धर्मी पहाड़िनी चार फ़ीट तीन इंच लंबी है, और उनका वज़न जलावन की उस 40 किलोग्राम लकड़ी से भी कम है जो उनके सर पर लदी है. वह अपने गांव सरकटिया से 7 किमी की दूर यहां हाट में आई हुई हैं, जो देवदानमोड़ में हफ़्ते में एक या दो बार लगता है. लेकिन यहां आने से पहले वह 24 किलोमीटर पैदल चलकर जंगल गई थीं और वहां से लकड़ी काटकर ले आई थीं, यानी कुल मिलाकर वह 31 किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी हैं. लकड़ियों के बदले में उन्हें 8 या 9 रुपए मिल जाएंगे.

यहां आने का रास्ता राजमहल की पहाड़ियों से गुज़रता है और काफ़ी उबड़-खाबड़ है. लेकिन धर्मी को पेट पालने के लिए हफ़्ते में कम से कम एक बार यह सफ़र तय करना ही पड़ता है. वह पहाड़िया जनजाति से हैं, जो देश में सबसे बुरी स्थिति में गुज़र-बसर कर रही जनजातियों में से एक है. गोड्डा ज़िले में लगभग 20,000 पहाड़िया आदिवासी रहते हैं, जो पुराने दौर के संथाल परगना क्षेत्र में फैले हुए हैं. दशकों के वादों, योजनाओं और 'प्रगति' के बावजूद उनका अस्तित्व अब भी संकट में घिरा हुआ है.

धर्मी और उनके जैसे हज़ारों आदिवासी भयानक ग़रीबी की वजह से महाजनों के चंगुल में फंसे हुए हैं और गुज़ारा चलाने के लिए पेड़ गिराने का काम करने को मजबूर हैं. बहुत से पहाड़िया आदिवासियों के लिए लकड़ी उनकी आमदनी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है. उनमें से कुछ को तो यह काम उन महाजनों के लिए करना पड़ता है जो लकड़ी की तस्करी में संलिप्त हैं. गोड्डा कॉलेज के डॉ. सुमन दरधियार बताते हैं, “इस कारण से बड़ी मात्रा में वनों की कटाई हो रही है, और पहाड़ी क्षेत्रों के काफ़ी बड़े हिस्से का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ रहा है.” डॉ दरधियार का अध्ययन जो संथाल परगना में पहाड़िया समुदाय के अपने परिवेश के साथ संबंधों पर आधारित है, कहता है कि इसके जड़ में “महाजनों द्वारा इन ग़रीब और असहाय लोगों का निर्मम शोषण किया जाना“ है.

Woman assessing weight of load of wood

वह लकड़ी के भार का आकलन कर रही थीं, ताकि आगे की लंबी दूरी तय करने के दौरान इसे संतुलित रख सकें. यह गट्ठर आकार में उनके ख़ुद के शरीर से काफ़ी बड़ा था

हाट पर मैंने धर्मी से कहा कि इस बात पर विश्वास कर पाना मुश्किल है कि वह इस बोझ को लेकर इतनी दूर से चलकर आई हैं. यह सुनकर हमारे आसपास जमा छोटी सी भीड़ हंस पड़ी. लोगों ने कहा कि बहुत सी औरतें धर्मी से भी ज़्यादा दूरी तय करके आती हैं. इसकी पुष्टि करने का एक ही तरीक़ा है. अगले दिन हमें अलग-अलग क्षेत्रों और पहाड़ी रास्तों पर पहाड़िया औरतों के साथ यह दूरी तय करनी होगी.

हालांकि, अगले दिन सुबह 6 बजे ठेठरीगोड्डा पहाड़ी रास्ते पर आधी दूरी पार करते समय यह विचार बहुत सही नहीं  प्रतीत होता. कुछ पहाड़िया गांवों तक पहुंचने के लिए आपको दो या तीन पहाड़ियों को पार करना पड़ता है. हमने आठ किलोमीटर की दूरी तय की, जिसके लिए पहाड़ की अच्छी-ख़ासी चढ़ाई भी करनी पड़ी. बहुत देर भटकने के बाद हमें पहाड़िया महिलाओं का समूह दिखा, जो हाथ में हंसिया लिए पंक्तिबद्ध ढंग से जंगल की तरफ़ बढ़ रहा था. उनकी तेज़ और चुस्त चाल के साथ क़दम मिला पाना मुश्किल था. फिर भी हम उनके पीछे हांफते-हांफते चलते रहे. रास्ते में कुछ ही दूरी पर हमें कुछ और समूह दिखे, जो या तो जंगल की तरफ़ जा रहे थे या जंगल से अपने गावों को लौट रहे थे. हर महिला के सिर के ऊपर लकड़ियों का बड़ा गट्ठर लदा हुआ था, जिसका वज़न 30 से 40 किलो तक था.

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पहाड़िया औरतों के इस प्रत्यक्ष जोश और शारीरिक ताक़त के पीछे की स्याह वास्तविकता यह है कि उनमें से बहुत कम महिलाएं ही 50 साल की उम्र तक जीवित रह पाती हैं. गोड्डा के काफ़ी सारे पहाड़िया गांवों में, इससे ज़्यादा उम्र के पुरुषों और महिलाओं का मिलना मुश्किल होता है. काफ़ी सारी महिलाएं 45 साल की उम्र भी नहीं देख पाती हैं.

गुही पहाड़िनी जिस दिन लकड़ियां हाट में लेकर आती हैं उस दिन वह 40 किमी ज़्यादा पैदल चलती हैं. लेकिन यह उनकी छोटी सी ज़िंदगी के लंबे सफ़र का एक छोटा सा हिस्सा भर है. वह पानी भरने के लिए हर रोज़ 6 से 8 किमी पैदल चलती हैं.

वह हंसते हुए कहती हैं, “पानी भरने की जगह ज़्यादा दूर नहीं है [लगभग 2 किलोमीटर]. लेकिन मैं एक बार में ज़्यादा पानी नहीं उठा सकती. इसलिए मुझे दिन में 3 से 4 बार पानी भरने जाना पड़ता है.” यह जद्दोजहद उस सफ़र में नहीं जुड़ती जो वह सप्ताह में 2 बार हाट के लिए तय करती हैं. पानी का स्रोत भले ही ‘बस’ 2 किमी दूर हो, लेकिन 2 किमी का यह सफ़र काफ़ी कठिन और खड़ी चढ़ाई वाला है, जो शरीर को तोड़ देता है.

यहां सिर्फ़ गुही को ही यह सब नहीं झेलना पड़ता. ज़्यादातर पहाड़िया महिलाओं को इसी तरह की हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. जैसे-जैसे हम फिसलन भरी ढलानों से नीचे की तरफ़ बढ़े, जो मानसून की वजह से और ज़्यादा ख़तरनाक हो गई थी, हमें अहसास हुआ कि ये औरतें कितनी मेहनत करती हैं. दिल्ली और बॉम्बे के बीच जितनी दूरी है, गुही जैसी पहाड़िया महिलाएं साल भर में 4 से 5 बार वह दूरी तय करती हैं.

यहां के पुरुष पहाड़ियों पर स्थानांतरित खेती करते हैं. यह टिकाऊ होती है, यदि आप दस साल के लिए खेती की ज़मीन पर वनों को अपने पिछले स्तर तक बढ़ने का मौक़ा देते हैं. कभी पहाड़िया इसी तरह काम करते थे. लेकिन, क़र्ज़, ज़मीन पर तमाम तरह दबाव और गुज़ारे से जुड़ी ज़रूरतों के चलते दस साल से काफ़ी पहले ही उसी क्षेत्र में खेती की जाने लगती है. इस चक्र के पूरा न होने की वजह से जंगल साफ़ होने लगे हैं. इसके अलावा, एक ही क्षेत्र में अत्यधिक जुताई के कारण उपज में गिरावट हो जाती है.

यहां उगाई जाने वाली फलियों की कुछ क़िस्मों की मुंबई में ऊंची क़ीमत लगती है. लेकिन पहाड़िया आदिवासियों को नहीं मिलती. चंद्रशेखर पहाड़िया कहते हैं, “मुझे अपनी फ़सल महाजन को बेचनी पड़ेगी, जिसने मुझे क़र्ज़ दिया था.” इसलिए, वह इसे एक रुपए प्रति किलोग्राम पेर बेच देते हैं. पहाड़िया ख़ुद की ही उगाई उपज का उपभोग नहीं कर पाते हैं. सब महाजन को ‘बेचना' पड़ता है. डॉ. दरधियार के अध्ययन में यह अनुमान सामने आता है कि पहाड़िया आदिवासियों की कमाई का 46 प्रतिशत हिस्सा क़र्ज़ चुकाने के एवज़ में सीधे महाजन के पास चला जाता है. इसके अलावा, क़रीब 39 प्रतिशत तक की अतिरिक्त कमाई भी अप्रत्यक्ष रूप से ऋणदाताओं को चली जाती है (बुनियादी ज़रूरत के सामान आदि की ख़रीद के माध्यम से).

हम महिलाओं के पीछे हांफते हुए चल रहे हैं, और एक पहाड़ी से नीचे उतरते हैं व दूसरी से ऊपर चढ़ने लगते हैं. साफ़ और वीरान नज़र आती पहाड़ियां बड़ी दयनीय दिखाई पड़ती है. इस दौरान, जिन गांवों से हम गुज़रे वहां स्कूल के नाम पर केवल खाली भवन मिले या वे केवल काग़ज़ों पर मौजूद थे. यहां पर पढ़ी-लिखी पहाड़िया महिला का मिलना लगभग असंभव है.

इन महिलाओं से बीस मीटर आगे चलते हुए तस्वीरें खींचना और बढ़ते रहना आसान नहीं हैं. जब हम ये सोच ही रहे थे कि हमसे ये चिलचिलाती गर्मी और उनकी तेज़ गति अब सहन नहीं हो पाएगी, वे आराम करने के लिए व पास में बहते जलस्रोत से पानी पीने के लिए ढलान पर रुक गईं. इससे हमारे फूले हुए फेफड़ों और सिकुड़ते अहंकार को शांत होने का मौक़ा मिल गया. वे तीन घंटे से अधिक समय से चल रही हैं.

डॉ. दरधियार के अध्ययन से पता चलता है कि यहां की जलधाराओं में आयोडीन की कमी है और उनकी गुणवत्ता 'बहुत ख़राब’ है. वह कहते हैं कि यहां के लोगों के 'स्वास्थ्य की दयनीय स्थिति' का यह कारण हो सकता है.

यहां कोई जलआपूर्ति प्रणाली मौजूद नहीं है, जिसका नाम तक लिया जा सके. वर्षों की उपेक्षा के चलते यह स्थिति पैदा हुई है. इसलिए, पहाड़िया आदिवासी पानी से होने वाली कई बीमारियों से पीड़ित हैं. इनमें दस्त, पेचिश और लिवर में वृद्धि जैसे रोग शामिल हैं. बहुत से लोग तपेदिक, थाइरोइड और अनीमिया जैसी दीर्घकालिक बीमारियों से भी पीड़ित हैं. इसके अलावा, यह मलेरिया से प्रभावित क्षेत्र है. डोरियो गांव के सबसे बुज़ुर्ग निवासी, 45 साल के गंधे पहाड़िया कहते हैं: “अगर कोई आदमी यहां बहुत बीमार पड़ जाए, तो आसपास कोई अस्पताल तक नहीं है. हमें उसे बांस से बंधी खाट पर लादकर इन रास्तों से क़रीब 15 किलोमीटर तक ले जाना पड़ता है.

महिलाओं ने पानी पी लिया है और हमारे प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करती हैं. यहां, एक महिला की पानी लाने की क्षमता की परीक्षा तब होती है, जब वह अपने भावी ससुरालवालों के साथ रहने जाती है. पहाड़िया लोगों में शादी की रस्म महिला के अपने ससुराल चले जाने के बाद होती है. सुंदरपहाड़िया प्रखंड के अपर सिडलर गांव के एक बुज़ुर्ग एतरो पहाड़िया कहते हैं कि यहां पानी भरने की परीक्षा काफ़ी अहम होती है. “एक लड़की जब हमारी परिस्थितियों में पानी भर लाने में सक्षम होती है, तभी उसे स्वीकार किया जाता है.”

क़रीब 14 साल से इस जनजाति के बीच काम कर रहे संथाल पहाड़िया सेवा मंडल के गिरिधर माथुर को लगता है कि औरतों की ‘आज़माइश’ के इस पहलू को बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है. हालांकि, वह इस बात से सहमत हैं कि पुरुष की कार्य क्षमता का परीक्षण नहीं होता है. लेकिन, माथुर के अनुसार, महिला भी किसी पुरुष के घर में जाने के बाद कई अन्य आधारों के सहारे उसे अस्वीकार कर सकती है.

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ठेठरीगोड्डा और बोदा खोटा के बीच का रास्ता खड़ी चढ़ाई वाला है, फिसलन से भरा है और यहां नुकीले पत्थरों की भरमार है. पहाड़िया आदिवासी इसकी परवाह नही करते हैं. माथुर कहते हैं, “यहां सड़कें प्रगति की नहीं, शोषण की निशानी हैं.” उनका ये कहना सटीक है. पहाड़ी की चोटी पर बसे गांवों की तुलना में, मैदानी इलाक़ों के क़रीब रहने वाले पहाड़िया आदिवासी महाजनों की ज़्यादा चपेट में हैं.

जो 'विकास योजनाएं' यहां आई हैं, उनमें पहाड़िया आदिवासियों को कभी निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया है. एक योजना के तहत पहाड़िया परिवारों को दो-दो गायें दी गईं. पहाड़िया लोग गाय नहीं दुहते - उनका मानना है कि गाय का दूध तो बछड़े के लिए है.

पहाड़िया लोग दूध से बनी चीज़ें भी नहीं खाते, लेकिन यह बात किसी को पता ही नहीं हैं. वे गोमांस ज़रूर खाते हैं और इसलिए बहुत से 'ऋण' का उन्होंने सेवन कर लिया. बाक़ियों ने गायों को ढुलाई वाले जानवरों के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की, लेकिन दुर्गम इलाक़ा होने की वजह से उनकी मौत हो गई. और फिर, देश के कुछ सबसे ग़रीब लोगों से उस ऋण की वसूली की गई जो उन्हें कभी चाहिए ही नहीं था.

माथुर बताते हैं कि सरकारी कोष से केवल 'ठेकेदारों की पलटन समृद्ध हुई है’. भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा सताए जाने के चलते पहाड़िया लोग महाजनों के चंगुल में और ज़्यादा फंसते गए हैं. राजनीतिक रूप से जागरूक पहाड़िया आदिवासी मधुसिंह इस सरल शब्दों में बयान कर देते हैं, “अधिकारी यहां की क्षणिक वास्तविकता हैं. महाजन ही यहां का स्थायी सच हैं.”

यहां राजनीतिक आंदोलनों का सीमित प्रभाव पड़ा है. सीपीआई के नेतृत्व में 60 और 70 के दशक में हुए आंदोलन में पहाड़िया भूमि को महाजनों के नियंत्रण से छुड़ा लिया गया था. लेकिन राज्य ने आगे कभी इस मामले की कोई सुध नहीं ली, जिस कारण पुरानी स्थिति फिर से बहाल हो गई. तमाम एनजीओ, जिनमें से कुछ अच्छी नीयत से काम करते रहे हैं, इस क्षेत्र में वर्षों से काम कर रहे हैं, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली.

डॉ. दरधियार और उनके साथ अध्ययन करने वाले डॉ. पी.के. वर्मा का मानना ​​है कि जनजाति ख़त्म होने की ओर बढ़ रही है. सरकार इस बात से इंकार करती है, लेकिन यह ज़रूर स्वीकार करती है कि इसका ख़तरा मौजूद है. सरकार ने इस स्थिति से लड़ने के लिए और अधिक कार्यक्रमों की घोषणा की है, जिनका लाभ शायद ही पहाड़िया आदिवासियों को मिलेगा, लेकिन ठेकेदारों और महाजनों के लिए मुनाफ़े का सौदा हैं. मधुसिंह कहते हैं, “इस बीच, हमारे जंगल ग़ायब हो रहे हैं. हमारी ज़मीन घट रही है, हमारी पीड़ा बढ़ती जा रही है.'

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हम पहाड़पुर से काफ़ी आगे चलकर हाट तक पहुंच गए हैं, और यह जगह वहां से 24 किमी दूर हैं जहां हम उन औरतों से टकराए थे. दिन भर में हम क़रीब 40 किमी पैदल चले. इस बात को याद करने में कोई आनंद नहीं रह जाता कि अगले आठ दिनों तक मुझे यही प्रक्रिया दोहरानी है. महिलाएं हमारे सामने 30 से 40 किलो लकड़ी के अपने गट्ठर बेचती हैं, जिसके बदले में उन्हें पांच से सात रुपए मिलते हैं.

अगली सुबह अंग-अंग में दर्द हो रहा है. मैं गोड्डा में 1947 में स्थापित किए गए 'आज़ादी के स्तंभ' को देखता हूं. इस पर लिखा पहला नाम एक पहाड़िया आदिवासी का है; बल्कि स्तंभ पर सूचीबद्ध अधिकांश शहीद पहाड़िया जनजाति के हैं.

आज़ादी के लिए सबसे पहले जान देने वाली जनजाति, आज़ाद देश में सबसे आख़िरी पायदान पर खड़ी है.

पी. साईनाथ की किताब ‘एवरीबडी लव्स ए गुड ड्रॉट’ का अंश, जिसे पेंगुइन इंडिया ने प्रकाशित किया है.

इस स्टोरी को ऑर्डफ़्रंट की तरफ़ से 20वीं सदी की सबसे बेहतरीन रपटों में चुना गया था और प्रकाशित किया गया था.

अनुवाद: निशांत गुप्ता

P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought' and 'The Last Heroes: Foot Soldiers of Indian Freedom'.

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Translator : Nishant Gupta

Nishant Gupta is a Senior Research Fellow at The Institute of Mathematical Sciences, Chennai.

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