ ‌ଆବଶ୍ୟକତା‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌ଅଙ୍ଗୁଳି‌ ‌ନିର୍ଦ୍ଦେଶ‌ ‌କରିଥାଏ-‌ ‌ତାହା‌ ‌ହେଉଛି-‌ ‌ମହିଳାମାନେ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିନଥାନ୍ତି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ପରବର୍ତ୍ତୀ‌ ‌ସନ୍ତାନ‌ ‌ପ୍ରସବ‌ ‌(ବ୍ୟବଧାନ‌ ‌ମାଧ୍ୟମରେ)କୁ‌ ‌ଘୁଞ୍ଚାଇବାକୁ‌ ‌ଚାହାନ୍ତି‌ ‌କିମ୍ବା‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ନିୟନ୍ତ୍ରଣ‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌ଚାହାନ୍ତି-‌ ‌ଏହି‌ ‌ହାର‌ ‌ଗ୍ରାମାଞ୍ଚଳରେ‌ ‌୨୯.୪‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ରହିଛି।‌

“‌ନୁହ‌ ‌ମୁଖ୍ୟତଃ‌ ‌ମୁସଲିମବହୁଳ‌ ‌ଅଞ୍ଚଳ‌ ‌ହୋଇଥିବା‌ ‌ବେଳେ‌ ‌ସାମାଜିକ‌ ‌ଅର୍ଥନୈତିକ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ପଦ୍ଧତି‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌ଖୁବ‌ ‌କମ୍‌‌ ‌ଲୋକ‌ ‌ଆଗ୍ରହୀ‌ ‌ଥାଆନ୍ତି‌ ‌‌।‌‌ ‌ଏହି‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ଅପୂରଣୀୟ‌ ‌ଆବଶ୍ୟକତା‌ ‌ହାର‌ ‌ଏହି‌ ‌ଅଞ୍ଚଳରେ‌ ‌ଖୁବ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ରହିଛି।‌ ‌ସାଂସ୍କୃତିକ‌ ‌ପ୍ରସଙ୍ଗର‌ ‌ବଡ଼‌ ‌ଭୂମିକା‌ ‌ରହିଛି।‌ ‌ସେମାନେ‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌(ପିଲାମାନେ‌ ‌ତ’‌ ‌ଆଲ୍ଲାଙ୍କ‌ ‌ଦାନ)”,‌ ‌କୁହନ୍ତି‌ ‌ହରିୟାଣାର‌ ‌ପରିବାର‌ ‌କଲ୍ୟାଣ‌ ‌ଚିକିତ୍ସା‌ ‌ଅଧିକାରୀ‌ ‌ଡା.‌ ‌ରୁଚି‌ ‌(ସେ‌ ‌କେବଳ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌ପ୍ରଥମ‌ ‌ନାମ‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିଥାନ୍ତି)‌ ‌‌।‌‌ ‌“ସ୍ୱାମୀଙ୍କ‌ ‌ସହଯୋଗ‌ ‌ରହିଲେ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ସେ‌ ‌ଆଣି‌ ‌ଦେଲେ‌ ‌ହିଁ‌ ‌ସ୍ତ୍ରୀ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ବଟିକା‌ ‌ନିୟମିତ‌ ‌ଖାଇପାରିବେ।‌ ‌କପର‌ ‌-‌ ‌ଟି,‌ ‌(ତମ୍ବାର‌ ‌ଟି‌ ‌ଆକାରର‌ ‌ତାରରୁ‌ ‌ଗୋଟିଏ‌ ‌ସୁତା‌ ‌ଝୁଲି‌ ‌ରହିଥାଏ)‌।‌ ‌ତେବେ‌ ‌ଇଞ୍ଜେକସନ‌ ‌ମାଧ୍ୟମରେ‌ ‌ଦିଆଯାଉଥିବା‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ଅନ୍ତରା‌ ‌ଆରମ୍ଭ‌ ‌କରାଯିବା‌ ‌ପରେ‌ ‌ଏବେ‌ ‌ସ୍ଥିତିରେ‌ ‌ସୁଧାର‌ ‌ଆସିଛି।‌ ‌ଏହି‌ ‌ନିର୍ଦ୍ଦିଷ୍ଟ‌ ‌ପଦ୍ଧତିରେ‌ ‌ପୁରୁଷଙ୍କର‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ହସ୍ତକ୍ଷେପ‌ ‌ନଥାଏ।‌ ‌ମହିଳାମାନେ‌ ‌ଡାକ୍ତରଖାନାକୁ‌ ‌ଆସି‌ ‌ଏହି‌ ‌ସୁବିଧା‌ ‌ପାଇପାରିବେ”‌ ‌‌।

ଥରେ‌ ‌ଇଞ୍ଜେକସନ‌ ‌ମାଧ୍ୟମରେ‌ ‌ଅନ୍ତରା‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ନେଲେ‌ ‌ଏହା‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌୩‌ ‌ମାସ‌ ‌ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ‌ ‌ଗର୍ଭଧାରଣରୁ‌ ‌ସୁରକ୍ଷିତ‌ ‌ରଖିଥାଏ।‌ ‌ଏହି‌ ‌ପଦ୍ଧତି‌ ‌ହରିୟାଣାରେ‌ ‌ବେଶ‌ ‌ଲୋକପ୍ରିୟ‌ ‌ହୋଇପାରିଛି।‌ ‌୨୦୧୭ରେ‌ ‌ପ୍ରଥମ‌ ‌ରାଜ୍ୟ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ହରିୟାଣାରେ‌ ‌ଇଞ୍ଜେକସନ‌ ‌ମାଧ୍ୟମରେ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ପଦ୍ଧତିକୁ‌ ‌ଗ୍ରହଣ‌ ‌କରାଯାଇଥିଲା।‌ ‌ସେବେଠାରୁ‌ ‌୧୬‌ ‌ହଜାରରୁ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ମହିଳା‌ ‌ଏହାକୁ‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିସାରିଲେଣି।‌ ‌୨୦୧୮-୧୯ରେ‌ ‌ବିଭାଗ‌ ‌ପକ୍ଷରୁ‌ ‌ଧାର୍ଯ୍ୟ‌ ‌କରାଯାଇଥିବା‌ ‌ଲକ୍ଷ୍ୟ‌ ‌୧୮‌ ‌ହଜାର‌ ‌ତୁଳନାରେ‌ ‌ଏହା‌ ‌୯୨.୩‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ବୋଲି‌ ପ୍ରକାଶିତ‌ ‌ଖବର ରୁ‌ ‌ଜଣାଯାଇଛି।‌

ଯଦିଓ‌ ‌ଇଞ୍ଜେକ୍ସନ‌ ‌ମାଧ୍ୟମରେ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ଗ୍ରହଣ‌ ‌ଧାର୍ମିକ‌ ‌କଟକଣାକୁ‌ ‌ଦୂର‌ ‌କରିବାରେ‌ ‌ସଫଳ‌ ‌ହୋଇଥାଏ,‌ ‌ଅନ୍ୟ‌ ‌କେତେକ‌ ‌କାରଣ,‌ ‌ବିଶେଷ‌ ‌କରି‌ ‌ସଂଖ୍ୟାଲଘୁ‌ ‌ସମୁଦାୟ‌ ‌ମଧ୍ୟରେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ସେବା‌ ‌ପହଞ୍ଚାଇବା‌ ‌କ୍ଷେତ୍ରରେ‌ ‌ବାଧକ‌ ‌ସାଜିଥାଏ।‌ ‌ଅଧ୍ୟୟନରୁ‌ ‌ଜଣାପଡ଼ିଛି‌ ‌ଯେ,‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌ସେବା‌ ‌ପ୍ରଦାନକାରୀମାନଙ୍କର‌ ‌ଉଦାସୀନ‌ ‌ମନୋଭାବ,‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟକେନ୍ଦ୍ରରେ‌ ‌ଦୀର୍ଘ‌ ‌ସମୟ‌ ‌ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ‌ ‌ଅପେକ୍ଷା‌ ‌କରିବା‌ ‌ଆଦି‌ ‌କାରଣ‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌ସକ୍ରିୟ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ପରାମର୍ଶ‌ ‌ଗ୍ରହଣ‌ ‌କରିବାରୁ‌ ‌ବିରତ‌ ‌କରିଥାଏ।‌

ସେହତ‌ ‌(ମୁମ୍ବାଇସ୍ଥିତ‌ ‌ସେଣ୍ଟର‌ ‌ଫର‌ ‌ଏନକ୍ୱାରୀ‌ ‌ଇନ‌ ‌ଟୁ‌ ‌ହେଲ୍ଥ‌ ‌ଆଣ୍ଡ‌ ‌ଆଲାଏଡ‌ ‌ଥିମ୍ସ)‌ ‌ପକ୍ଷରୁ‌ ‌୨୦୧୩ରେ‌ ‌ଏକ‌ ଅଧ୍ୟୟନ ‌‌କରାଯାଇଥିଲା।‌ ‌ଏଥିରେ‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌କେନ୍ଦ୍ରଗୁଡ଼ିକରେ‌ ‌ବିଭିନ୍ନ‌ ‌ସମୁଦାୟର‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌ହେଉଥିବା‌ ‌ବ୍ୟବହାରକୁ‌ ‌ଅନୁଧ୍ୟାନ‌ ‌କରାଯାଇଥିଲା।‌ ‌ଏଥିରୁ‌ ‌ଜଣାପଡ଼ିଥିଲା‌ ‌ଯେ‌ ‌ଯଦିଓ‌ ‌ଶ୍ରେଣୀ‌ ‌ଆଧାରରେ‌ ‌ସମସ୍ତ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌ଭେଦଭାବର‌ ‌ଶୀକାର‌ ‌ହେବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିଥାଏ,‌ ‌ମୁସଲିମ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ପସନ୍ଦକୁ‌ ‌ନେଇ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ଅପବାଦର‌ ‌ସମ୍ମୁଖୀନ‌ ‌ହେବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିଥାଏ।‌ ‌ଅନେକ‌ ‌କ୍ଷେତ୍ରରେ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ସମୁଦାୟ‌ ‌ସମ୍ପର୍କରେ‌ ‌ନକାରାତ୍ମକ‌ ‌ମନ୍ତବ୍ୟ‌ ‌ଦିଆଯାଏ‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ପ୍ରସବ‌ ‌ଗୃହରେ‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ପ୍ରତି‌ ‌ନିନ୍ଦନୀୟ‌ ‌ଆଚରଣ‌ ‌କରାଯାଇଥାଏ।

Biwan village (left) in Nuh district: The total fertility rate (TFR) in Nuh is a high 4.9. Most of the men in the village worked in the mines in the nearby Aravalli ranges (right)
PHOTO • Sanskriti Talwar
Biwan village (left) in Nuh district: The total fertility rate (TFR) in Nuh is a high 4.9. Most of the men in the village worked in the mines in the nearby Aravalli ranges (right)
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ନୁହ‌ ‌ଜିଲ୍ଲାର‌ ‌ବିୱାନ‌ ‌ଗ୍ରାମ‌ ‌:‌ ‌ନୁହରେ‌ ‌ମୋଟ‌ ‌ପ୍ରଜନନ‌ ‌ହାର‌ ‌(ଟିଏଫଆର)‌ ‌ଉଚ୍ଚ‌ ‌୪.୯ରେ‌ ‌ରହିଛି।‌ ‌ବିୱାନର‌ ‌ ଅଧିକାଂଶ‌ ‌ପୁରୁଷ‌ ‌ଆରାବଳୀ‌ ‌ପର୍ବତମାଳା‌ ‌(ଡାହାଣ)ରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ଖଣିଗୁଡ଼ିକରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି‌ ‌।‌

ସେହତର‌ ‌ସଂଯୋଜକ‌ ‌ସଙ୍ଗୀତା‌ ‌ରିଗେ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ସରକାରଙ୍କ‌ ‌ପକ୍ଷରୁ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ଅନେକ‌ ‌ଯୋଜନା‌ ‌ରହିଛି।‌ ‌ତେବେ‌ ‌ସମସ୍ତ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧ‌ ‌ପଦ୍ଧତି‌ ‌ସାଧାରଣତଃ‌  ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌ସେବା‌ ‌ପ୍ରଦାନକାରୀମାନେ‌ ‌ଚୟନ‌ ‌କରିଥାନ୍ତି।‌ ‌ମୁସଲିମ‌ ‌ସମୁଦାୟର‌ ‌ମହିଳାମାନେ‌ ‌ସମ୍ମୁଖୀନ‌ ‌ହେଉଥିବା‌ ‌ପ୍ରତିବନ୍ଧକକୁ‌ ‌ବୁଝିବାର‌ ‌ଆବଶ୍ୟକତା‌ ‌ରହିଛି‌ ‌ଏବଂ‌ ‌ସେମାନଙ୍କୁ‌ ‌ଉପଯୁକ୍ତ‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧ‌ ‌ବିକଳ୍ପ‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌ଆଲୋଚନାରେ‌ ‌ସମ୍ପୃକ୍ତ‌ ‌କରାଯିବା‌ ‌ଉଚିତ।‌

ନୁହରେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ସଂକ୍ରାନ୍ତରେ‌ ‌ଉଚ୍ଚ‌ ‌ଅପୂରଣୀୟ‌ ‌ଆବଶ୍ୟକତା‌ ‌ରହିଥିଲେ‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ଏନଏଫଏଚଏସ-୪‌ ‌(୨୦୧୫-୧୬)‌ ‌ରିପୋର୍ଟରୁ‌ ‌ଜଣାପଡ଼ିଛି‌ ‌ଯେ‌ ‌କେବେ‌ ‌ବି‌ ‌ଗର୍ଭନିରୋଧକ‌ ‌ବ୍ୟବହାର‌ ‌କରିନଥିବା‌ ‌ଗ୍ରାମାଞ୍ଚଳର‌ ‌ମାତ୍ର‌ ‌୭.୩‌ ‌ପ୍ରତିଶତ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ନିକଟରେ‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌କର୍ମୀମାନେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌ପରାମର୍ଶ‌ ‌ଦେବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ପହଞ୍ଚିପାରିଛନ୍ତି।

୨୮‌ ‌ବର୍ଷୀୟା‌ ‌ଆଶା‌ ‌କର୍ମୀ‌ ‌ସୁମନ‌ ‌ଗତ‌ ‌୧୦‌ ‌ବର୍ଷ‌ ‌ହେବ‌ ‌ବିୱାନରେ‌ ‌କାମ‌ ‌କରି‌ ‌ଆସୁଛନ୍ତି।‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌ଅଧିକାଂଶ‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ମାନସିକ‌ ‌ଭାବେ‌ ‌ପ୍ରସ୍ତୁତ‌ ‌ହେବା‌ ‌ନିମନ୍ତେ‌ ‌ସେ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌କହିଥାନ୍ତି,‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ମହିଳାମାନେ‌ ‌ତାଙ୍କୁ‌ ‌ନିଜ‌ ‌ନିଷ୍ପତ୍ତି‌ ‌ବିଷୟରେ‌ ‌ଜଣାଇଥାନ୍ତି‌ ‌‌।‌ ‌ସୁମନ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌ଏହି‌ ‌ଅଞ୍ଚଳରେ‌ ‌ବିପର୍ଯ୍ୟସ୍ତ‌ ‌ଭିତ୍ତିଭୂମି‌ ‌ମଧ୍ୟ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କ‌ ‌ନିକଟରେ‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌ସେବା‌ ‌ପହଞ୍ଚାଇବା‌ ‌କ୍ଷେତ୍ରରେ‌ ‌ବାଧକ‌ ‌ସାଜିଥାଏ।‌ ‌ଏହା‌ ‌ସବୁ‌ ‌ମହିଳାମାନଙ୍କୁ‌ ‌ପ୍ରଭାବିତ‌ ‌କରିଥାଏ,‌ ‌କିନ୍ତୁ‌ ‌ବୟସ୍କମାନଙ୍କୁ‌ ‌ଅଧିକ।

ସୁମନ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ନୁହରେ‌ ‌ଥିବା‌ ‌ପିଏଚସିକୁ‌ ‌ଯିବା‌ ‌ଲାଗି‌ ‌ଏକ‌ ‌ଅଟୋ‌ ‌ଧରିବା‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌ଆମକୁ‌ ‌ଘଣ୍ଟା‌ ‌ଘଣ୍ଟା‌ ‌ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ‌ ‌ଅପେକ୍ଷା‌ ‌କରିବାକୁ‌ ‌ପଡ଼ିଥାଏ।‌ ‌ପରିବାର‌ ‌ନିୟୋଜନ‌ ‌କଥା‌ ‌ଛାଡ଼ନ୍ତୁ,‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ‌ ‌ପ୍ରସଙ୍ଗରେ‌ ‌କାହାକୁ‌ ‌ଡାକ୍ତରଖାନାକୁ‌ ‌ନେବା‌ ‌କଷ୍ଟକର‌ ‌ବ୍ୟାପାର।‌ ‌ଚାଲି‌ ‌ଚାଲିଯିବା‌ ‌ସେମାନଙ୍କ‌ ‌ପାଇଁ‌ ‌କଷ୍ଟକର।‌ ‌ମୁଁ‌ ‌ପ୍ରକୃତରେ‌ ‌ଅସହାୟ”‌।‌

ବାହାର‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌ବହୁ‌ ‌ଦଶନ୍ଧି‌ ‌ଧରି‌ ‌ଏଠାରେ‌ ‌ଏହି‌ ‌ସମସ୍ୟା‌ ‌ରହିଛି।‌ ‌ବିଗତ‌ ‌୪୦‌ ‌ବର୍ଷରୁ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌ହେବ‌ ‌ସେ‌ ‌ଏଠାରେ‌ ‌ରହିଲେଣି।‌ ‌ଏହି‌ ‌ସମୟରେ‌ ‌ଅଧିକ‌ ‌କିଛି‌ ‌ବଦଳି‌ ‌ନାହିଁ‌ ‌‌।‌‌ ‌ଅକାଳ‌ ‌ପ୍ରସବ‌ ‌କାରଣରୁ‌ ‌ତାଙ୍କର‌ ‌୭‌ ‌ଟି‌ ‌ପିଲା‌ ‌ପ୍ରାଣ‌ ‌ହରାଇଥିଲେ।‌ ‌ଏହାପରେ‌ ‌ଜନ୍ମ‌ ‌ହୋଇଥିବା‌ ‌୬‌ ‌ଜଣ‌ ‌ବଞ୍ଚି‌ ‌ରହିଲେ।‌ ‌ସେ‌ ‌କୁହନ୍ତି,‌ ‌“ସେତେବେଳେ‌ ‌ଏଠାରେ‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ଡାକ୍ତରଖାନା‌ ‌ନଥିଲା।‌ ‌ତଥାପି‌ ‌ଗାଁରେ‌ ‌ଆମ‌ ‌ପାଖରେ‌ ‌କୌଣସି‌ ‌ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟକେନ୍ଦ୍ର‌ ‌ନଥିଲା”‌।‌

ପ୍ରଚ୍ଛଦ‌ ‌‌ଅଳଙ୍କରଣ‌:‌ ପ୍ରିୟଙ୍କା‌ ‌‌ବୋରାର‌ ଜଣେ‌ ‌‌ନ୍ୟୁ‌ ‌‌ମିଡିଆ‌ ‌‌ଆର୍ଟିଷ୍ଟ‌ ‌‌ସେ‌ ‌‌ପ୍ରଯୁକ୍ତି‌ ‌‌ଏବଂ‌ ‌‌ଅର୍ଥ‌ ‌‌ଓ‌ ‌‌ଅଭିବ୍ୟକ୍ତିର‌ ‌‌ନୂଆ‌ ‌‌ରୂପ‌ ‌ ଆବିଷ୍କାର‌ ‌‌କରିବା‌ ‌‌କ୍ଷେତ୍ରରେ‌ ‌‌କାର୍ଯ୍ୟ‌ ‌‌କରିଥାନ୍ତି‌ ‌‌।‌ ‌‌ସେ‌ ‌‌ଇଣ୍ଟରଆକ୍ଟିଭ‌ ‌‌ମିଡିଆ‌ ‌‌ଓ‌ ‌‌ଡିଜାଇନକୁ‌ ‌‌ନେଇ‌ ‌‌ନୂଆ‌ ‌‌ନୂଆ‌ ‌ ପରୀକ୍ଷା‌‌ ‌‌କରିଥାନ୍ତି‌‌ ‌‌ଏବଂ‌‌ ‌‌ତାଙ୍କର‌‌ ‌‌ପାରମ୍ପରିକ‌‌ ‌‌କଲମ‌‌ ‌‌ଓ‌‌ ‌‌କାଗଜରେ‌‌ ‌‌କଳାକୃତି‌‌ ‌‌କରିବାର‌‌ ‌‌ଅଭ୍ୟାସ‌‌ ‌‌ମଧ୍ୟ‌‌ ‌‌ରହିଛି‌‌ ‌‌।‌

ସାଧାରଣ‌ ‌‌ଲୋକଙ୍କ‌ ‌‌ଅଭିଜ୍ଞତା‌ ‌‌ଓ‌ ‌‌ଅନୁଭୂତି‌ ‌‌ଶୁଣିବା‌ ‌‌ଜରିଆରେ‌,‌ ‌‌ସମାଜର‌ ‌‌ଏହି‌ ‌‌ଗୁରୁତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ‌ ‌‌କିନ୍ତୁ‌ ‌‌ବଞ୍ଚିତ‌ ‌‌ବର୍ଗର‌ ‌ ଲୋକମାନଙ୍କ‌ ‌‌ସ୍ଥିତି‌ ‌‌ଲୋକଲୋଚନକୁ‌ ‌‌ଆଣିବା‌ ‌‌ଲାଗି‌ ‌‌ପପୁଲେସନ‌ ‌‌ଫାଉଣ୍ଡେସନ‌ ‌‌ଅଫ‌ ‌‌ଇଣ୍ଡିଆର‌ ‌‌ଏକ‌ ‌‌ଅଂଶବିଶେଷ‌ ‌ ସ୍ୱରୂପ‌ ‌‌ପରୀ‌ ‌‌ଓ‌ ‌‌କାଉଣ୍ଟର‌ ‌‌ମିଡିଆ‌ ‌‌ଟ୍ରଷ୍ଟ‌ ‌‌ଗ୍ରାମୀଣ‌ ‌‌ଭାରତର‌ ‌‌କିଶୋରୀ‌ ‌‌ଓ‌ ‌‌ଯୁବତୀଙ୍କ‌ ‌‌ଉପରେ‌ ‌‌ଏକ‌ ‌‌ଦେଶବ୍ୟାପୀ‌ ‌ ରିପୋର୍ଟିଂ‌‌ ‌‌ପ୍ରୋଜେକ୍ଟ‌‌ ‌‌କାର୍ଯ୍ୟକାରୀ‌‌ ‌‌କରୁଛି‌‌ ‌‌।‌

ଏହି‌ ‌‌ସ୍ତମ୍ଭକୁ‌ ‌‌ପ୍ରକାଶ‌ ‌‌କରିବାକୁ‌ ‌‌ଚାହୁଁଛନ୍ତି‌ ‌‌କି‌?‌ ‌‌ଦୟାକରି‌ ‌‌[email protected]‌,‌ ‌[email protected]‌‌ ‌‌ରେ‌‌ ‌‌ଯୋଗାଯୋଗ‌‌ ‌‌କରନ୍ତୁ‌‌ ‌‌।

ଅନୁବାଦ: ଓଡ଼ିଶାଲାଇଭ୍‍

Anubha Bhonsle is a 2015 PARI fellow, an independent journalist, an ICFJ Knight Fellow, and the author of 'Mother, Where’s My Country?', a book about the troubled history of Manipur and the impact of the Armed Forces Special Powers Act.

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Sanskriti Talwar

Sanskriti Talwar is an independent journalist based in New Delhi, and a PARI MMF Fellow for 2023.

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Priyanka Borar is a new media artist experimenting with technology to discover new forms of meaning and expression. She likes to design experiences for learning and play. As much as she enjoys juggling with interactive media she feels at home with the traditional pen and paper.

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Sharmila Joshi is former Executive Editor, People's Archive of Rural India, and a writer and occasional teacher.

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