लेनिनदासन चावल की 30 क़िस्मों को उपजाते हैं. इसके अलावा वे अपने साथी किसानों द्वारा उगाई गई 15 अन्य क़िस्मों को बेचते हैं. और, वे धान के बीजों की 80 क़िस्मों को संरक्षित भी करते हैं.यह सब वे तमिलनाडु के तिरुवन्नमलई जिले में अपने परिवार के छह-एकड़ खेत में करते हैं.

केवल संख्या की दृष्टि से यह असाधारण बात नहीं है. लंबे समय से उपेक्षित चावल की ये पारंपरिक क़िस्में इलाक़े के छोटे और सीमांत खेतों के अधिक अनुकूल हैं. लेनिन - जिस नाम से वे यहां जाने जाते हैं - और उनके मित्र चावल की आधुनिक क़िस्मों को हटाने के साथ-साथ मोनो-क्रॉपिंग (सालोंसाल किसी ज़मीन पर एक ही फ़सल उगाना) के प्रति अपनी परोक्ष असहमति प्रकट कर रहे हैं. खोती जा रही विविधता को वे फिर से बढ़ावा देने के प्रयास में हैं, और धान की खेती में क्रांति लाने की कोशिश कर रहे हैं.

यह एक अलग तरह की क्रांति है, जिसकी अगुआई एक अलग लेनिन कर रहे हैं.

पोलुर तालुका के सेंगुनम गांव में अपने खेत से लगे जिस गोदाम में वे चावलों की सैंकड़ों भरी हुई बोरियों का भंडारण करते हैं, वह दरअसल पहले उनकी बकरियां पालने की जगह हुआ करती थी, जिसे उन्होंने नए सिरे से बनवाया है.

बाहर से यह छोटी सी जगह बहुत साधारण दिखती है. लेकिन भीतर प्रवेश करते ही हमारी राय तुरंत बदल जाती है. “यह करुप्पु कवुनी है, और वह सीरग संबा है,” एक मोटी सी सुई से चावल की बोरियों में छेदकर अनाज के दानों को बाहर निकालते हुए लेनिन बताते हैं. चावल की इन दो पारंपरिक क़िस्मों को वे हथेली में रखते हैं. पहली क़िस्म की रंगत थोड़ी काली है और उसमें एक चमक है, दूसरी क़िस्म बारीक है और उससे एक सुगंध उठ रही है. एक कोने से वे लोहे के बने पुराने मापक - पडी और मरक्का निकालते हैं, जिनमें अलग-अलग मात्रा में धान रखे जाते हैं.

इसी गोदाम में लेनिन चावल को तौलने और बोरियों में पैक करने के बाद उत्तर में बेंगलुरु और दक्षिण में नागरकोइल जैसे दूरदराज़ की जगहों तक भेजते है. गोदाम में किसी तरह का कोलाहल और अफ़रा-तफ़री नहीं नज़र आती है. ऐसा लगता है मानों वे दशकों से खेती कर रहे हैं और धान बेचते आ रहे हैं. लेकिन उन्हें यह काम करते हुए छह साल ही हुए हैं.

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बाएं: लेनिन के धान के खेत. दाएं: गाहने के बाद अभी-अभी निकाले गए अनाज के दाने हमें दिखाते हुए लेनिन

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बाएं: गोदाम के भीतर काम करते लेनिन. दाएं: करुप्पु कवुनी, जो एक पारंपरिक चावल है

“धान कभी हमारी दुनिया में नहीं था,” 34 साल के लेनिन मुस्कुराते हैं. मानसून पर निर्भर रहने वाले इस ज़िले के खेत हमेशा से फलियों, तिलहन और ज्वार-बाजरा के उत्पादन के लिए अधिक अनुकूल रहे हैं. “हमें धान की खेती अपनी परम्पराई [विरासत] में नहीं मिली है.” उनकी 68 वर्षीया मां सावित्री कारामणि (लोबिया) उगाती और बेचती थीं. प्रति चार मुट्ठी लोबिया बेचने की स्थिति में दो मुट्ठी वे मुफ़्त में किसी को दे देती थीं. “अम्मा जितना किसी को दे देती थीं, अगर हम उसे जोड़ें, तो अब वह अच्छा-ख़ासा पैसा होगा!” उनके परिवार की मुख्य उपज कलक्का (यहां मूंगफली को यही कहते हैं) थी, जो उनके पिता येलुमलई (73) उगाते और बेचते थे. “कलक्का के पैसे अप्पा के होते थे, और कारामणि से जो अतिरिक्त आमदनी होती थी उसे अम्मा रखती थीं.

‘किसान बनने से पहले लेनिन क्या करते थे’ - यह कहानी चेन्नई से शुरू होती है, जहां कईयों की तरह वे भी कॉर्पोरेट जगत में नौकरी करते थे. मास्टर्स की एक अधूरी डिग्री के अलावा, उनके पास दो-दो डिग्रियां थीं और उनका वेतन भी ठीक-ठाक था. लेकिन एक बार उन्होंने एक किसानों पर बनी एक मार्मिक फ़िल्म देख ली: ओन्पतु रुपाई नोट्टु (नौ रुपए का नोट). इस फ़िल्म ने उनके भीतर अपने मां-पिता के साथ रहने की चाहत को उकसाने का काम किया. साल 2015 में लेनिन वापस अपने घर लौट आए.

“उस समय मैं 25 का था और भविष्य को लेकर मेरी कोई योजना नहीं थी. मैं बस फलियां और साग-सब्ज़ियां उगाता था.” तीन साल बाद एक साथ कई कारणों ने मुझे धान और गन्ने की खेती करने के लिए प्रेरित किया. मशीनों, बाज़ार, बंदरों के उत्पात और कई दूसरी बातों ने उनके इस निर्णय को प्रभावित किया.

और बरसात ने भी, वे जोड़ते हैं. “किसान भले ‘जलवायु परिवर्तन’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन वे आपको इसके बारे में विस्तार से बता सकते हैं.” लेनिन कहते हैं कि बेमौसम बारिश उस मेहमान के इंतज़ार करने जैसा है जो कभी खाने के समय नहीं आता. “जब आप भूख से बिलबिलाते हुए मर जाते हैं, तब वे आते हैं और लाशों पर फूल-मालाएं चढ़ाकर शोक प्रकट करते हैं…”

नीम के पेड़ के नीचे ग्रेनाइट की बेंच पर बैठकर रसदार आमों का स्वाद लेते हुए लेनिन हमसे लगभग तीन घंटे तक बातचीत करते हैं, और इस क्रम में वे लगातार तमिल भाषा के प्राचीन कवि तिरुवल्लुवर (जिन्हें तमिलनाडु में जैविक खेती का जनक कहा जाता है), नम्मालवार और धान के सुप्रसिद्ध संरक्षणवादी देबल देब को उद्धृत करते रहे. लेनिन कहते हैं कि पारंपरिक क़िस्मों और जैविक खेती की तरफ़ वापसी आवश्यक और अपरिहार्य दोनों हैं.

चार सालों में उनसे हुई तीन मुलाक़ातों में उन्होंने मुझे खेती, जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता और बाज़ार के बारे में बहुत कुछ बताया.

यह लेनिन की कहानी है. और उस चावल की भी, जिसे अब मानसून पर निर्भर ज़मीन और सूखाग्रस्त रहे खेतों पर गहरे बोरवेल के पानी और उन बीजों की मदद से उगाया जाता है जिन पर नामों की जगह अक्षर और नंबर अंकित होते हैं.

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लेनिन की मां सावित्री पडी और मरक्का (बाएं) दिखा रही हैं, जो चावल को मापने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले लोहे के बर्तन हैं. वे पडी को तूयमल्ली धान (दाएं) से भरती हैं. यह एक पारंपरिक क़िस्म का चावल है

*****

किसान, जिनके पास बहुत सारी भैंसें
और पहाड़ों जैसे ऊंचे अनाज
के भंडार हैं!
आप सुबह पौ फूटने के साथ जाग जाते हैं
ज़्यादा सोए बिना, और अपने आकांक्षी हाथों
से बढ़िया चावल से भरे कटोरे में
काली आंखों वाली वराल मछली खाते हैं.

नट्रिनई 60, मरुतम तिनई.

तमिलनाडु की भूमि हमेशा से चावल की खेती के लिए उपयुक्त रही है. एक किसान, उसके अनाज घर और उसके भोजन के बारे में बताती यह सुन्दर कविता, कोई 2,000 वर्ष पुराने संगम युग में लिखी गई है. इस महाद्वीप में चावल लगभग 8 हज़ार सालों से उगाया जा रहा है.

“पुरातात्विक और अनुवांशिक प्रमाण यह बताते हैं कि एशियाई चावल की इंडिका उप प्रजातियां (भारतीय उपमहादेश में पैदा होने वाले चावल की लगभग सभी क़िस्में इसी प्रजाति से संबंधित हैं) कोई 7,000 से 9,000 साल पहले पूर्वी हिमालय की तराइयों में उगाई गई थीं,” ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ में देबल देब लिखते हैं. “आगामी अनेक सहस्राब्दियों के अनुकूलन और उत्पादन के बाद परंपरागत किसानों ने भू-प्रजातियों के एक समृद्ध कोष की रचना की, जो विभिन्न मिट्टियों, स्थलाकृतियों और सूक्ष्म जलवायु के लिए पूरी तरह अनुकूलित और विशेष संस्कृति, पोषण और औषधीय आवश्यकताओं के उपयुक्त था.” साल 1970 के दशक तक भारतीय खेतों में इस तरह की “लगभग 110,000 क़िस्में” विकसित की जा चुकी थीं.

लेकिन बाद के सालों – और ख़ासकर हरित क्रांति के बाद – इन विविधताओं का अधिकतम हिस्सा समाप्त हो गया. साल 1960 के दशक के मध्य में खाद्य और कृषि मंत्री रहे सी. सुब्रमण्यम ने अपने संस्मरण “दी ग्रीन रिवोल्यूशन” के दूसरे खंड में उस “विनाशकारी और व्यापक दुर्भिक्ष” के बारे में विस्तार से लिखा, जिसके कारण 1965-67 में खाद्यान्नों का भयानक अभाव हुआ, और लोकसभा में “संयुक्त राज्य के साथ हुए समझौते पीएल-480 के अधीन अनाज के आयात पर निरंतर निर्भरता” पर एक प्रस्ताव लाने के लिए बाध्य होना पड़ा, क्योंकि “यह हमारे राष्ट्रीय सम्मान के लिए अपमानजनक और हमारी अर्थव्यवस्था के लिए नुक़सानदायक था.”

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लेनिन तूयमल्ली (बाएं) और मुल्लनकइमा (दाएं) जैसी धान की क़िस्मों को उपजाते और संरक्षित करते हैं

राज्य और उसके नेताओं के सामने दो रास्ते बचे थे – भूमि का पुनर्वितरण, जो कि एक राजनीतिक (और संभावित जटिलताओं से भरा हुआ) समाधान था, और दूसरा एक वैज्ञानिक और तकनीकसम्मत समाधान (जिससे सभी किसान समान रूप से लाभान्वित नहीं भी हो सकते थे). इसलिए उन्होंने पैदावार को बढ़ाने के लिए चावल और गेहूं की उन्नत क़िस्मों को अपनाने का विकल्प चुना.

आज पांच दशक बाद चावल और गेहूं के मामले में भारत न केवल पूरी तरह आत्मनिर्भर है, बल्कि वह कई खाद्यान्नों का निर्यातक भी है. इसके बाद भी कृषि के क्षेत्र में समस्याओं की कोई कमी नहीं है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक़ पिछले तीन दशकों में भारत में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या चार लाख के आंकड़े को भी पार कर चुकी है. देश में उचित मूल्य और न्यायपूर्ण नीतियों की मांग को लेकर किसानों ने कई बड़े आंदोलन और विरोध प्रदर्शन किए हैं. यह एक बड़ी विडंबना है कि जितनी देर में आप यह लेख पूरा पढ़ेंगे, तब तक कोई एक दर्जन किसान कृषि का काम छोड़ चुके होंगे.

यही बात हमें लेनिन और उनके प्रयास की ओर वापस लौटने के लिए प्रेरित करती है. कृषि और किसी एक फ़सल के संदर्भ में हमारे लिए विविधता क्यों महत्वपूर्ण है? क्योंकि मवेशियों, कपास और केलों की तरह दुनिया कम से कम क़िस्मों का उत्पादन करने के बाद भी अधिक से अधिक दूध, सूत और फल प्राप्त कर रही थी. लेकिन “मोनोकल्चर [एकल कृषि] का अत्यधिक विस्तार कुछ कीटों के लिए महाभोज से कम नहीं है,” देब चेतावनी देते हुए कहते हैं.

कृषि वैज्ञानिक और भारत में हरित क्रांति के पिता माने जाने वाले डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने 1968 में आगाह कर दिया था कि “अगर सभी स्थानीय फ़सल की क़िस्मों को एक अथवा दो उन्नत क़िस्मों से बदल दिया जाएगा, तो परिणामतः ऐसी गंभीर बीमारियों का प्रकोप संभव है जो पूरी फ़सल को क्षतिग्रस्त कर दे.”

बहरहाल चावल की नई क़िस्मों ने दुनिया भर में अपने पैर पसार लिए हैं. नवंबर 28, 1966 को अंतर्राष्ट्रीय चावल शोध संस्थान ने चावल की पहली आधुनिक प्रजाति से दुनिया का परिचय कराया, जिसे एक अजूबे नाम “आईआर8” से जाना गया. जल्द ही इसे “मिरेकल राइस [चमत्कारी चावल]” के नाम से कहा गया, जिसने एशिया और उसके बाहर भी चावल-उत्पादन का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया. ‘राइस टुडे’ शीर्षक के साथ लिखे गए एक आलेख में इस बारे में बताया गया है.

अपनी पुस्तक हंगरी नेशन में बेंजमिन रॉबर्ट सीगल मद्रास (चेन्नई को उस समय इसी नाम से जाना जाता था) के बाहरी इलाक़े में रहने वाले एक धनी किसान के बारे में लिखते हैं, जो अपने अतिथियों को नाश्ते में “आईआर-8 इडली” खिलाता है. उसके अतिथि, जिनमें दूसरे किसान और पत्रकार भी शामिल थे, को यह बताया गया था कि आईआर-8 चावल भारत में फिलीपींस से लाए गए थे. उनके दाने न केवल नरम और स्वादिष्ट थे, बल्कि उनका उत्पादन भी प्रचुर मात्रा में होता था.”

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हरा-भरा धान का खेत (बाएं) और गाहने के बाद धान से निकले अनाज के दाने (दाएं)

नए बीजों से बढ़िया परिणाम प्राप्त करने के लिए उनका “प्रयोगशाला-सिद्ध होना बहुत आवश्यक है, अर्थात सिंचाई, खाद और कीटनाशक की यथेष्ठ मात्रा का प्रयोग उनके लिए आवश्यक है,” स्टफ्ड एंड स्टार्वड में राज पटेल कहते हैं. वे यह स्वीकार करते हैं कि “हरित क्रांति ने कुछ हद तक व्यापक भुखमरी को नियंत्रित करने में सफलता हासिल की. लेकिन सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य पर इस तथाकथित सफलता के बड़े मूल्य चुकाने पड़े.”

केवल गेहूं, चावल और गन्ने के उत्पादन को मिलने वाले चुनिंदा अनुदानों ने “किसानों को इन फ़सलों की पैदावार करने के लिए प्रवृत्त किया,” स्टेट ऑफ़ रूरल एंड अग्ररियन इंडिया रिपोर्ट 2020 यह बताती है. “इसने खेती की पुरानी शैली को सूखे इलाक़े में फ़सलों की सिंचाई को बढ़ावा देकर पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया, और साथ ही हमारी थालियों से भोजन की विविधताओं को घटाकर उसे परिष्कृत और प्रसंस्कृत चावल, गेहूं और भारी मात्रा वाली चीनी से स्थानापन्न कर लोगों की सेहत पर बुरा असर डाला.

लेनिन बताते हैं कि तिरुवन्नमलई ज़िले में यह सब उनकी स्मृतियों का एक जीवंत हिस्सा हुआ करता था. “अप्पा के समय में बड़े पैमाने पर केवल मानावरी [मानसून पर निर्भर] फ़सलें और फलियां उपजाई जाती थीं. संबा [धान] की केवल एक पैदावार झील के पास के इलाक़े में होती थी. अब सिंचित खेतों के क्षेत्रफल में बढ़ोतरी हुई है. अप्पा को कोई बीस साल पहले बैंक से एक क़र्ज़ और एक बोरवेल का कनेक्शन मिल गया था. उस समय अभी की तरह स्थिर पानी के साथ हर जगह धान के खेत नहीं दिखते थे,” अपने पीछे के खेतों की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं, जिसमें मिट्टी मिले धूसर पानी में हरा-भरा धान लहलहा रहा है, और उस पानी में पेड़, आसमान और धूप की परछाइयां दिख रही हैं.

“पुराने किसानों से पूछिए,” लेनिन कहते हैं, “वे आपको बताएंगे कि आईआर-8 उनके पेट को कैसे भरता था. वे यह भी बताएंगे कि उनके मवेशियों के लिए चारा मिलने में कितनी परेशानी होने लगी.” कलसपक्कम में हुई किसानों की एक सभा में अनेक कृषकों ने इसको लेकर आशंकाएं ज़ाहिर कीं. “आप जानते हैं, कुछ किसान परिवारों में छोटे क़द के लोगों को अभी भी ईरेट्टु [तमिल भाषा में आईआर-8] कहा जाता है,” वे कहते थे और बाक़ी लोग सुनकर हंसने लगते थे.

लेकिन जब जैवविविधता की बात निकलती थी, तो उनके पास कहने को कुछ नहीं होता था.

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बाएं: अपने गोदाम से निकलकर खेतों की तरफ़ जाते लेनिन. दाएं: वह खेत, जहां वे पारंपरिक क़िस्मों के चावल उपजाते और संरक्षित करते हैं

*****

पहली बार 2021 में जब मैं लेनिन से मिलता हूं, तब वे किसानों के बड़े से समूह से जलवायु परिवर्तन और खेती के बारे में बातचीत कर रहे हैं. यह तिरुवन्नमलई जिले के कलसपक्कम शहर में पारम्परीय विधइगल मइयम [ट्रेडिशनल सीड्स फोरम] की मासिक सभा है. यह समूह प्रत्येक महीने की 5 तारीख़ को मिलता है. यह सितंबर महीने की बैठक है और सुबह से ही कड़ी धूप व प्रचंड गर्मी का प्रकोप जारी है. अलबत्ता मंदिर के पिछवाड़े में जिस नीम की छांव के नीचे हम बैठे हैं वहां थोड़ी ठंडक ज़रूर है. यहां लोग सुनने और सीखने के अलावा आपस में हंस-बतिया भी रहे हैं.

“जैसे ही हम किसी से यह कहते हैं कि हम जैविक किसान हैं, तो लोग या तो हमारे पैर छूने लगते हैं या हमें मूर्ख बताने लगते हैं,” लेनिन हंसते हुए कहते हैं. “लेकिन आज के नौजवान जैव कृषि के बारे में क्या जानेंगे,” फोरम के सह-संस्थापक 68 वर्षीय पी.टी. राजेंद्रन कहते हैं. उन्होंने शायद पंचकव्व्यम (जो गोमूत्र, गोबर और अन्य सामग्रियों को मिश्रित करके बनाया जाता है, और जिसे वृद्धिकारक और रोग-प्रतिरोधक बताया गया है) के बारे में सुन रखा हो. लेकिन जैविक कृषि उसकी तुलना में बहुत महत्वपूर्ण विज्ञान है.”

किसानों के लिए कई बार यह बदलाव स्वाभाविकता के साथ भी होता है. लेनिन के पिता येलुमलई ने रसायनिक कीटनाशकों और खादों का उपयोग केवल इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि वे बहुत ख़र्चीले थे. “एक बार दवाओं का छिड़काव करने से हज़ारों रुपए ख़र्च हो जाते थे,” लेनिन बताते हैं. “अप्पा ने पसुमई विकटन [एक कृषि पत्रिका] में पढ़ा और प्राकृतिक कृषि-आधारित तत्वों का घोल बनाकर मुझे छिड़काव करने के लिए दिया. मैंने वैसा ही किया.” यह काम कर गया.

प्रत्येक महीने किसान किसी एक पूर्वनिर्धारित विषय पर बातचीत करते हैं. कुछ किसान अपने साथ कंद, दालें और कोल्हू से निकला तेल बेचने के उद्देश्य से लेकर आते हैं. कोई आने वाले सभी किसानों के लिए भोजन की व्यवस्था करता है, कोई अन्य भोजन के लिए दाल और सब्ज़ियां उपलब्ध कराता है. खुले में ही लकड़ी की भट्ठी पर चावल का एक पारंपरिक व्यंजन बनाया जाता है, और केले के पत्ते पर स्वादिष्ट सांभर और सब्ज़ी के साथ उसे गर्मागर्म परोसा जाता है. क़रीब 100 से भी अधिक की संख्या में आए प्रतिभागियों के भोजन पर लगभग 3,000 हज़ार रुपए का ख़र्च आता है.

इस बीच किसान जलवायु परिवर्तन पर बातचीत करते हैं. इसका सामना करने के लिए वे जैविक खेती, विरासत में मिली क़िस्मों और विविधता को सबसे कारगर बताते हैं.

“काले बादल घिर जाते हैं. किसानों के भीतर वर्षा की आशा जगती है, लेकिन बादल अचानक ग़ायब हो जाते हैं, आसमान फिर से साफ़ दिखने लगता है और जनवरी में जब धान तैयार हो जाता है, तो अचानक ज़ोरदार बारिश होती है और पूरी फ़सल तबाह हो जाती है. इसमें हम क्या कर सकते हैं? मेरा मानना है कि कभी भी एक ही फ़सल पर निर्भर मत रहिए,” राजेंद्रन सुझाव देते हैं. “खेत के किनारों पर अगति [अगस्त्य या हमिंग बर्ड का पेड़], और सूखी ज़मीन पर ताड़ के पेड़ लगाइए. केवल मूंगफली और धान पर आश्रित नहीं रहिए.”

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कलसपक्कम आर्गेनिक फोरम में किसानों के साथ बातचीत करते हुए पी.टी. राजेंद्रन (बाएं) और लेनिन (दाएं)

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बाएं: बैठक में बेचने के उद्देश्य से लाई गईं फलियां, दालें और चावल. दाएं: बैठक में भाग लेने आए किसानों के लिए भोजन पकाने और खिलाने की व्यवस्था रहती है

जैविक किसानों का आन्दोलन अब किसानों को शिक्षित करने की जगह उपभोक्ताओं को शिक्षित करने के आन्दोलन में बदल चुका है. कम से कम तिरुवन्नमलई ज़िले में तो यह बात पूरी तरह सही प्रतीत होती है. “हमेशा यह उम्मीद मत रखिए कि आपको एक ही चावल की क़िस्म मिलेगी.” हमेशा यही रटते रहना ठीक नहीं है. “ग्राहक पांच किलो की थैली में चावल मांगते हैं. उनका कहना है कि उनके लिए अधिक मात्रा में चावल रखने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है.” एक बुज़ुर्ग किसान चुटकी लेते हैं: “जब आप कोई घर ख़रीदते हैं, तो कार या मोटरसाइकिल रखने की जगह देखते हैं. तो, चावल की एक बोरी रखने की जगह क्यों नहीं?”

छोटी-छोटी मात्राओं में चावल रखना झमेले का काम है, किसान कहते हैं. चावल की एक बड़ी बोरी भेजने की बनिस्पत छोटी बोरियों को भेजना समय, श्रम और पैसे की दृष्टि से अधिक महंगा है. “हाइब्रिड चावल अब एक सिप्पम [26 किलो की बोरी] में बेचे जाते हैं. उनकी पैकिंग में सिर्फ़ दस रुपए का ख़र्च आता है, जबकि पांच किलो के बंडल में चावल की उतनी ही मात्रा बेचने में हमें 30 रुपए ख़र्च करने पड़ते हैं,” लेनिन बताते हैं. “नाकु तल्लुदु” वे लंबी सांस लेते हुए कहते हैं. तमिल भाषा में यह शब्द मोटे तौर पर थकान और ऊब को व्यक्त करने के लिए जीभ को बाहर की तरफ़ निकालते हुए कहा जाता है. “शहर के लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि गांव में यह सब कैसे किया जाता है.”

लेनिन के लिए इस काम की एक सरल परिभाषा है, और कामकाजी घंटे भी तय हैं. “जब मैं नहीं सो रहा होता हूं या अपनी मोटरसाइकिल नहीं चला रहा होता हूं, तब मैं काम करता होता हूं.” लेकिन सच यही है कि वे मोटरसाइकिल चलाते हुए भी काम कर रहे होते हैं. वे बाइक में चावल की बंधी बोरियों के साथ घूम रहे होते हैं, ताकि ग्राहकों को डिलीवरी दी जा सके. उनका फ़ोन भी लगातार बजता रहता है. यह सिलसिला सुबह पांच बजे से ही शुरू हो जाता है और रात के दस बजे तक चलता रहता है. बीच-बीच जब उन्हें थोड़ा समय मिलता है, तब व्हाट्सऐप मैसेजों का जवाब देते हैं. वे लिखने के लिए समय निकालते हैं.

“हमने तिरुवन्नमलई ज़िले की धान की सभी परंपरागत क़िस्मों की एक पुस्तिका बनाई है.” यह बहुत मशहूर हुई और इसका ख़ूब प्रसार भी हो रहा है. “मेरी मामा पोंनु [मामा की बेटी] ने मुझे यह व्हाट्सऐप पर भेजा,” लेनिन हंसते हुए कहते हैं. “उसने कहा ‘देखो किसी ने यह कितने सुंदर ढंग से तैयार किया है.’ मैंने उससे कहा इसका अंतिम पन्ना पलटकर देखो. वहां उसने मेरा नाम लिखा देखा: लेनिनदासन.”

आत्मविश्वास से भरे हुए एक विनम्र किसान लेनिन तमिल के अलावा अंग्रज़ी भी बहुत सहजता से बोलते हैं, और उतनी ही आसानी से दोनों भाषाओँ के बीच आवाजाही कर सकते हैं. उनके पिता येलुमलई विचारधारा से कम्युनिस्ट (इसका अंदाज़ा लेनिन के नाम से हो जाता है. वह मुस्कुराते हैं) थे. एक नौजवान के रूप में लेनिन ने बहुत घंटे खेतों में गुज़ारे हैं. लेकिन उन्होंने कभी यह सोचा नहीं था कि वे एक पूर्णकालिक जैविक किसान और चावल के संरक्षणकर्ता बनेंगे.

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धान की बहुत सी पारंपरिक क़िस्मों को दिखाते लेनिन

“मेरे डबल ग्रेजुएशन के बाद मैं चेन्नई के एग्मोर में एक नौकरी करने लगा और वहीं रहने लगा. साल 2015 में मुझे महीने में 25,000 रुपए मिलते थे और मेरा काम मार्केट रिसर्च से संबंधित था. कमाई ठीकठाक थी...”

जब वे सेंगुनम लौटे तो वे रासायनिक दवाइयों के उपयोग पर निर्भर खेती करने लगे. “मैं लौकी, बैंगन, टमाटर जैसी सब्जज़ियां उपजाता था और यहीं उन्हें बेच देता था,” वे हमारे पास से गुज़रती सड़क की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं. लेनिन हर हफ़्ते उलवर संदई (किसानों की बस्तियों) में जाते थे. उसी समय उनकी तीन बहनों का विवाह भी संपन्न हो गया.

“मेरी मंझली बहन की शादी का ख़र्च हल्दी की पैदावार से पूरा हुआ. लेकिन यह बहुत मेहनत का काम है. परिवार के एक-एक सदस्य को हल्दी उबालने के काम में लगना पड़ता है,” वे बताते हैं.

जब उनकी बहनें अपनी-अपनी सुसराल चली गईं, तो लेनिन को खेत और घर में काम करना बहुत कठिन लगने लगा. अकेले वे मानसून पर निर्भर अलग-अलग फ़सल उगाने की स्थिति में नहीं थे और न वे उन्हें काट या तोड़कर बेच ही सकते थे. मौसमी फ़सलों का भी कोई भरोसा नहीं था. समय पर उनकी कटाई, कीड़ों, तोतों और घुसपैठिए मवेशियों से फ़सलों की रक्षा करने के लिए उनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे. “मक्के, मूंगफली और लोबिया को इकट्ठा करने और उनकी हिफ़ाज़त के लिए अधिक लोगों की ज़रूरत पड़ती है. अपने दो हाथों और पैरों की बदौलत मैं अकेले यह सब कैसे कर सकता था. फिर मुझे अपने बूढ़े होते माता-पिता की भी देखभाल करनी थी.”

लगभग उसी समय बंदरों के उत्पात में बहुत तेज़ी आ गई. “क्या आप उस नारियल के पेड़ को देख पा रहे हैं? वहां से यहां तक,” वे सर के ऊपर संकेत करते हुए कहते हैं, “बन्दर पेड़ की फुनगियों पर छलांग लगा कर लंबी दूरी तय कर सकते हैं. वे उन बरगदों पर सो जाते थे. हमारे खेत में एक साथ चालीस से साथ बंदर घुस जाते थे. मुझसे उन्हें थोड़ा डर लगता था; मैं उन्हें खदेड़ देता था. लेकिन वे चालाक थे, और मेरे माता-पिता के साथ मनोवैज्ञानिक तरकीबें आज़माते थे. कोई एक बन्दर उनके क़रीब पहुंच जाता था, और जैसे ही दोनों उसके पीछे लपकते थे, बाक़ी बंदर फ़सलों पर टूट पड़ते थे...हमने कहानी की किताबों में जो पढ़ा था वह सब झूठ नहीं था. बंदर सचमुच चालाक होते हैं!”

उनका यह उत्पात लगभग चार साल तक चलता रहा, और आसपास के तीन किलोमीटर के दायरे में आने वाले किसानों ने अपने खेतों में मजबूरन वह सब उगाना शुरू कर दिया जिनमें बंदरों की कोई रुचि नहीं थी. लेनिन और उनके परिवार ने भी धान और गन्ना उपजाने का फ़ैसला कर लिया.

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अपने दोस्त एस. विग्नेश (दाएं) के साथ लेनिन (बाएं). विग्नेश जो ख़ुद एक किसान और वितरक हैं, एक बाइक पर चावल की बोरियां लाद रहे हैं

*****

“धान हमारा अभिमान है,’ लेनिन कहते हैं. “यहां इसकी प्रतिष्ठा काफ़ी है. अगर गाएं और बकरियां दूसरे खेतों में घुस जाएं, तो मवेशीपालक को एक आत्मसंतुष्टि मिलती है. लेकिन यदि ऐसा धान के साथ होता है, तो वे क्षमा मांगने लगते हैं, भले ऐसा लापरवाहीवश हुआ हो. वे मुआवजा भरने को भी तैयार होते हैं. आप समझ सकते हैं, धान को यहां कैसा सम्मान प्राप्त है.”

इस फ़सल को कुछ तकनीकी लाभ, मशीनों के फ़ायदे और बाज़ार तक पहुंच भी स्वतः हासिल है. लेनिन के शब्दों में यह सौरियम (सुविधा) है. “देखिए, धान उगाने वाले किसानों को अब सामाजिक समाधानों की ज़रूरत नहीं है, उन्हें तकनीकी समाधानों की आवश्यकता है, और ऐसे समाधान जो उन्हें एकल-कृषि [मोनो क्रॉपिंग] की तरफ उन्मुख करें.”

कृषियोग्य भूमि पारंपरिक रूप से पुनसेई निलम (सूखी या वर्षा पर निर्भर भूमि) और ननसेई निलम (सिंचाई वाली भूमि) में बंटी होती है. “पुनसेई वह भूमि है जिसपर आप अलग-अलग क़िस्म की फ़सल लगा सकते हैं,” लेनिन बताते हैं. “बुनियादी तौर पर वे सभी चीज़ें जिनकी ज़रूरत आपको अपने घर के लिए होती है. जब भी उन्हें समय मिलता था, किसान पुलुदी अर्थात सूखी, धूल भरी ज़मीन को जोतते थे. यह एक तरह से उनके लिए समय और श्रम की ‘बचत’ की तरह था, गोया आपने खेत में ही अपने लिए कोई ‘बैंक’ बना रखा हो. लेकिन मशीनीकरण से स्थितियां बदल गईं. अब आप रात भर में 20 एकड़ खेत जोत सकते हैं.”

एक कटाई के मौसम में किसान पुनसेई में चावल की स्थानीय क़िस्में उपजाते थे. “वे पूनकार या कुल्लनकार जैसी दो क़िस्मों में कोई एक चुनते थे. दोनों क़िस्में एक जैसी ही दिखती हैं,” लेनिन बताते हैं. “लेकिन उनमें मुख्य अंतर फ़सल चक्र की अवधि का है. यदि आपको आपको पानी की किल्लत की चिंता है, तो बेहतर होगा कि आप पूनकार क़िस्म को लगाएं, जो अमूमन 75 दिनों में तैयार हो जाता है, जबकि कुल्लनकार को तैयार होने में 90 दिन लग जाते हैं.”

लेनिन बताते हैं कि मशीनीकरण के कारण ज़मीन के छोटे से छोटे टुकड़े पर भी धान की खेती संभव हो गई है. इस पद्धति में खेत में जलजमाव की भी बहुत अधिक ज़रूरत नहीं है. “हमारे इलाक़े में पिछले 10-15 सालों से बैलों का उपयोग नहीं होता है. किराए पर उपलब्ध [या ख़रीदे गए) नए मशीनों की मदद से एक या यहां तक कि आधा एकड़ ज़मीन को भी जोतना संभव हो गया है. अब अधिक से अधिक लोग धान की खेती कर सकते हैं.” फिर वे उन दूसरे मशीनों के बारे में बताने लगते हैं जो रोपाई, प्रत्यारोपण, खर-पतवार की सफ़ाई, कटाई और धान को गाहने के काम आते हैं. “जहां तक धान की फ़सल का सवाल है, बीज से शुरू करके बीज निकाले जाने तक मशीनें हर काम कर सकती हैं ”

कई बार तो ऐसा लगता कि धान उपजाना आदमी और मशीन के बीच का कारोबार है. तिल जैसे मानसून पर निर्भर फ़सल का भंडारण, उसको सुखाना और गाहना अधिक आसान है. “इसे उगाने में अधिक श्रम नहीं लगता. एक बार जब आप बीज छींट देते हैं, तो आप आराम से बैठ सकते हैं,” यह बताते हुए लेनिन अपना हाथ बिल्कुल उसी अर्द्ध-वृत्ताकार मुदा में घुमाते हैं, जैसे खेत में बीज छींट रहे हों. लेकिन धान ने इन फ़सलों को स्थानापन्न कर दिया है, क्योंकि इसकी पैदावार भी अच्छी-ख़ासी होती है. “यदि आप तिल 2.5 एकड़ में भी उपजाते हैं, तो आपको तिलों की सिर्फ़ दस बोरियां मिलती हैं. आप इन्हें एक भाड़े के ऑटो पर लादकर बाज़ार ले जा सकते हैं. और धान? इसकी पैदावार को ढोने के लिए आपको एक टिपर ट्रक की ज़रूरत पड़ सकती है!”

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पूनकार क़िस्म वाला धान का खेत

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बाएं: धान को गाहने की जगह. दाएं: अपने गोदाम में लेनिन

दूसरी बात चावल के लिए नियंत्रित कृषि बाज़ारों से संबंधित है. पूरी आपूर्ति व्यवस्था विकसित क़िस्मों को प्रत्साहित करती है. हरित क्रांति के बाद जितने भी आधुनिक चावल-मिल खुले, उनके पास गुणवत्ता की दृष्टि से अच्छी मशीनरियां हैं. इनमें चलनी भी शामिल है. ये स्थानीय क़िस्मों के अनुकूल नहीं हैं, क्योंकि उनके दानों के आकार अलग-अलग होते हैं. इसके अलावा, रंग वाले चावल का प्रसंस्करण आधुनिक मिलों में असंभव है. “चावल-मिल के मालिक भले ही हरित कांति के बड़े पैरोकार न हों या संभव है कि इस बारे में उनकी कोई स्वतंत्र राय भी नहीं हो. लेकिन वे यह समझते हैं कि लोगों को पतले, चमकीले और सफ़ेद चावल के दाने लुभाते हैं. और, ऐसे केवल हाइब्रिड चावल ही होते हैं. चावल की मिल इसी पसंद को तुष्ट करने के लिए खोली गई हैं.”

हैरत की बात नहीं है कि किसान, जो वैविध्यता को बढ़ावा देते हैं और पारंपरिक चावल उपजाते हैं, उनको अपनी जानकारियों पर ही निर्भर रहना होता है. उनके प्रोसेसिंग यूनिट भी छोटे होने के साथ-साथ खस्ताहाल होते हैं, और सामाजिक सहयोग की दृष्टि से भी वे बहुत ख़ुशक़िस्मत नहीं होते हैं, लेनिन विस्तार से ख़ुलासा करते हैं. “जबकि उन्नत क़िस्मों के धान और चावल की सभी आधुनिक प्रजातियों को ये सारी सुविधाएं स्वतः प्राप्त हैं.”

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तिरुवन्नमलई चारों ओर से ज़मीन से घिरा ज़िला है, जो चेन्नई से 190 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में बसा है. यहां रहने वाला हर दूसरा व्यक्ति “कृषि-आधारित काम” पर निर्भर है. इस इलाक़े में चावल के बहुत सारे मिल हैं, और कुछ चीनी मिल भी हैं.

वर्ष 2020-21 में तिरुवन्नमलई तमिलनाडु का धान की खेती वाला तीसरा सबसे बड़ा भूक्षेत्र था. लेकिन उत्पादन की दृष्टि से इसका स्थान प्रथम था. राज्य में चावल के उत्पादन में 10 प्रतिशत से कुछ अधिक का योगदान इसी ज़िले का था. “दूसरे ज़िलों के औसतन 3,500 किलो प्रति हेक्टेयर के मुक़ाबले तिरुवन्नमलई की औसत पैदावार लगभग 3,907 किलो प्रति हेक्टेयर है,” एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फ़ाउंडेशन के इकोटेक्नोलॉजी विभाग के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. आर. गोपीनाथ कहते हैं.

तिरुवन्नमलई ज़िले में धान की खेती बहुत तेज़ी से बढ़ी है. यह बात इकोटेक्नोलॉजी, एमएसएसआरएफ़ के निदेशक डॉ. रेंगलक्ष्मी कहती हैं. “इसके बहुत से कारण हैं. एक, जब बारिश होती है, तो किसान जोखिम को कम करना चाहते हैं और उपलब्ध पानी का अधिकतम उपयोग धान की खेती में करते हैं. इससे उन्हें अच्छी पैदावार मिलती है और उनको अधिक आर्थिक लाभ होने के नए रास्ते खुलते हैं. दूसरा, उन क्षेत्रों में जहां इसे डिनर टेबल, या परिवार का पेट भरने के लिए उगाया जाता है, वहां किसान इसे हर स्थिति में उगाएंगे. और, अंततः सिंचाई की बढ़ती हुई सुविधाओं के साथ एक फ़सल-चक्र के अलावा भी धान उगाया जाता है. इसलिए भू-जल पर बढ़ती हुई निर्भरता के कारण धान के पैदावार के क्षेत्र में वृद्धि नहीं होने के बावजूद उत्पादन में वृद्धि अवश्य हुई है.”

धान की फ़सल को बहुत पानी देना पड़ता है. “नाबार्ड द्वारा ‘भारत की प्रमुख फ़सलों की वाटर प्रोडक्टिविटी मैपिंग’  (2018) के अनुसार, एक किलो चावल की पैदावार में लगभग 3,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. पंजाब-हरियाणा में यह बढ़कर 5,000 लीटर तक हो जाती है,” डॉ. गोपीनाथ कहते हैं.

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लेनिन के खेत में हाल में ही रोपे गए धान के पौधे

लेनिन के खेत सिंचाई के लिए एक खुदे हुए कुएं पर निर्भर हैं, जो 100 फीट गहरा है. “हमारी फ़सल के लिए यह पर्याप्त है. हम तीन-इंच मोटी पाइप के साथ मोटर को एक बार में दो घंटे तक लगातार चला सकते हैं. ऐसा दिन भर में पांच बार किया जा सकता है.” वे आगे कहते हैं, “लेकिन मैं इसे चलते हुए छोड़कर इधर-उधर नहीं जा सकता...”

डॉ. रेंगलक्ष्मी बताती हैं कि वर्ष 2000 और 2010 के बीच सिंचाई की क्षमता बढ़ी है. “लगभग इसी समय बाज़ारों में ऊंचे हॉर्सपॉवर वाले बोरवेल मोटर भी उपलब्ध हो गए. साथ ही ड्रिलिंग मशीन भी सामान्य बात हो गई. तमिलनाडु में तिरुचेंगोडे बोरवेल से संबंधित सामानों का केंद्र बन गया. कई बार किसान प्रत्येक तीन-चार साल पर नया बोर करा लेते हैं. अगर उन्होंने केवल मानसून पर निर्भर किया होता, तो वे अधिक से अधिक तीन से पांच महीने ही खेती कर पाते. सिंचाई की सुविधा के साथ अब उनके पास काम की भी कमी नहीं है और साथ-साथ उत्पादन में भी बढ़ोतरी हुई है. इसलिए चावल की पैदावार की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण समय माना जा सकता है. साल 1970 के दशक तक चावल को सामान्यतः एक ऐसा भोजन माना जाता था जो उत्सव-त्योहारों के अवसर पर पकाया जाता था. अब इसे रोज़ पकाया जाता है. जन वितरण प्रणाली द्वारा इसकी वृहद् उपलब्धता ने भी चावल की खपत को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है.

तमिलनाडु के कुल कृषियोग्य भूमि के 35 प्रतिशत हिस्से में धान की खेती की जाती है. लेकिन जैविक सामग्रियों के उपयोग से स्थानीय क़िस्में कितने किसान उपजाते हैं?

यह अच्छा प्रश्न है, लेनिन मुस्कुराते हैं. “यदि आप एक्सेल शीट पर लिखें, तो सिंचित धान के खेतों में 1 से 2 प्रतिशत स्थानीय क़िस्में ही पाएंगे. यह भी अधिक हो सकता है. बड़ी बात यह है कि पूरे राज्य में इसका प्रचलन बढ़ा है.”

लेकिन, लेनिन की असल चिंता यह है कि आधुनिक क़िस्में लगाने वाले किसानों को किस प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है? “उन्हें बस पैदावार बढ़ाने की बात कही जाती है, ताकि उनकी आमदनी भी बढ़ सके. ऊपर से निर्देश आते हैं – चेन्नई से कोयंबटूर तक, और विभिन्न ब्लॉकों तक और फिर किसानों तक पहुंचते हैं. क्या इस तरीक़े से वे पिछड़ नहीं जाएंगे? वे अपने बारे में कुछ नहीं सोच पाएंगे.” लेनिन हैरत से कहते हैं.

बस जब मूल्य-संवर्द्धन की बात आती है, तब ‘नीचे से ऊपर’ का दृष्टिकोण अपनाया जाता है, वे बताते हैं. “हमें चावल को प्रोसेस करने, उसकी पैकिंग करने जैसे काम के निर्देश दिए जाते हैं...” किसानों को उत्पादन और आमदनी के चश्मे से सबकुछ दिखाने की कोशिश की जाती है. उन्हें दिवास्वप्न दिखाया जाता है कि और अधिक पैदावार का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है.

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धान की विभिन्न क़िस्मों को दिखाते लेनिन और उनके मित्र

लेनिन बताते हैं कि एक समूह के रूप में जैविक किसान विविधता, निरंतरता और स्थिरता और अन्य मुद्दे जो लोगों पर व्यापक प्रभाव डालते हैं, जैसी बातों में रुचि लेते हैं. “क्या चावल - या खेती के विषय पर हमें बराबरी का हिस्सेदार मानते हुए आमने-सामने बैठकर बातचीत नहीं होनी चाहिए? अनुभव के धनी किसानों को पूरी प्रक्रिया से बाहर क्यों रखा जाता है?”

तिरुवन्नमलई में जैविक खेती बहुत लोकप्रिय है, और “ख़ास तौर पर युवा पुरुष किसानों में इसे विशेषकर बहुत पसंद किया जाता है. कम से कम 25 से 30 साल के आयुवर्ग के आधे किसान रसायन-मुक्त खेती को प्राथमिकता देते हैं,” लेनिन कहते हैं. इसलिए भी इसे लेकर यहां बहुत अधिक सक्रियता देखी जा सकती है. ज़िले में इसके पैरोकारों की तादाद भी कम नहीं है. “ज़मींदारों से लेकर ऐसे किसान जिनके पास अपनी एक धुर भी ज़मीन नहीं है, ऐसे अनेक शिक्षक जैविक कृषि के पक्ष में हैं!” वे कलसपक्कम फोरम के संस्थापक वेंकटाचलम अइया की भूमिका को रेखांकित करते हैं. इसके अलावा तमिलनाडु में जैविक कृषि के पुरोधा और विचारक नम्मालवार, पामयन, जैविक किसान मीनाक्षी सुंदरम, और कृषि-वैज्ञानिक डॉ. वी. अरिवुडई नम्बी ज़िले के युवाओं के लिए निजी प्रेरणास्रोत हैं. “इस तरह बहुत से सुविख्यात लोगों ने हमें सिखाया है.”

अनेक किसानों के पास अतिरिक्त आय (गैर-कृषि) के श्रोत भी हैं. “वे यह समझते हैं कि खेती से होने वाली कमाई पर्याप्त नहीं हो सकती है.” यह अतिरिक्त आय अन्य आवश्यकताओं की भरपाई के काम आती है.

मार्च, 2024 में मेरी तीसरी यात्रा के दौरान लेनिन बताते हैं कि किसानों के लिए सीखना हमेशा जारी रहता है. “अपने अनुभवों से मैं फ़सलों के बारे में सीखता हूं: वह क़िस्म जो तन कर खड़ी रहे और अच्छी पैदावार दे. मैं 4सी फ्रेमवर्क पर भी भरोसा करता हूं: कंजर्वेशन, कल्टीवेशन, कंज़म्पशन और कॉमर्स [संरक्षण, कृषि, खपत और व्यापार].”

हम शेड से टहलते हुए उनके खेत में पहुंचते हैं. यह बहुत छोटी सी दूरी है – चने के खेत के पार और गन्ने के पौधों के पास का खेत. इन खेतों के पार चौरस छत वाले मकान हैं. “अब यहां ज़मीनें वर्गफुट के भाव से बिक रही हैं,” लेनिन लंबी सांस लेते हुए बताते हैं. “यहां तक कि समाजवादी विचारों वाले लोग भी अब पूंजीवादी लोभों का शिकार बन चुके हैं.”

वे अपने एक चौथाई खेत में पूनकार क़िस्म का धान उपजाते हैं. “मैंने पूनकार के बीज एक अन्य किसान को दिए थे. उसने फ़सल कटने के बाद मुझे वे बीज वापस कर दिए.” मुफ़्त का यह लेनदेन यह सुनिश्चित करता है कि आपस में इन बीजों के प्रसार में बढ़ोतरी होती रहे.

ज़मीन के एक अन्य हिस्से में उन्होंने मुझे एक दूसरी प्रजाति दिखाई, जिसे वालइपू सम्बा कहते हैं. “एक अन्य संरक्षणवादी कार्ति अन्ना ने मुझे ये बीज दिए.” धान की पकी हुई बालियां हाथ में एक गुच्छे की तरह जमा करते हुए लेनिन कहते हैं, “हमें इन क़िस्मों को अपनाना ही होगा.” उनके हाथ में अनाज के दाने पूरी गरिमा के साथ झूमते दिख रहे हैं. ये अपने आकार में सच में वालइपू (केले के फूल) सरीखे लग रहे हैं, मानो उन्हें किसी सोनार ने बारीकी से बनाया हो.

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हमें वालइपू सम्बा की पारंपरिक क़िस्म दिखाते लेनिन

लेनिन यह मानते हैं कि सरकार भी जैविक कृषि और स्थानीय क़िस्मों को लोकप्रिय बनाना चाहती है, और इसके लिए विविधता मेले और प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं. “बहरहाल यह उम्मीद करना बेमानी है कि स्थितियां रातोरात बदल जाएंगी. खाद की फैक्ट्रियां और बीज के दुकान बंद तो नहीं किए जा सकते हैं. क्या यह संभव है? बदलाव धीरे-धीरे ही संभव है,” वे कहते हैं.

तमिलनाडु में कृषि और किसान कल्याण मंत्री एम.आर.के. पन्नीरसेल्वम ने 2024 के अपने कृषि-बजट भाषण में कहा कि धान की पारंपरिक क़िस्मों के संरक्षण के लिए गठित नेल जयरामन मिशन के अंतर्गत, “2023-2024 की अवधि में लगभग 12,400 एकड़ में पारंपरिक क़िस्मों की खेती से कोई 20,979 किसान लाभान्वित हुए थे.”

यह अभियान स्वर्गीय नेल जयरामन को एक प्रतीकात्मक श्रद्धांजलि है, जिन्होंने 2007 में नेल तिरुविला के नाम से तमिलनाडु में पारंपरिक धान के बीजों के विनिमय मेले की शुरुआत की थी. यह उत्सव ‘सेव आवर राइस’ अभियान का एक हिस्सा था. “क़रीब 12 सालों में उन्होंने और आत्मविश्वास से भरे जैविक किसान और बीज को संरक्षित करने वाले उनके समर्थकों ने लगभग 174 क़िस्मों का संग्रह किया है. इनमें से अधिकांश क़िस्में नष्ट होने के संकट से जूझ रही थीं.”

लेनिन केवल यह बात भलीभांति जानते हैं कि किसानों और ग्राहकों में इन विरासत में मिली क़िस्मों को लोकप्रिय करने का क्या महत्व है. “संरक्षण सबसे केंद्रीय क्षेत्र हैं, जहां धान को एक सीमित क्षेत्र में रोपा जाता है. उनकी अनुवांशिक शुद्धता और क़िस्मों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. फ़सल के लिए इन क़िस्मों के विस्तार की ज़रूरत है, और इसके लिए समाज का सहयोग अपेक्षित है. अंत के दो ‘सी’ – कंजम्सन और कॉमर्स, या खपत और व्यापार – दोनों साथ-साथ चलने वाली चीज़ें हैं. आप बाज़ार बनाते हैं और उसे लेकर ग्राहक के पास जाते हैं. मिसाल के तौर पर, हमने सीरग सम्बा से अवाल (चिवड़ा) बनाने की कोशिश की. यह कोशिश बहुत सफल रही,” वे ख़ुश होकर बताते हैं. “अब हम पुरानी पद्धतियों को पुनर्जीवित और लोकप्रिय करने की कोशिश कर रहे हैं!”

लेनिन बताते हैं कि सीरग सम्बा का तमिलनाडु में ‘करिश्माई बाज़ार’ है. “लोग बिरयानी के लिए इसे बासमती से अधिक पसंद करते हैं. इसीलिए यहां आसपास एक भी बासमती प्रोसेसिंग यूनिट नहीं है.” पीछे पृष्ठभूमि से हॉर्न बजने की आवाज़ें आती हैं, मानो वे भी सीरग सम्बा का जश्न मना रहे हों. उसी तरह किसानों में करुप्पु कवुनी की तुलना धोनी के छक्के से की जाती है. लेकिन यहां केवल एक खटका है. “मान लीजिए कोई मुक़ाबले में उतरता है और एक विशाल खेत में करुप्पु कवुनी चावल की खेती शुरू करता है – कोई 2,000 के आसपास की बोरियों की. तो ज़ाहिर बात है कि यह पूरी बाज़ी पलट देगा और क़ीमतें औंधे मुंह गिरेंगी.” छोटे खेतों के लिए सबसे बड़ा लाभ – उनकी विविधता और कम मात्राएं – उनके नुक़सान का सबसे बड़ा और गंभीर कारण बन सकती हैं.

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बाएं: लेनिन द्वारा उपजाई गई करुप्पु कवुनी क़िस्म. दाएं: फोरम में बेचने के लिए लाया गया इल्लपइपु सम्बा, जो बिना पॉलिश वाला कच्चा चावल है

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सबसे बड़ा लाभ जिसे समझना सबसे आसान भी है, वह इसका आर्थिक पक्ष है. जैविक साधनों के साथ धान की पारंपरिक क़िस्मों को उगाना क्या लाभदायक है? “बिल्कुल है,” लेनिन धीमी लेकिन दृढ आवाज़ में कहते हैं.

लेनिन के हिसाब के अनुसार एक एकड़ धान की पैदावार से लगभग 10,000 रुपए का मुनाफ़ा होता है. “एक एकड़ पारंपरिक चावल की जैविक खेती में कोई 20,000 रुपयों की लागत आती है. रासायनिक खेती में यह ख़र्च बढ़कर 30,000-35,000 रुपए तक हो जाता है. पैदावार से होने वाला लाभ भी लागत के ही अनुपात में होता है. पारंपरिक चावल औसतन 15 से 22 बोरी प्रति एकड़ होता है. एक बोरी में 75 किलो चावल होता है. आधुनिक क़िस्मों में यह बढ़कर लगभग 30 बोरी तक पहुंच जाता है.”

लागत कम रखने के लिए लेनिन अधिकतर काम ख़ुद, और बिना किसी मशीन की मदद से करते हैं. कटाई के बाद वे बंडल तैयार करते हैं, गाहने के बाद अनाज के दाने इकट्ठा करते हैं, और उन्हें बोरियों में भरते हैं. इससे उन्हें 12,000 प्रति एकड़ की बचत होती है. लेकिन वे इस श्रम के मूल्य का भी लागत जोड़ने के मामले में सतर्क रहते हैं. “मुझे लगता है, हमें अधिक स्थानीय आंकड़ों की आवश्यकता है. जैसे, 30 धुर ज़मीन पर मापिल्लई सम्बा जैसी कोई पारंपरिक क़िस्म की खेती करके हाथ और मशीन से की गई कटाई की लागत जोड़कर सावधानीपूर्वक उसका विश्लेषण करना ज़रूरी है.” वे दूरदर्शी हैं और यह समझते हैं कि मशीनीकरण श्रम को कम कर सकता है, लागत को नहीं. “अगर मूल्य आधारित लाभ होता भी है, तो यह किसान के हाथ में नहीं मिलता. ग़ायब हो जाता है.

लाभ को अलग तरीक़े से समझने की आवश्यकता है. लेनिन देबल देब को उद्धृत करते हुए कहते हैं, “यदि आप सबकुछ लगा दें – पुआल, भूसा, चिवड़ा, बीज और यहां तक कि चावल भी तो यह लाभप्रद है. अदृश्य बचत यही है कि मिट्टी को कितना लाभ हुआ. धान को मंडी में बेचने से परे सोचना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है.

पारंपरिक क़िस्मों को कम से कम प्रोसेसिंग की ज़रूरत है. “ग्राहक को जैविक उत्पादों से बाहरी सुन्दरता की कोई उम्मीद नहीं है.” यह एक ऐसी बात है जिसे किसान आसानी से समझा सकता है – कि सेब बेढब आकारों के हो सकते हैं, गाजर नुकीले या गांठदार हो सकते हैं, और चावल के दाने भी रंगीन और ग़ैरबराबर आकार के हो सकते हैं. वे अपनेआप में परिपूर्ण हैं, और सुन्दरता के मानकों पर उन्हें अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है.

लेकिन अर्थशास्त्र की ज़रूरत भिन्न तरह की है. किसानों के समूह को बिक्री और आपूर्ति की क्रमबद्धता के बारे में सोचना होता है. लेनिन इसमें एक बड़ी भूमिका निभाते हैं. दो सालों से वे इस इलाक़े के अनेक किसानों द्वारा पैदा किए गए स्थानीय चावल को अपने गोदाम से वितरित करते हैं. पिछले 6 महीने से अपने 10X11 फुट के शेड से उन्होंने 60 टन चावल बेचने में मदद की है. उनके ग्राहक उनपर भरोसा करते हैं और उन्हें अच्छी तरह जानते हैं. “वे सभाओं में मेरी बात ध्यान से सुनते हैं. उनको मेरे घर का पता मालूम है और वे मेरा काम भी जानते हैं. इसलिए वे बेफ़िक्र होकर अपनी फ़सल यहां ले आते हैं और मुझसे कहते हैं कि जब कभी उनकी फ़सल बिकेगी, वे अपना पैसा लेने आ जाएंगे.”

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गाहने की प्रतीक्षा में धान की कटी हुई फ़सल

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बाएं: लेनिन मरक्का की मदद से धान को तौलते हैं. दाएं: विग्नेश की बाइक पर डिलीवरी के लिए चावल की बोरियां लादते लेनिन

उनके ग्राहक उन्हें दिन भर कॉल और मैसेज करते रहते हैं. यह एक कठिन काम है. चावल को तौलने, पैक करने, और कई बार चावल के बैग लेकर तिरुवन्नमलई, आरनी, कन्नमंगलम जैसे आसपास के शहरों में उनको पहुंचाने के क्रम में उनको लगातार भागदौड़ करते रहना होता है ...

लेनिन के पास कुछ ग्राहक अचानक भी चले आते हैं. “जो लोग खाद बेचते और हाइब्रिड बीजों का प्रचार-प्रसार करते हैं वे भी मुझसे ही चावल ख़रीदने आते हैं,” लेनिन इस विडंबना पर हंसते हैं. “कृषि उत्पाद बिक्री कंपनी के मालिक मुझसे कहते हैं कि मैं बिना नाम वाली सादी बोरियों में चावल भरकर उनकी दुकानों में छोड़ जाऊं. वे इसके पैसे जी-पे [गूगल-पे] कर देते हैं. वे यह काम बिना किसी शोरशराबे के करना चाहते हैं.”

चावल वितरण से प्रति महीने चार से आठ लाख रुपयों की बिक्री होती है. इससे 4,000 से लेकर 8,000 रुपए का लाभ होता है. बहरहाल लेनिन इसी से ख़ुश हैं. “जब मैंने शहर में भंडारण के लिए एक कमरा किराए पर लिया, तो उसका ख़र्च उठा पाना कठिन होने लगा. किराया अधिक था, खेत से दूर रहने की अपनी परेशानियां थीं, और एक सहायक का ख़र्च अलग से उठाना पड़ता था. उस समय मैं पास के ही एक चावल मिल की भव्यता के प्रभाव में था. उसकी दूसरी भी शाखाएं थीं और जिनमें आधुनिक मशीनें लगी थीं. मैं मिल के भीतर तक जाने से संकोच करता था. बाद में मुझे पता चला कि उस मिल पर करोड़ों का क़र्ज़ था.”

लेनिन बताते हैं, पिछली पीढ़ी ने पारंपरिक चावल को बढ़ावा देकर करके कुछ नहीं कमाया. “मैंने बहुत थोड़ा लाभ कमाया, प्रकृति के साथ रहा, पर्यावरण को पहुंचने वाले नुक़सान को कम करने की कोशिश की और लुप्त हो चुकी क़िस्मों को पुनर्जीवित किया.” इसमें कौन सा काम है जो ख़ुशी न दे, उनकी चौड़ी मुस्कुराहट मानो यह सवाल कर रही हो.

लेनिन मुस्कुराते हैं तो उनकी आंखें भी मुस्कुराती हुई लगती हैं. अपनी योजनाओं के बारे में जब वे बात करते हैं, तो उन आंखों में एक चमक दिखती है. वे पांच चीज़ों में बदलाव लाना चाहते हैं – बीज, वाणिज्य, किताबें, हस्तकला और संरक्षण.

दो कुत्ते भी हमारे साथ ही खेत में घूम रहे हैं, जैसे हमारी बातचीत सुन रहे हों. “बिल्लियां किसानों के लिए अधिक उपयोगी हैं,” मुझे उन कुत्तों की तस्वीरें लेते देखकर लेनिन कहते हैं. “ख़ासकर जब वे चूहे की अच्छी शिकारी हों.” छोटा कुता अपनी जीभ लपलपाता हुआ हमें देख रहा है.

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मार्च 2024 की अपनी मासिक बैठक में कलसपक्क्म ऑर्गेनिक फार्मर्स फोरम तीन दिन पहले ही 5 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा है. पुरुषों ने आज एक तरह से महिलाओं का अनुसरण करने का निर्णय लिया है. महिलाएं ही आज बोल रही हैं. किसान सुमति पुरुषों से सवाल करती हैं: “अगर आपके परिवार की सभी महिलाओं के नाम पर ज़मीनें होतीं – आपकी बहन, आपकी पत्नी के नाम पर, तो यहां आज ज़्यादा तादाद में औरतें इकट्ठी होतीं. है कि नहीं?” उपस्थित लोगों ने तालियां बजाकर उनके सवाल का स्वागत किया.

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5 मार्च, 2024 को कलसपक्कम आर्गेनिक फोरम की बैठक में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन

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जुलाई 2023 में कलसपक्कम का शुक्रवारीय बाज़ार, जहां किसान अपने उत्पाद के साथ आते हैं और उन्हें सीधे ग्राहकों को बेचते हैं

“हम हर साल महिला दिवस मनाने जा रहे हैं,” राजेंद्रन घोषणा करते हैं. सभी लोग तालियों के साथ उनका समर्थन करते हैं. उनके पास दूसरी योजनाएं भी हैं. शुक्रवार को लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार की योजना बहुत सफल रही है. इसकी शुरुआत दो साल पहले की गई थी. आसपास के गांवों से आए लगभग दस किसान कलसपक्कम के एक स्कूल के सामने इमली के पेड़ के छाए में बैठे हैं और अपने साथ लाए उत्पादों को बेच रहे हैं. तमिल महीने आदि (जुलाई-मध्य से अगस्त-मध्य) में रोपाई के मौसम से पहले आयोजित होने वाले वार्षिक बीज मेले के लिए तिथियां तय हो गई हैं. जनवरी के महीने में एक खाद्य-मेला भी आयोजित होना है. “इस बार मई में एक महापंचायत भी बुलाई जाए, तो अच्छा है,” राजेंद्रन प्रस्ताव रखते हैं. “हमें बहुत सारी बात करनी है, और बहुत से काम भी करने हैं.”

बहरहाल कुछ समस्याएं भी हैं जिनपर सार्वजनिक बातचीत नहीं हुई है. लेनिन कहते हैं कि धान किसानों के गौरव से जुड़ा हो सकता है, लेकिन समाज में किसानों को वह रुतबा हासिल नहीं हैं. “फ़िल्मों में देख लीजिए, हीरो हमेशा कोई डॉक्टर, इंजीनियर या वकील होता है. किसान कहां नज़र आते हैं?” राजेंद्रन पूछते हैं. “इन सबका असर इस रूप में देखा जा सकता है कि किसान को विवाह बाज़ार में किस दृष्टि से देखा जाता है,” लेनिन संकेत करते हैं.

“हमारे पास ज़मीन हो, डिग्री [कई बार तो दो-दो) और हमारी आमदनी भी अच्छीख़ासी हो, तब भी हमें ठुकरा दिया जाता है, क्योंकि हम किसान हैं,” लेनिन कहते हैं. “खेती करना अपनेआप में इतनी अनिश्चितताओं से घिर चुका है कि कोई भी वैवाहिक स्तंभों में किसानों की तलाश नहीं करता है. है कि नहीं?”

एक कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार किसान और वितरक के रूप में लेनिन विविधता में समाज की अनेक समस्याओं का समाधान देखते हैं. “जीवन की तरह रोज़गार में भी आप जब संसाधनों की शृंखलाएं विकसित करते हैं, आपकी सफलता की संभावनाएं भी उसी समय विकसित होती जाती हैं.”

जब आप अधिक क़िस्में उगाते और बेचते हैं, तब आप अपना जोखिम भी कम करते जाते हैं. “यही एकमात्र तरीक़ा है जिससे आप जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से बच सकते है,” वे कहते हैं. इस बात को वे एक विशेष उदाहरण और विकास काल-खंडों से दिखाते हैं. “यह एक ग़लतफहमी है कि आधुनिक क़िस्मों को जल्दी उगाया और काटा जा सकता है, और स्थानीय क़िस्में उनकी तुलना में अधिक समय लेती हैं. यह ग़लत है,” वे कहते हैं. “पारंपरिक बीज का फ़सल चक्र लंबा और छोटा दोनों होता है. दूसरी ओर आधुनिक प्रजातियां अधिकतर बीच का समय लेती हैं. उनकी कटाई के लिए केवल एक या दो सीज़न ही होते हैं.”

पारंपरिक धान के और कई विकल्प हैं. “कुछ को उत्सव-समारोहों के लिए उगाया जाता है, कुछ औषधीय उद्देश्य से लगाए जाते हैं. वे मज़बूत होते हैं और कीटों और सूखे के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता से भरपूर भी, और खारेपन को बर्दाश्त करने की अद्भुत क्षमता से लैस भी.”

PHOTO • M. Palani Kumar
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लेनिन द्वारा उपजाई गई धान की कुतिरई वाल सम्बा (बाएं) और रतसाली (दाएं) जैसी क़िस्में

डॉ. रेंगलक्ष्मी कहती हैं कि जहां दबाव अधिक हो, वहां विविधताएं भी अधिक होती हैं. “तटवर्ती तमिलनाडु, ख़ासकर कडलूर से लेकर रामनातपुरम ज़िले के बीच के इलाक़े को ले लीजिए, जहां खारापन और मिट्टी की गुणवत्ता के कारण धान की अनेक अद्भुत पारंपरिक क़िस्में देखने को मिलती हैं जो भिन्न-भिन्न अवधियों में तैयार होती हैं. उदाहरण के लिए नागपट्टिनम और वेदारण्यम के बीच के क्षेत्र में कुलिवेदिचान और ऐसी 20 से अधिक चावल की क़िस्में प्रचलित हैं.”

“नागपट्टिनम और पूम्पुहार के बीच में एक अन्य क़िस्म – कलुरंडई और उससे मिलती-जुलती कई दूसरी क़िस्में उगाई जाती थीं जो स्थानीयता के अनुकूल थीं, ताकि पहले की कृषि-पारिस्थितिकी को व्यवस्थित रखा जा सके. इन क़िस्मों को पारंपरिक माना जाता था, और इन्हें अगले मौसम के लिए सुरक्षित रखा जाता था. लेकिन चूंकि अब बाहर से बीज आने लगे, एक अभ्यास के रूप में उन बीजों को सुरक्षित रखने की परंपरा ख़त्म हो चुकी है.” इसलिए जब जलवायु परिवर्तन के कारण उच्च दबाव की स्थिति बनती है, “विविधता से संबंधित जानकारी लुप्त हो गई होती है,” डॉ. रेंगलक्ष्मी इंगित करती हैं.

विविधता छोटे खेतों के कारण बची हुई है, जहां एक साथ कई फ़सलें उगाई जाती हैं, लेनिन बताते हैं. “मशीनी प्रणालियों और बड़े बाज़ारों ने हमेशा इसकी उपेक्षा ही की है. अभी भी ऐसी अनेक फ़सलें हैं जिन्हें बरसात पर निर्भर इलाक़ों में उगाया जा सकता है, और जो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करते हैं. रागी, तिल, हरा मटर, बटर बीन या सीवा बीन, बाजरा और ज्वार भी अच्छी फ़सले हैं. लेकिन जब किसान औद्योगिक कृषि के तौर-तरीक़ों को अपना लें, और जब कृषि-संबंधी सामाजिकताओं को अंधाधुंध मशीनी गतिविधियों से स्थानापन्न कर दिया जाए, तब ज्ञान के संदर्भ में तेज़ गिरावट एक अवश्यंभावी घटना है,” लेनिन कहते हैं.

सबसे बड़ी हानि कौशल की क्षीणता के रूप में उपस्थित होती है. इसलिए नहीं कि ज्ञान गैरज़रूरी चीज़ है, बल्कि इसलिए कि ज्ञान - और कौशल – को पिछड़ी हुई चीज़ मान लिया जाता हैं. “और यह कि तेज़तर्रार आदमी इसके पीछे नहीं भागता है. इसी भयावह मान्यता और मानसिकता के कारण ऐसे कई जानकार समाज की नज़र में आए” लेनिन ज़ोर देते हुए कहते हैं.

लेनिन मानते हैं कि इसका समाधान है. “हमें उन क़िस्मों को चिन्हित करने की ज़रूरत है जो मूलतः इसी क्षेत्र के हैं. उन क़िस्मों को संरक्षित करना होगा, उगाना होगा और खाने की थालियों तक पहुंचाना होगा. लेकिन साथ ही अकेले तिरुवन्नमलई में आपको ऐसे सौ उद्यमी चाहिए जो ‘बाज़ार’ नाम के इस राक्षस का मुक़ाबला कर सके,” वे कहते हैं.

“पांच सालों में मुझे लगता है कि हम सभी एक कॉ-आपरेटिव के हिस्सा होंगे और सामूहिक खेती कर रहे होंगे. पिछले साल बहुत दिनों तक बरसात हुई और कोई चालीस दिनों तक खिली धूप नहीं निकली. ऐसे में आप धान कैसे सुखाएंगे? हमें धान को सुखाने वाल एक संयत्र चाहिए. मिलजुल काम करने से हमारे भीतर ताक़त आएगी.”

उन्हें भरोसा है कि बदलाव आएगा. बदलाव उनके निजी जीवन में भी दिखने वाला है. जून में उनकी शादी होने वाली है. “राजनीतिक स्तर पर या नीतिगत स्तर पर, बदलाव धीरे-धीरे ही होगा. हड़बड़ी में किए गए फ़ैसलों के अपने नुक़सान भी हो सकते है.”

यही कारण है लेनिन का सुस्त रफ़्तार, ख़ामोश आंदोलन, जिसमें उनके साथी उनके साथ हैं, शायद सफल सिद्ध हो…

इस शोध अध्ययन को बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अनुसंधान अनुदान कार्यक्रम 2020 के तहत अनुदान हासिल हुआ है.

कवर फ़ोटो: चावल की क़िस्में - कुल्लनकार, करुडन संबा और करुनसीरक संबा.

तस्वीर: एम. पलनी कुमार

अनुवाद: प्रभात मिलिंद & देवेश

Aparna Karthikeyan

Aparna Karthikeyan is an independent journalist, author and Senior Fellow, PARI. Her non-fiction book 'Nine Rupees an Hour' documents the disappearing livelihoods of Tamil Nadu. She has written five books for children. Aparna lives in Chennai with her family and dogs.

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Photographs : M. Palani Kumar

M. Palani Kumar is Staff Photographer at People's Archive of Rural India. He is interested in documenting the lives of working-class women and marginalised people. Palani has received the Amplify grant in 2021, and Samyak Drishti and Photo South Asia Grant in 2020. He received the first Dayanita Singh-PARI Documentary Photography Award in 2022. Palani was also the cinematographer of ‘Kakoos' (Toilet), a Tamil-language documentary exposing the practice of manual scavenging in Tamil Nadu.

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P. Sainath is Founder Editor, People's Archive of Rural India. He has been a rural reporter for decades and is the author of 'Everybody Loves a Good Drought' and 'The Last Heroes: Foot Soldiers of Indian Freedom'.

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Translator : Prabhat Milind

Prabhat Milind, M.A. Pre in History (DU), Author, Translator and Columnist, Eight translated books published so far, One Collection of Poetry under publication.

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Translator : Devesh

Devesh is a poet, journalist, filmmaker and translator. He is the Translations Editor, Hindi, at the People’s Archive of Rural India.

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