“क्या मैं अपने जीवन की कहानी को लेकर आप पर भरोसा कर सकती हूं?”
इतना सीधा और चुनौतीपूर्ण सवाल आपसे शायद ही कभी पूछा गया हो। और सवाल करने वाले के पास इसे पूछने के उत्कृष्ट कारण थे। जैसा कि तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले के एक छोटे से गांव की जननी (बदला हुआ नाम), अपने जीवन की कहानी के बारे में कहती हैं: “तपेदिक ने इसे पूरी तरह से बदल दिया है।”
उनकी शादी को डेढ़ साल ही हुए थे और उनका एक चार महीने का बेटा था जब वह टीबी से संक्रमित हो गईं। “यह मई 2020 की बात है। उससे लगभग एक महीना पहले मुझे इसके लक्षण [दीर्घकालिक खांसी और बुख़ार] थे।” जब सभी नियमित परीक्षण विफल हो गए, तो डॉक्टरों ने उन्हें टीबी का परीक्षण कराने की सलाह दी। “जब उन्होंने पुष्टि कर दी कि यह तपेदिक ही है, तो मैं टूट गई। यह मेरे किसी भी परिचित को नहीं हुआ था, और मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह मुझे हो जाएगा।
“मेरे गांव में इस बीमारी को कलंक माना जाता है, एक ऐसा रोग जो सारी सामाजिकता को ख़त्म कर देता है — कि यह मुझे भी हो सकता है!”
उस दिन से, 27 वर्षीय जननी के पति जो कभी उनसे बहुत प्यार करते थे, उन्हें इस बीमारी के लिए लगातार ताना देने लगे कि वह उन्हें भी संक्रमित कर सकती हैं। “वह मुझे मौखिक और शारीरिक रूप से प्रताणित करते थे। हमारी शादी होने के एक साल बाद ही उनकी मां का निधन हो गया था — क्योंकि उन्हें पहले से ही गुर्दे से संबंधित बीमारी थी। लेकिन मेरे पति कहने लगे कि उनकी मृत्यु मेरी वजह से हुई है।”
यदि उस समय कोई व्यक्ति गंभीर जोखिम में था, तो वह स्वयं जननी थीं।
तपेदिक या टीबी अभी भी भारत में सबसे घातक संक्रामक रोग है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, कोविड-19 के केंद्र में आने से पहले, तपेदिक ने 2019 में 26 लाख से ज़्यादा भारतीयों को प्रभावित किया था, जिससे लगभग 4,50,000 लोगों की मृत्यु हुई । भारत सरकार ने डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों पर ज़ोरदार हमला करते हुए कहा कि उस साल टीबी से संबंधित मौतों की संख्या 79,000 से अधिक नहीं थी। इन 15 महीनों में कोविड-19 से 2,50,000 लोगों की मृत्यु हो चुकी है।
वर्ष 2019 में, भारत में दुनिया भर के टीबी के कुल मामलों का एक चौथाई हिस्सा था — डब्ल्यूएचओ के अनुसार, यह संख्या 1 करोड़ थी। “विश्व स्तर पर, अनुमानित 1 करोड़...लोग 2019 में टीबी से बीमार पड़े, यह संख्या हाल के वर्षों में बहुत धीरे-धीरे घट रही है।” दुनिया भर में टीबी से होने वाली 14 लाख मौतों में से एक चौथाई भारत में हुई थी।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार , टीबी एक “जीवाणु (माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस) के कारण होता है जो फेफड़े को सबसे अधिक प्रभावित करता है...टीबी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में हवा के माध्यम से फैलता है। जब टीबी से संक्रमित फेफड़े वाले लोग खांसते, छींकते या थूकते हैं, तो वे टीबी के कीटाणुओं को हवा में फैला देते हैं। इनमें से कुछ कीटाणुओं को ही सांस द्वारा अंदर ले जाने से कोई व्यक्ति इस रोग से संक्रमित हो सकता है। दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी टीबी से संक्रमित है, जिसका मतलब यह है कि लोग टीबी के जीवाणु से संक्रमित हो चुके हैं, लेकिन इससे (अभी तक) बीमार नहीं पड़े हैं और इसे फैला नहीं सकते।”
डब्ल्यूएचओ आगे कहता है कि तपेदिक “गरीबी और आर्थिक संकट की बीमारी है।” और, उसका कहना है, टीबी से प्रभावित लोग अक्सर “आलोचना, उपेक्षा, लांक्षन और भेदभाव का सामना करते हैं..”
जननी जानती हैं कि इसमें कितनी सच्चाई है। अपनी उच्च-शिक्षित स्थिति के बावजूद — उनके पास विज्ञान में स्नातकोत्तर की डिग्री और शिक्षण में स्नातक की डिग्री है — उन्हें भी आलोचना, लांक्षन और भेदभाव का सामना करना पड़ा। उनके पिता एक मज़दूर हैं — “छोटे-मोटे काम करते हैं” जब उन्हें मिलता है — उनकी मां एक गृहिणी हैं।
बीमारी से सामना होने, और उनके पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद — और अब जननी इस घातक बीमारी के ख़िलाफ़ यहां के अभियान की भाषा में “टीबी योद्धा” या ‘महिला टीबी लीडर’ बन गई हैं, जो सक्रिय रूप से तपेदिक से संबंधित धारणाओं और लांक्षनों का मुक़ाबला कर रही हैं।
जून 2020 में, बीमारी से संक्रमित होने के एक महीने के भीतर, जननी अपने माता-पिता के घर चली गईं। “मैं इससे आगे (अपने पति के) दुर्व्यवहार को सहन नहीं कर पा रही थी। वह मेरे बेटे — चार महीने के बच्चे — को भी गाली देता था। इसने क्या पाप किया था?” उनके पति ने, जो एक छोटी सी कार्यशाला चलाता है, तुरंत तलाक़ की अर्ज़ी दी और उनके माता-पिता, वह बताती हैं, “हैरान थे, उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा था।”
लेकिन उन्होंने घर में उनका स्वागत किया। जननी ज़ोर देकर कहती हैं कि उनका बहुत बड़ा एहसान है — “एक बच्ची और युवा के रूप में, वे मुझे कृषि कार्य के लिए भेजते नहीं थे, जो कि हमारे इलाक़े में आम बात है। उन्होंने अपने सभी बच्चों की बेहतर शिक्षा को सुनिश्चित किया।” उनसे बड़ा एक भाई और एक बहन हैं — दोनों के पास स्नातकोत्तर की डिग्री है। जननी ने भी अपने पति से अलग होने के बाद ही काम करना शुरू किया।
दिसंबर 2020 में, तपेदिक से पूरी तरह ठीक होने के बाद, उन्होंने अपनी योग्यता वाले लोगों के लिए खुले करियर के विभिन्न विकल्पों का पता नहीं लगाने का फैसला किया। इसके बजाय, वह तमिलनाडु में दो दशकों से टीबी उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे एक गैर-लाभकारी संगठन, रिसोर्स ग्रूप फॉर एजुकेशन एंड एडवोकेसी फॉर कम्युनिटी हेल्थ (रीच) में शामिल हो गईं। तब से, जननी टीबी के बारे में जागरूकता फैलाने और इसका जल्दी पता लगाने को सुनिश्चित करने के लिए अपने गांव और उसके आसपास के लोगों से मिल रही हैं। “मैंने कई बैठकें की हैं, तीन रोगियों में शुरुआती तपेदिक का पता लगाया है, और ऐसे 150 से अधिक व्यक्तियों पर मेरी नज़र है जिनका परीक्षण नकारात्मक आया है, लेकिन उनके अंदर लक्षण लगातार बने हुए हैं।”
जैसा कि डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में कहा गया है: “टीबी का इलाज किया जा सकता है और इसे रोका जा सकता है। टीबी से संक्रमित लगभग 85% लोगों को 6 महीने तक दवाई देकर उनका सफलतापूर्वक इलाज किया जा सकता है।” और “वर्ष 2000 से अब तक टीबी के उपचार से 6 करोड़ से अधिक लोगों को मरने से बचाया गया है, हालांकि सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) अभी तक सभी के पास नहीं पहुंची है और लाखों लोग जांच और इलाज से वंचित हैं।”
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“कोविड और लॉकडाउन के दौरान एक चुनौती थी,” तमिलनाडु के तेनकाशी जिले की 36 वर्षीय बी देवी कहती हैं। जननी की तरह, वह भी अपने अनुभव से ‘टीबी योद्धा’ बनकर उभरीं। “कक्षा 7 में पढ़ते समय मुझे तपेदिक हो गया था। मैंने तो उससे पहले यह शब्द भी नहीं सुना था।” अपने संघर्षों के बावजूद, वह 12वीं कक्षा तक पढ़ने में सफल रहीं।
उनके माता-पिता उन्हें एक निजी अस्पताल ले गए, जहां वह बीमारी से ठीक नहीं हुईं। “तब हम तेनकाशी के सरकारी अस्पताल गए, जहां मुझे विभिन्न प्रक्रियाओं से गुज़ारा गया। लेकिन अब इसके बारे में सोचना, इलाज के बारे में कुछ भी आश्वस्त नहीं था। मैं उस अनुभव को बदलना चाहती थी जो मैंने किया था,” देवी कहती हैं।
देवी तेनकाशी जिले के वीरकेरलमपुदुर तालुक से हैं। उनके माता-पिता खेतिहर मज़दूर थे। वह बताती हैं कि अपनी गरीबी के बावजूद, जब उन्हें टीबी हुआ तो उन्होंने और अन्य रिश्तेदारों ने उनकी बहुत मदद की। उन्होंने उनका इलाज करवाया और पूरी लगन से उन पर नज़र रखी। “मेरी अच्छी तरह देखभाल की गई थी,” वह बताती हैं।
देवी के पति भी, मददगार और आश्वासन दिलाने वाले थे। उन्होंने ही इनके लिए नौकरी के बारे में सोचा था। वह टीबी विरोधी अभियान में शामिल हो गईं, प्रशिक्षण लिया, और उसी गैर-लाभकारी संगठन के साथ काम करना शुरु किया जिसके साथ जननी ने किया था। सितंबर 2020 से, देवी ने एक दर्जन से अधिक बैठकें कीं (प्रत्येक में औसतन 20 या उससे अधिक लोगों ने भाग लिया) जिसमें उन्होंने टीबी के बारे में बात की।
“प्रशिक्षण पूरा करने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं टीबी रोगियों के साथ काम करना चाहती हूं। सच कहूं तो मैं बहुत ख़ुश थी। मैं कुछ सकारात्मक कर सकती थी जो मेरे साथ नहीं हुआ था,” वह कहती हैं। वर्तमान में देवी, तेनकाशी जिले के पुलियनगुडी नगरपालिका के सामान्य अस्पताल में लगभग 42 टीबी रोगियों को संभाल रही हैं, जिनमें से एक को ठीक कर दिया गया है। “हम शुरू में परामर्श देते हैं और रोगियों पर नज़र बनाए रखते हैं। अगर किसी व्यक्ति में टीबी का पता चलता है, तो हम परिवार के सदस्यों की भी जांच करते हैं, और उनके लिए निवारक उपाय करते हैं।”
देवी और जननी दोनों इस समय कोविड-19 महामारी द्वारा पैदा की गई स्थिति से जूझ रही हैं। उन जगहों पर काम करना उनके लिए जोखिम भरा होता है। फिर भी, वे काम करती रहीं, लेकिन, देवी कहती हैं, “यह कठिन रहा है, अस्पताल के कर्मचारी खुद कोविड से संक्रमित होने के डर से हमें थूक का परीक्षण करने से हतोत्साहित करते हैं। मुझे उनके स्थान में हस्तक्षेप किए बिना परीक्षण करना होगा।”
और कोविड-19 महामारी से उत्पन्न नए खतरे बहुत बड़े हैं। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में यूरोपियन रेस्पिरेटरी जर्नल में एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि “कोविड-19 महामारी, स्वास्थ्य सेवाओं में व्यवधान और निदान और उपचार में देरी, अगले पांच वर्षों में भारत में तपेदिक (टीबी) से संबंधित 95,000 अतिरिक्त मौतों का कारण बन सकती है।” इसके अलावा, इन समस्याओं का असर आंकड़ों पर भी पड़ेगा — ऐसा प्रतीत होता है कि महामारी शुरू होने के बाद टीबी के मामलों की संख्या कम करके गिनी गई है या उनकी कम ‘सूचना’ दी गई है। और हालांकि विश्वसनीय आंकड़ों की कमी है, लेकिन इसे लेकर कोई विवाद नहीं है कि कुछ कोविड-19 मौतें टीबी की प्रमुख सह-रुग्णता के रूप में हुई हैं।
भारत टीबी रिपोर्ट 2020 के अनुसार, भारत में टीबी के मरीज़ों की सबसे अधिक संख्या वाले राज्यों में से एक, तमिलनाडु में वर्ष 2019 में तपेदिक के लगभग 110,845 रोगी थे। इसमें से 77,815 पुरुष और 33,905 महिलाएं थीं। ट्रांसजेंडर रोगियों की संख्या 125 थी।
फिर भी, हाल के दिनों में टीबी के मामलों की सूचनाओं में यह राज्य 14वें स्थान पर है। इसके पीछे के कारण स्पष्ट नहीं हैं, बीमारी के बारे में व्यापक अनुभव रखने वाले चेन्नई के एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता का कहना है। “शायद इसलिए कि इसका फैलाव कम है। बुनियादी सुविधाओं और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के मामले में तमिलनाडु एक बेहतर राज्य है। यहां स्वास्थ्य के कई उपाय बेहतर तरीके से किए जा रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह भी हो सकता है कि सरकारी तंत्र ठीक से काम नहीं कर रहा हो। कुछ अस्पतालों में, छाती का एक्स-रे करवाना भी एक बड़ा काम है [कोविड-19 के कारण स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ने वाले दबाव ने इसे और जटिल बना दिया है]। हम तपेदिक के लिए सभी अनिवार्य परीक्षण नहीं करते। इस समय बीमारी के प्रसार को लेकर एक सर्वेक्षण चल रहा है। जब तक इसके नतीजे सामने नहीं आ जाते, हम यह नहीं कह सकते कि राज्य में मामले कम क्यों हैं।”
टीबी से पीड़ित लोगों से जुड़े कलंक की गणना कैसे करें? “हालांकि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के संक्रमित होने की संभावना कम होती है, लेकिन बीमारी से जुड़ा कलंक दोनों के लिए समान नहीं है। पुरुषों को भी कलंकित किया जाता है, लेकिन महिलाओं के मामले में यह बदतर है,” रीच की उपनिदेशक, अनुपमा श्रीनिवासन कहती हैं।
जननी और देवी इससे सहमत होंगी। यह एक कारण हो सकता है जिसने उन्हें अपने वर्तमान काम की ओर आकर्षित किया हो।
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और फिर पूनगोडी गोविंदराज की कहानी है। अभियान का नेतृत्व करने वाली, वेल्लोर की 30 वर्षीय पूनगोडी अब तक तीन बार तपेदिक से पीड़ित हो चुकी हैं। “वर्ष 2014 और 2016 में, मैंने टीबी को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया, और गोलियां खानी बंद कर दीं,” वह बताती हैं। “2018 में मेरा एक्सीडेंट हुआ था और इलाज के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि मुझे स्पाइनल टीबी है। हालांकि इस बार मैंने इलाज पूरा किया और अब ठीक हूं।”
पूनगोडी ने 12वीं कक्षा तक अपनी पढ़ाई सफलतापूर्वक पूरी कर ली थी और नर्सिंग में बीएससी कर रही थीं तभी उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। “वर्ष 2011, 12 और 13 में मेरे तीन बच्चे हुए। लेकिन जन्म के तुरंत बाद ही तीनों की मृत्यु हो गई,” वह बताती हैं। “स्वास्थ्य कारणों से मुझे अपनी नर्सिंग की पढ़ाई छोड़नी पड़ी।” और ये सिर्फ उनके साथ ही नहीं हुआ। टीबी से 2011 में उनकी मां की मृत्यु हो गई। उनके पिता अब एक नाई के सैलून में काम करते हैं। एक निजी कंपनी में मामूली नौकरी करने वाले पूनगोडी के पति ने 2018 में टीबी का पता चलने के तुरंत बाद ही उन्हें छोड़ दिया था और तब से वह अपने माता-पिता के यहां रह रही हैं।
पूनगोडी का कहना है कि उनके परिवार के पास पहले थोड़ी सी संपत्ति थी, लेकिन उनके इलाज और पति द्वारा छोड़े जाने के बाद तलाक के मुकदमे का भुगतान करने के लिए यह सब बेचना पड़ा। “मेरे पिता अब मेरा मार्गदर्शन और समर्थन करते हैं। मुझे खुशी है कि मैं टीबी के बारे में जागरूकता फैला रही हूं,” वह कहती हैं। तपेदिक के कारण पूनगोडी का वज़न घटकर 35 किलो हो गया है। “मेरा वज़न लगभग 70 किलो हुआ करता था। आज मैं टीबी उन्मूलन अभियान का सफलतापूर्वक नेतृत्व कर रही हूं। मैं तपेदिक और इससे निपटने के तरीके के बारे में कम से कम 2,500 लोगों को परामर्श दे चुकी हूं। मैंने टीबी के 80 रोगियों के इलाज की निगरानी की है, जिनमें से 20 अब तक ठीक हो चुके हैं।” पूनगोडी, जिनको नौकरी करने का पहले कोई अनुभव नहीं था, सोचती हैं कि ‘महिला टीबी नेता’ के रूप में उनकी भूमिका महत्तवपूर्ण है। वह कहती हैं, “मुझे इस काम से शांति, खुशी और संतुष्टि मिलती है। मैं कुछ ऐसा कर रही हूं जिस पर मुझे गर्व है। मुझे लगता है कि जिस गांव में मेरे पति रहते हैं, उसी गांव में रहकर ये सब करना बहुत बड़ी उपलब्धि है।”
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साधिपोम वा पेन्ने (शाबाश महिलाओं! करके दिखा दो) कार्यक्रम उन महिलाओं की पहचान करता है जो टीबी के मामले का पता लगाने में सहायता कर सकती हैं और इसे बढ़ावा दे सकती हैं। रीच द्वारा इसे तमिलनाडु के चार जिलों — वेल्लोर, विल्लुपुरम, तिरुनेलवेली और सलेम में शुरू किया गया है।
इस कार्यक्रम द्वारा यहां की लगभग 400 महिलाओं को प्रशिक्षित किया जा रहा है ताकि वे अपने गांवों या वार्डों में लोगों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को — फोन पर प्रशिक्षण के माध्यम से — दूर कर सकें। अनुपमा श्रीनिवासन बताती हैं कि 80 अन्य महिला टीबी नेताओं को प्रशिक्षित किया जाएगा (जैसे कि पूनगोडी हैं), जो सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर तपेदिक की जांच करती हैं।
रोग की घटनाओं को देखते हुए यह संख्या कम लग सकती है, लेकिन यह जननी, देवी, पूनगोडी और कई अन्य महिलाओं — साथ ही टीबी के उन हज़ारों रोगियों के लिए भी महत्तवपूर्ण है जिनसे वे आने वाले समय में संपर्क करेंगी। और यह सिर्फ चिकित्सकीय रूप से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। और जो लोग इससे ग्रस्त हैं उनके आत्मविश्वास पर इसका प्रभाव सबसे अधिक होता है।
“यह जगह बहुत ही सुखद है,” जननी यहां अपने रोज़मर्रा के काम का ज़िक्र करते हुए कहती हैं। रीच में दो महीने काम करने के बाद, उनके पति (और उनका परिवार) उनके पास लौट आए। “मुझे नहीं पता कि यह मेरे द्वारा कमाए गए पैसे के कारण है — वह अक्सर मुझे घर में फालतू होने का आरोप लगाते थे — या शायद वह बिल्कुल अकेले हो गए थे और उन्हें मेरे महत्व का एहसास हुआ। जो भी हो, मेरे माता-पिता खुश हैं कि तलाक के मुक़दमे के बाद भी हम सुलह कर पाए।”
अपने माता-पिता को खुश रखने के लिए, जननी इस साल फरवरी में अपने पति के साथ चली गई थीं। “अब तक वह मेरी अच्छी देखभाल कर रहे हैं। मुझे लगा था कि टीबी ने मेरे जीवन को तबाह कर दिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि उसने इसे और सार्थक बना दिया है। यह जानकर मुझे खुशी होती है कि मैं एक ऐसी बीमारी के बारे में लोगों को शिक्षित कर रही हूं जिसने मुझे एक तरह से मार डाला था।”
कविता मुरलीधरन ठाकुर फैमिली फाउंडेशन से एक स्वतंत्र पत्रकारिता अनुदान के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता पर रिपोर्ट करती हैं। ठाकुर फैमिली फाउंडेशन ने इस रिपोर्ट की सामग्री पर कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं किया है।
हिंदी अनुवाद: मोहम्मद क़मर तबरेज़