सगरे जिनगी
दिन रात नाव खेवत रहनी
किनारा दूर तकले ना लउकत रहे.
केतना बिसाल समुंदर
एक दिन कस के तूफान आइल
कुच्छो ना सूझल
मंझधार में रहम, कि किनारे लागम,
बाकिर एको हिम्मत ना हारनी
खेवत गइनी, नाव खेवत गइनी.

आउर सांचो, ऊ आपन जिनगी के अंतिम घड़ी में भी फेफड़ा के कैंसर से जूझत रहलन.

सभ कुछ बहुत तकलीफ देवे वाला रहे. उनकरा सांस लेवे में अक्सरहा बहुते कष्ट होखे. जोड़ में दरद रहत रहे. खून के कमी, कम वजन आउर ना जाने केतना सभ परेसानी से जूझत रहलन. जादे देर बइठ ना सकत रहस, थाक जास. एतना तकलीफ में होखला के बावजूद ऊ हमनी से भेंट कइलन. अस्पताल के आपन कमरा में हमनी से आपन जिनगी आउर कविता के बहुते बात सुनइलन.

एह धरती पर अइलन, तबे से जिनगी उनकरा खातिर एगो कठिन डगर रहल. दाहोद के इटावा गांव में साल 1963 में एगो बहुते गरीब भील आदिवासी परिवार में उनकर जनम भइल, जइसन कि उनकर आधार कार्ड बतावत बा.

बाऊजी चिस्का भाई आउर माई चतुरा बेन के ज्येष्ठ संतान के रूप में ऊ आपन जिनगी के जेतना बात कहलन, ओह में बेर-बेर एके शब्द आवत रहे, “गरीबी... गरीबी.” फेरु एगो छोट विराम. मुंह दोसर ओरी फेर के आपन धंसल आंख मीचे लगलन. आपन लरिकाई के कष्ट भरल दिन के ऊ चाह के भी भुला ना सकलन. ओह घरिया के एक-एक बात उऩकरा आंख के आगू तइरत रहल. “पेट भर खाए खातिर कबो पइसा ना जुड़त रहे.”

जिनगी खत्म हो जाई
बाकिर रोज के भागदौड़ चलत रही.
रोटी के ताकत
जादे बा
धरती के ताकत से.
भूख से छटपटात एगो आदमिए समझेला
रोटी के मतलब,
आउर ऊ हमनी के कहंवा ले जाई.

कैजर मेडिकल नर्सिंग होम के आपन बेड पर वजेसिंह हमनी के आपन कविता सुनावे लगले. इहंई उनकर इलाज चलत रहे

आदिवासी कवि आपन कविता सुनावत बाड़न

वजेसिंह कबूल कइलन, “कहे के त ना चाहीं, बाकिर माई-बाऊजी लोग अइसन रहे, जेकरा पर कवनो गुमान ना कइल जा सकत रहे,” आउर उनकर पहिलहीं से झुकल देह, गहिर पीड़ा आउर शरम से आउरो झुक गइल. “पता बा हमरा अइसन बात ना कहे के चाहीं, बाकिर कहा गइल.” उनकर 85 बरिस के बूढ़ माई नर्सिंग होम के ओह छोट कमरा के एगो कोना में टिन के स्टूल पर बइठल रहस. उनकरा जादे सुनाई ना देवेला. “बाऊजी-माई के छुटपने से संघर्ष करत देखनी. ऊ लोग खेत में मजूरी करत रहे.” वजेसिंह के दू बहिन आउर चार गो भाई लोग बा. परिवार गांव में ईंट-माटी के एगो कमरा वाला घर में रहेला. वजेसिंह काम खोजत इटावा से अहमदाबाद अइलन, त उहंवा एगो बहुते छोट थलतेज चॉल में किराया पर रहे लगलन. कोठरी बहुते तंग रहे. जगह अइसन रहे, जहंवा उनकर गहिर संगी-साथी लोग भी कबो-कबो ही जा पावत रहे.

ठाड़ होखीं
त माथा छत से ठेका जाए
देह सीधा करीं
त देवाल लाग जाए.
जिनगी इहे एक बित्ता जगह में,
कैद बीत गइल.
एक चीज बहुते काम आइल
माई के कोख में
गठरी जेका देह मोड़े के रहे के आदत.

अभाव के कहानी अकेला वजेसिंह के नइखे. एह इलाका में भूख, तंगहाली जाने कब्बे से डेरा जमवले बा. दाहोद जिला के करीब 74 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजाति से बा. एह में से 90 प्रतिशत लोग खेतिहर मजूर बा. खेत के जोत छोट होखे, जमीन कम उपजाऊ होखे आउर सूखा आउर अकाल ग्रस्त इलाका होखे के चलते खेती से केहू के पेट ना भरे. नयका सर्वेक्षण के मानल जाव, त एह इलाका में गरीबी दर राज्य में सबले जादे, 38.27 प्रतिशत बा.

वजेसिंह के माई चतुराबेन आपन जिनगी के बारे में कुछ एह तरीका से बतावे लगली, “घनी तकली करी ने मोटा करिया से ए लोकोने धंधा करी करी ने. मझूरी करीने, घेरनू करिने, बीझानु करिने खवड़ावियू से.” (बहुते मिहनत कइनी. घरे खटनी, बाहिर खटनी, तब जाके लरिका सभ के पेट भरे खातिर कुछ जुटा पाईं.)” केतना बेरा ऊ लोग के लपसी (ज्वार के) खा के सुते के पड़े, बच्चा लोग के भुखले पेट स्कूल जाए के पड़े. ऊ कहतारी, लरिका लोग के बहुते तकलीफ से पाल-पोस के बड़ा कइनी.

गुजरात के वंचित समुदाय खातिर आवाज उठावे वाला पत्रिका, निर्धार के 2009 के अंक खातिर दु-हिस्सा में लिखल गइल आपन संस्मरण में वजेसिंह एगो बड़ दिल वाला आदिवासी परिवार के किस्सा बतावत बाड़न. ओह दिन सांझ के आपन दुआरी पर आइल छोट लइका लोग के पेट भरे खातिर, जोखो दामोर आउर उनकर परिवार भुखले सुत गइल. दरअसल भइल का कि स्कूल से लउटे घरिया पांच गो लइका लोग भारी बरखा में रस्ता में घेरा गइल. पानी से बचे खातिर ऊ लोग जोखो परिवार के घर असरा लेलक. वजेसिंह बतावत बाड़न, “भादरवो में हमनी इहंवा लोग के अइसहीं भुखले सुते के पड़ेला.” भादरवो गुजरात में प्रचलित हिंदू विक्रम संवत कैलेंडर के हिसाब से ग्यारहवां महीना बा. ई महीना आमतौर पर ग्रेगोरियन कैलेंडर (दुनिया के जादेतर हिस्सा में इस्तेमाल होखे वाला) के हिसाब से सितंबर होखेला.

“एह महीना में घर में अऩाज के भंडार समाप्त हो जाला. खेत में जे अनाज बोवल रहेला, ऊ अबही खाए लायक तइयार ना रहे. एह तरह से खेत में अनाज लहलहात होखला के बावजूद हमनी के भाग में भुखले मरल बदल रहेला. भादरवो में कुछ गिनल-चुनल संपन्न घर में ही दुनो बखत चूल्हा जरेला. आउर जदि पछिला बरिस अकाल पड़ल होखे, त केतना परिवार उबलल भात, चाहे भुंजल महुआ पर गुजारा करेला. हमनी जवन समाज में पैदा भइनी, ओकरा अकाट्य गरीबी के श्राप बा.

Left: The poet’s house in his village Itawa, Dahod.
PHOTO • Umesh Solanki
Right: The poet in Kaizar Medical Nursing Home with his mother.
PHOTO • Umesh Solanki

दाहोद के इटावा में कवि के घर. दहिना: कवि आपन माई संगे कैजर मेडिकल नर्सिंग होम में

वजेसिंह के कहनाम रहे कि आज के पीढ़ी के उलट, पहिले के लोग भूखे मरल पसंद करत रहे, बाकिर काम खातिर खेड़ा, वडोदरा चाहे अहमदाबाद पलायन ना करे के चाहत रहे. समाज में पढ़ाई-लिखाई के जादे मोल ना रहे. “हमनी खातिर स्कूल गइल, आउर भइंस चराइल दुनो एके जइसन रहे. मास्टर साहेब आउर माई-बाप भी बस एतने चाहत रहे कि लइका काम चलाए लाइक लिखे-पढ़े के सीख जाव. बस्स एतने. केहू पढ़-लिख के दुनिया पर राज करे के सपना ना देखत रहे!”

अइसे, वजेसिंह सपना देखत रहस, गाछ संगे उड़े के, चिरई सभ संगे बतियावे के, समंदर पार परियन के देस जाए के. उनकरा जिनगी से भर अंचरा उम्मीद रहे- देवता-पित्तर सभे के तकलीफ से बचा लेस, सांच के जीत होखे आउर झूठ हार जावो, भगवान नीमन लोग के साथ देवस, एकदम वइसने जइसन दादाजी के कहानी में होखत रहे. बाकिर जिनगी दादाजी के कहानी कहंवा रहे.

बाबा लरिकाई में हमनी के मन में
उम्मीद के जवन बिया बोवले-
कुच्छो संभव बा-
ऊ जड़ जमा लेले रहे.
एहि से आजो जिनगी के
बरदास्त करत बानी,
आजो, रोज
जियत बानी एहि उम्मेद में
एक दिन सांचो कवनो चमत्कार होई

उम्मीद ही रहे जे उनकरा ताउम्र आपन पढ़ाई खातिर लड़े के ताकत देलक. एक बेरा पढ़ाई-लिखाई पटरी पर अइला के बाद ऊ आपन सपना पूरा करे खातिर आगू बढ़े लगलन. अब चाहे स्कूल पहुंचे खातिर छव से सात किलोमीटर पइदल चले के पड़ो, छात्रावास में रहे के पड़ो, खालिए पेट सुते के पड़ो, खाए खातिर दुआरिए-दुआरिए भटके के पड़ो, प्रधानाध्यापक खातिर दारू के बोतल खरीदे के पड़ो, ऊ पढ़ाई ना छोड़लन. ऊ पढ़ाई तबो जारी रखलन जब गांव में कवनो उच्च माध्यमिक विद्याल ना रहे. दाहोद पढ़े जाए आउर आवे के कवनो साधन ना रहे. दाहोद में किराया पर रहे खातिर भी पइसा ना रहे. ऊ तबो पढ़े के ना छोड़लन जब उनकरा पढ़ाई के खरचा पुरावे खातिर मजूरी करे के पड़ल, रेलवे स्टेशन पर रात काटे के पड़ल, भुखले सुते आउर जागे के पड़ल, बोर्ड परीक्षा खातिर सार्वजनिक शौचालय में तइयार होखे के पड़ल.

वजेसिंह जिनगी से हार माने के तनिको तइयार ना रहस:

अक्सरहा चक्कर आवे,
छाती धड़-धड़ करे लागे,
आउर हम बेहोस हो जाईं.
सभ बेरा
मन के भीतर
जिंदा रहे के संकल्प उठे
आउर हम फेरु से ठाड़ हो जाईं
बेर-बेर जिए खातिर तइयार हो जाईं.

उनकर असल पढ़ाई त तब सुरु भइल जब ऊ नवजीवन आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज में दाखिला लेलन. एह कॉलेज में गुजराती में बीए करे में उऩकरा सबले जादे आनंद आइल. इहंवा से ऊ आपन बीए आउर एमए के डिग्री पूरा कइलन. अइसे त, एमए के पहिल बरिस में रहस त, एकर पढ़ाई छोड़के बीएड करे निर्णय लेलन. उनकरा पइसा के जरूरत रहे, ऊ मास्टर बने के चाहत रहस. बीएड कइला के तुरंते बाद एक दिन अनहोनी हो गइल. अचके कवनो लड़ाई के बीच में फंस गइलन. दुर्भाग्य से एगो गोली उनकर जबड़ा आउर गरदन के चीरत निकल गइल. एह घटना के बाद त उनकरा ऊपर पहाड़ टूट पड़ल. गोली के असर उनकर आवाज पर पड़ल, जेकरा से ऊ कबो निकल ना पइलन. सात बरिस के इलाज, 14 गो ऑपरेशन के बादो ना.

Born in a poor Adivasi family, Vajesinh lived a life of struggle, his battle with lung cancer in the last two years being the latest.
PHOTO • Umesh Solanki
Born in a poor Adivasi family, Vajesinh lived a life of struggle, his battle with lung cancer in the last two years being the latest.
PHOTO • Umesh Solanki

गरीब आदिवासी परिवार में जनमल वजेसिंह ताउम्र संघर्ष करत रहलन. जिनगी के अंतिम दु बरिस उनकरा फेफड़ा के कैंसर से जूझे के पड़ल

ई त दोहरा मार रहे. पहिलहीं अइसन समाज में जनमल रहस, जेकर आवाज केहू ना सुनेला. एकरा बाद भगवानो के देहल आवाज से वंचित हो गइलन. उनकरा मन मारके मास्टर बने के सपना त्यागे के पड़ल. बस आंख बचल रहल, जे पहिलहीं जइसन तेज रहे. सरदार पटेल आर्थिक आउर सामाजिक अनुसंधान संस्थान में मजूरी आउर अनुबंध से जुड़ल काम करे लगले. वजेसिंह लंबा बखत ले गुजराती साहित्य के बहुत होनहार प्रूफरीडरो रहले. इहे दौरान वजेसिंह के आपन पहिल प्रेम- भाषा से फेरु भेंट भइल. इहंवा उनकरा खूब पढ़े के मिलल. संस्थान में दू दशक के लिखल चीज ऊ पढ़ गइलन.

आउर एह बारे में उनकर का राय रहे?

कवि एकदम जोश में आ गइलन. कहे लगलन, “चलीं, रउआ साफ-साफ बताईं, हम भाषा के बारे में का सोचिला. गुजराती साहित्यकार लोग के भाषा के प्रति रवैया बहुते लापरवाह बा. कवि लोग कवनो शब्द के प्रयोग करे में तनिको संवेदना ना देखावे. ऊ लोग जादे करके गजल लिखी. ओह लोग के बस आपन भावना के परवाह होखेला. आउर एकरे सबले जरूरी चीज मानल जाला.” वजेसिंह के भाषा, शब्द के इहे बारीक समझ, ओकर विन्यास, आउर अनुभव जाहिर करे के ताकत, उनकर कविता में देखाई देवेला. उनकर कविता के संकलन दू खंड में प्रकाशित त हो चुकल बा, बाकिर उनकर लेखनी के मुख्यधारा के साहित्य में कबो उचित स्थान ना मिलल.

एगो कवि के रूप में उऩकरा स्वीकार काहे ना कइल गइल, एकरा बारे में ऊ आपन विचार प्रकट कइलन, “हमरा लागत बा, जादे पढ़ल जाए के चाहत बानी, त रउआ लगातार लिखे के चाहीं. आउर इहे काम हमरा से ना भइल. रउआ जदि एगो, चाहे दू गो कविता लिखम, त के जानी? हमार दुनो कविता संग्रह कुछे दिन पहिले आइल. हम नाम खातिर ना लिखीं. ना त हम रोज-रोज लिख सकिला. हमरा लागत बा, हम बहुते संजीदा होके भी ना लिख सकीं. भूख हमनी के जिनगी के पोर-पोर में समाइल बा. एहि से हम अभाव आउर गरीबी के बारे में लिखेनी. ई सभ हमरा से स्वाभाविक रूप से लिखा गइल.” हमनी संगे बतकही के दौरान ऊ बहुते प्रेम से बात करत रहस. जिनगी में एतना सहला के बावजूद उनकरा केहू से शिकायत ना रहे, कवनो पुरान घाव कुरेदे से बचत रहले, अंजोर में आपन हिस्सेदारी के दावा करे के भी तइयार ना रहले. बाकिर ऊ अच्छा से जानत रहस कि...

केहू त जरूर निगल लेले बा
हमनी के हिस्सा के अंजोर,
काहे कि हमनी त जरत रहिले
सूरुज संगे बाहिर-भीतर
जिनगी भर
बाकिर आखिर में एक अंजुरी अंजोर भी
ना भेंटाए.

उनकर गुण के कम आंकल गई. पक्षपात, भेदभाव भरल व्यवहार प्रूफरीडर के रूप में उनकर पेशेवर जिनगी पर भी असर डललक. एक बेरा ऊ एगो मीडिया हाउस में प्रवेश परीक्षा ‘ए’ ग्रेड से पास कइलन. एकरा बावजूद उनकरा उहे पद खातिर ‘सी’ ग्रेड से पास होखे वाला प्रतिभागी से बहुते कम वेतन के पेशकश कइल गइल. ऊ एह निर्णय पर सवाल उठइलन. आउर आखिर में पेशकश ठुकरा देलन.

Ocean deep as to drown this world, and these poems are paper boats'.
PHOTO • Umesh Solanki

‘दुनिया एगो गहिर समंदर बा, आउर कविता एह में कागज के नाव’

अहमदाबाद में ऊ मुट्ठी भर पइसा पर अलग-अलग मीडिया हाउस में छोट-मोट अनुबंध पर काम कइलन. किरीट परमार के जब वजेसिंह से भेंट भइल, त ऊ अभियान खातिर लिखत रहस. ऊ कहलन, “साल 2008 में हम अभियान से जुड़नी. ओह घरिया वजेसिंह समभाव मीडिया में रहस. आधिकारिक तौर पर त ऊ प्रूफरीडर रहस, बाकिर हमनी जानत बानी कि उनकरा कवनो लेख देहल जाए, त ऊ ओकरा संपादित कर देत रहस. ऊ लेख पर मन से काम करस आउर ओकरा ठोक-पीट करके एगो आकार देवस. भाषा के मामला में उनकर काम अद्भुत रहे. एतना लुरगर आदमी जइसन अवसर आउर काम के हकदार रहे, ओकरा ऊ ना मिलल.”

समभाव में उनकरा महीना के मुस्किल से 6,000 रुपइया भेंटात रहे. ई पइसा, परिवार के देखभाल, भाई-बहिन के पढ़ाई-लिखाई आउर अहमदाबाद में रहे खातिर पूरा ना पड़त रहे. बाद में ऊ इमेज पब्लिकेशन खातिर फ्रीलांस करे लगलन. दफ्तर में पूरा-पूरा दिन काम कइला के बाद, घरो आके काम करस.

“बाऊजी के गइला के बाद उहे हमनी खातिर बाप बन गइलन,” उनकर 37 बरिस के छोट भाई मुकेश पारगी बतावत बाड़न. “कठिन समय में भी ऊ हमार पढ़ाई-लिखाई के सगरे खरचा उठइलन. हमरा इयाद बा, ऊ थलतेज के एगो टूटल आउर एकदम पिंजरा जइसन खोली में रहत रहस. खोली के छत टिन के रहे. हमनी के रात भर कुकुर के एने-ओने भागे के आवाज आवत रहे. ऊ जे 5000-6000 कमास, हमनी पर खरचा कर देस. आपन तनिको परवाह ना करस. हमनी के पढ़ाई के पइसा पूरा करे खातिर ऊ कइएक दोसर काम करस. हम ई सभ कबो ना बिसरा (भुला) सकीं.”

वजेसिंह आपन जिनगी के अंतिम पांच-छव बरिस एगो प्राइवेट कंपनी खातिर काम कइलन. अहमदाबाद के एह कंपनी में ऊ प्रूफरीडिंग करत रहस. “हम आपन जिनगी के जादे काम अनुबंध पर कइनी. सिग्नेट इंफोटेक के काम सबले हाल के रहे. गांधीजी के नवजीवन प्रेस के ओह लोग संगे अनुबंध रहे. हम उहे लोग खातिर किताब संपादित करीं, जे बाद में छपत रहे. नवजीवन से पहिले हम दोसर प्रकाशन संगे भी काम कइनी,” वजेसिंह बतइलन. “बाकिर गुजरात में कवनो प्रकाशक लगे प्रूफरीडर के कवनो स्थायी पद नइखे.”

किरीट परमार, एगो संगी आउर लेखक संगे बतकही में ऊ कहले, “कम मेहनताना चलते गुजराती में नीमन प्रूफरीडर ना भेंटाला. प्रूफरीडर भाषा के रखवाला होखेला, भाषा के आगू बढ़ावे वाला होखेला. हमरा ना बुझाए कि ओह लोग के काम के एतना छोट काहे मानल जाला. कमाई के नाम पर, बस मुट्ठी भर पइसा काहे मिलेला? हमनी के प्रजाति धीरे-धीरे लुप्त हो रहल बा. एकरा से केकर नुकसान होई, गुजरातिए भाषा के ना?” वजेसिंह गुजराती मीडिया हाउस के खस्ता हाल के गवाह बाड़न. ऊ लोग भाषा के कदर ना करे. जे कोई भी पढ़े आउर लिखे में ठीक बा, ऊ प्रूफरीडिंग के काम कर लेवेला.

“साहित्य के दुनिया में प्रूफरीडर के कवनो हैसियत नइखे. ओकरा मोट बुद्धि के मानल जाला.” वजेसिंह कहले. दोसरा ओरी ऊ गुजराती भाषा के संरक्षक बनल रहले. “गुजराती विद्यापीठ सार्थ जुड़ावनी कोश (एगो नामी शब्दकोश) के एगो पूरक कोश छापलक ताकि ओह में 5,000 नयका शब्द शामिल कइल जा सको.” किरीट भाई इयाद करत बाड़न, “आउर ओकरा में भयानक-भयानक गलती रहे. खाली स्पेलिंगे ना, तथ्यात्मक आउर विवरण से जुड़ल गलती भी बहुते रहे. वजेसिंह एह सभ पर बहुते सावधानी से गौर कइलन आउर जवाबदेही बाबत सवाल कइलन. आज गुजरात में हमरा अइसन कवनो आदमी ना लउकेला जे वजेसिंह जइसन काम कर सके. उहां के गुजरात बोर्ड के छठा, सतमा, अठमा के पाठ्यपुस्तक तक में गलती पकड़नी आउर एकरा प्रति सचेत कइनी.”

Vajesinh's relatives in mourning
PHOTO • Umesh Solanki

शोक में डूबल वजेसिंह के नाता-रिस्तेदार लोग

Vajesinh's youngest brother, Mukesh Bhai Pargi on the left and his mother Chatura Ben Pargi on the right
PHOTO • Umesh Solanki
Vajesinh's youngest brother, Mukesh Bhai Pargi on the left and his mother Chatura Ben Pargi on the right
PHOTO • Umesh Solanki

बावां में वजेसिंह के छोट भाई, मुकेश भाई पारगी आउर दहिना उनकर माई चतुरा बेन

हर तरह के प्रतिभा आउर काबिलियत के बावजूद दुनिया वजेसिंह खातिर पराया बनल रहल. एकरा बावजूद उनकर कविता में रउआ उम्मीद आउर सामंजस्य के भावना देखाई दीही. वजेसिंह के मालूम रहे कि उनकरा जिनगी अपना बल पर जिए के बा. एहि से ऊ बहुत पहिलही भगवान के असरा त्याग देले रहस.

जनम लेनी त
एगो हाथ में भूख रहे
दोसरका में बोझा,
बताईं, राउर आरती करे खातिर
तेसर हाथ कहंवा से लाईं

वजेसिंह के जिनगी में अक्सरहा भगवान के स्थान उनकर कविता ले लेवत रहे. साल 2019 में उनकर कविता अगियानु अजवालुन (भगजोगनी के टिमटिमाहट), साल 2022 में झाकलनां मोती (ओस के बूंद) आउर आपन मातृभाषा पंचमहाली भीली में कुछ कविता प्रकाशित भइल.

उनकर जिनगी अभाव, अन्याय, शोषण आउर भेदभाव के दोसर नाम रहे. एतना सहला के बावजूद उनकर कविता में रउआ कवनो तरह के गोस्सा, चाहे आक्रोश ना देखाई दीही. उनकरा केकरो से कवनो तरह के शिकायत ना रहे. “केकरा से गुहार लगाईं? समाज से? समाज से हमनी शिकायत करम, त गरदन मरोड़ देहल जाई,” ऊ कहले.

वजेसिंह के आपन सुख-दुख से ऊपर उठके, जिनगी के असलियत आउर सीमा के समझे आउर स्वीकारे के ताकत, कविता से मिलल. उनकरा हिसाब से आदिवासी आउर दलित साहित्य में विस्तार के कमी बा, जवना चलते वर्तमान में ई सभे तक नइखे पहुंच पावत. “हमरा कुछ दलित साहित्य पढ़े के मौका भेंटाइल, त पइनी कि लोग एकरा से आसानी से जुड़ नइखे पावत. एह में खाली अपना संगे होखे वाला अत्याचार के गुहार बा, शिकायत बा. बाकिर ओकरा आगू? कुछ आदिवासी लोग आवाज उठा रहल बा. ऊ लोग आपन जिनगी के बारे में भी खूब बात कर रहल बा. बाकिर कबो जरूरी सवाल ना उठावे,” ऊ कहले.

दाहोद के एगो कवि आउर लेखक प्रवीण भाई जादव बतावत बाड़े, “लरिकाई में होस संभारे घरिया जब किताब पढ़े के मौका मिलल, त अचरज होखे कि हमनी के समाज, धरम के लोग के कविता ओह में काहे नइखे. पहिल बेर हमरा साल 2008 में एगो कविता पढ़े के मिलल. ऊ कविता कवनो संग्रह में वजेसिंह के नाम से छपल रहे. एकरा बाद हमरा ऊ आदमी तक पहुंचे में चार बरिस लाग गइल! आउर उनकरा हमरा से से भेंट करे में कुछ आउर बखत लाग गइल. ऊ मुशायरा वाला कवि नइखन. उनकर कविता में दरद बा, हाशिया पर रहे वाला लोग के पीड़ा बा, उनकर जिनगी के गुहार बा.”

वजेसिंह कॉलेज के दिनन में कविता लिखे के सुरु कइले रहस. उनकरा लगे ओह घऱिया कवनो खास तरह ट्रेनिंग चाहे, खोजबीन करे खातिर बखत ना रहे. ऊ बतावत बाड़न, “हमार दिमाग में दिनो भर कविता घूमत रहत रहे. हम आपन बेचैनी कविता में जाहिर करे लगनी. कबो त आपन छटपटाहट व्यक्त कर दीहीं, कबो ना कर पाईं. हम कवनो बात के बहुत लंबा-चौड़ा तरीका से जाहिर ना कर पावत रहीं. एहि से हम अइसने कविता लिखे लगनी, जइसन अब लिखत बानी. अबही बहुते कविता अनकहल रह गइल बा.”

जानलेवा बेमारी, फेफड़ा के कैंसर चलते वजेसिंह के पछिला दू बरिस से कविता लिखल धीरे-धीरे छूट गइल रहे. आज जब उनकर जिनगी आउर एतना कष्ट के बावजूद हासिल कइल गइल उपलब्धि पर नजर डालल जाई, त लागी कि केतना कुछ लिखल रह गइल बा. ‘भगजोगनी के अंजोर’ खाली उनकर जिनगी के बारे में नइखे, बलुक  उनकर समाज के दशा भी बयान करत बा. उनकर लिखल गइल ‘ओस के बूंद’ अधूरा रह गइल. एह कठोर दुनिया में करुणा आउर सहानुभूति के कवि किनारे कर देहल गइलन. भाषा के नामी कवि लोग के सूची से वजेसिंह पारगी के नाम दरकिनार कर देहल गइल.

One of the finest proofreaders, and rather unappreciated Gujarati poets, Vajesinh fought his battles with life bravely and singlehandedly.
PHOTO • Umesh Solanki

सबले काबिल प्रूफरीडर में गिनल जाए आउर गुजराती के तनी कम प्रशंसित कवि में से एक, वजेसिंह जिनगी के लड़ाई अकेले अपना दम पर आउर बहादुरी से लड़लन

बाकिर वजेसिंह कवनो क्रांति के कवि ना रहस. उनकरा खातिर शब्द कवनो चिंगारी भी ना रहे.

हम इहंवा ओठंगल बानी
हवा के एगो झोंका के बाट जोहत
आग नइखी
राख के ढेर बानी,
त का भइल
घास के एक्को तिनका ना जरा सकीं.
बाकिर अपना पर आ जाएम त
आफत मचा सकेनी,
लाल कर सकेनी
साहेब के कम से कम एगो आंख

आउर आज ऊ हमनी के बीच नइखन. पाछू में ऊ आपन 70 गो कविता छोड़ गइल बाड़न, जे अबले नइखे छपल. हमनी के आंख के किरकरी, विवेक जगावे वाला, हवा के ऊ झोंका के इंतजार रही.

झुलड़ी*

लइका रहीं
त बाऊजी बजार से एगो झुलड़ी कीन देलन
बाकिर ऊ पहिल बेर धोवते सिकुड़ गइल,
ओकर रंग उड़ गइल,
तागा उघड़े लागल.
हमरा ऊ तनिको ना भावत रहे.
गोस्सा में एक दिन ओकरा मरोड़ देनी-
झुलड़ी फुटलियो आंख ना सुहात रहे.
माई माथा सहलइलक
मनइलक,
पहिन ले रे बचवा,
फाटी त नया कीन देहम, ठीक बा नू?
आज एह देह के भी अंजर-पंजर ढील हो गइल बा
उहे झुलड़ी जेका.
जगह-जगह झुर्री पड़ गइल
जोड़-जोड़ हिले लागल
सांस लेवे में कंपकंपी होखे लागल
दौरा पड़े लागल
हमरा ई देह ना चाहीं!
माई इयाद आवत बाड़ी आउर उनकर मीठ बोली-
पहिन ले रे बचवा, फाटी त नया कीन देहम
अब कहंवा से नया आई...

उनकर अप्रकाशित गुजराती कविता के अनुवाद
*झुलड़ी आदिवासी समाज के लइका लोग के पारंपरिक पोशाक बा. कढ़ाई वाला ई कपड़ा कमर के ऊप्पर पहिनल जाला.


आपन मौत से कुछ दिन पहिले हमनी से बात करे खातिर लेखिका वजेसिंह पारगी के ह्रदय से आभार जतावत बाड़ी. मुकेश पारगी, कवि आउर सामाजिक कार्यकर्ता कांजी पटेल, निर्धार के संपादक उमेश सोलंकी, वजेसिंह के संगी आउर लेखक किरीट परमार आउर गलालियावाद प्राइमरी स्कूल के मास्टर सतीश परमार के, एह रचना के संभव बनावे में मदद करे खातिर बहुत धन्यबाद.

लेख में शामिल सभे गुजराती कविता वजेसिंह पारगी के लिखल बा. एकर भोजपुरी में अनुवाद स्वर्ण कांता कइले बाड़ी.

अनुवाद: स्वर्ण कांता

Pratishtha Pandya

Pratishtha Pandya is a Senior Editor at PARI where she leads PARI's creative writing section. She is also a member of the PARIBhasha team and translates and edits stories in Gujarati. Pratishtha is a published poet working in Gujarati and English.

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Photos and Video : Umesh Solanki

Umesh Solanki is an Ahmedabad-based photographer, documentary filmmaker and writer, with a master’s in Journalism. He loves a nomadic existence. He has three published collections of poetry, one novel-in-verse, a novel and a collection of creative non-fiction to his credit.

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P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought' and 'The Last Heroes: Foot Soldiers of Indian Freedom'.

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Translator : Swarn Kanta

Swarn Kanta is a journalist, editor, tech blogger, content writer, translator, linguist and activist.

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